गुरुवार, 11 जनवरी 2018

नाम जप में मन क्यों नहीं लगता ?

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नाम जप में मन क्यों नहीं लगता ?
बहुतसे लोग कह देते हैं—‘तुम नाम-जपते हो तो मन लगता है कि नहीं लगता है ? अगर मन नहीं लगता है तो कुछ नहीं, तुम्हारे कुछ फायदा नहीं—ऐसा कहनेवाले वे भाई भोले हैं, वे भूलमें हैं, इस बातको जानते ही नहीं; क्योंकि उन्होंने कभी नाम-जप करके देखा ही नहीं । पहले मन लगेगा, पीछे जप करेंगे—ऐसा कभी हुआ है ? और होगा कभी ? ऐसी सम्भावना है क्या ? पहले मन लग जाय और पीछे ‘राम-राम’ करेंगे—ऐसा नहीं होता । नाम जपते-जपते ही नाम-महाराजकी कृपासे मन लग जाता है ‘हरिसे लागा रहो भाई । तेरी बिगड़ी बात बन जाई, रामजीसे लागा रहो भाई ॥’ इसलिये नाम-महाराजकी शरण लेनी चाहिये । जीभसे ही ‘राम-राम’ शुरू कर दो, मनकी परवाह मत करो । ‘परवाह मत करो’—इसका अर्थ यह नहीं है कि मन मत लगाओ । इसका अर्थ यह है कि हमारा मन नहीं लगा, इससे घबराओ मत कि हमारा जप नहीं हुआ । यह बात नहीं है । जप तो हो ही गया, अपने तो जपते जाओ । हमने सुना है—
माला तो करमें फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं ।
मनवाँ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं ॥
‘भजन होगा नहीं’—यह कहाँ लिखा है ? यहाँ तो ‘सुमिरन नाहिं’—ऐसा लिखा है । सुमिरन नहीं होगा, यह बात तो ठीक है; क्योंकि ‘मनवा तो चहुँ दिसि फिरे’ मन संसारमें घूमता है तो सुमिरन कैसे होगा ? सुमिरन मनसे होता है; परन्तु ‘यह तो जप नाहिं’—ऐसा कहाँ लिखा है ? जप तो हो ही गया । जीभमात्रसे भी अगर हो गया तो नाम-जप तो हो ही गया ।
हमें एक सन्त मिले थे । वे कहते थे कि परमात्माके साथ आप किसी तरहसे ही अपना सम्बन्ध जोड़ लो । ज्ञानपूर्वक जोड़ लो, और मन-बुद्धिपूर्वक जोड़ लो तब तो कहना ही क्या है ? और नहीं तो जीभसे ही जोड़ लो । केवल ‘राम’ नामका उच्चारण करके भी सम्बन्ध जोड़ लो । फिर सब काम ठीक हो जायगा ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


नामका प्रभाव (01)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नामका प्रभाव (01)
आगे भगवान्‌ के नाम लेने वाले भक्तों को गिनाते हैं । उन लोगों ने कैसे नाम लिया, वह भी बताते हैं ।
“नाम प्रसाद संभु अबिनासी ।
साजु अमंगल मंगल रासी ॥“
………….(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । १)
नामके प्रसादसे ही शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेषवाले होनेपर भी मंगलकी राशि हैं । शंकर अविनाशी किससे हुए ? तो कहते हैं ‘नाम-प्रसाद’‒नामके प्रभावसे ।
एक बार नारदजीने पार्वती के शंका पैदा कर दी कि ‘भोले बाबा से पूछो तो सही कि ये रुण्डमाला जो पहने हुए हैं, यह माला क्या है ?’ पार्वतीने पूछा‒‘महाराज ! आपने यह माला पहन रखी है यह क्या है ?’ शंकर टालने लगे । ‘क्या करोगी पूछकर ?’ पर उसने कहा‒‘नहीं महाराज ! आप बताओ ।’ तो शंकर कहने लगे‒‘बात यह है कि तुम्हारे इतने जन्म हुए हैं । तुम्हारा एक-एक मस्तक लेकर इतनी माला बना ली हमने ।’ पार्वतीको आश्चर्य हुआ । वह बोली‒‘महाराज ! मेरे तो इतने जन्म हो गये और आप वही रहे, इसमें क्या कारण है ?’ उन्होंने बताया कि हम अमरकथा जानते हैं । ‘फिर तो अमरकथा हमें भी जरूर सुनाओ ।’ हठ कर लिया ज्यादा, तो एकान्त में जाकर कहा‒‘अच्छा तुम को सुनायेंगे, पर हरेक को नहीं सुनायेंगे ।’ भगवान् शंकर सुनाने लगे, भगवान्‌ का नाम और भगवान्‌ का चरित्र । अमरकथा यही है । भगवान् शंकर ने सब पक्षियों को उड़ाने के लिये तीन बार ताली बजायी । उस समय और दूसरे सभी पक्षी उड़ गये, पर एक सड़ा गला तोते का अण्डा पड़ा था, उसने इस कथा को सुन लिया । पार्वती ने हठ तो कर लिया; परंतु उसे नींद आ गयी ।
एक तो प्रेम से सुनने की स्वयं की उत्कण्ठा होती है और एक दूसरे की प्रेरणा से इच्छा की जाती है । पार्वती ने नारदजी की प्रेरणा से इच्छा की थी, इस कारण नींद आ गयी । जिसके स्वयं की लगन होती है, उसको नींद नहीं आती । पार्वती को नींद आ गयी, तोता सुनते-सुनते हाँ-हाँ कहने लगा । भगवान् शंकर मस्त होकर भगवान्‌ का चरित्र कहे जा रहे हैं और उसी में मस्त हो रहे हैं । आँख खोलकर जब देखा तो तोता बैठा है और सुन रहा है । ‘अरे ! इसने चोरी से नाम सुन लिया !’ वह वहाँ से उड़ा, शंकर भगवान् पीछे भागे । त्रिशूल हाथ में लिये हुए पीछे-पीछे गये । उस समय वेदव्यास जी की स्त्री सिर गुँथा रही थी । उसको भी नींद आ रही थी थोड़ी । उसका मुख खुला था । वह मुखके भीतर प्रवेश कर गया । वे ही शुकदेव हुए शुकदेव मुनि जो राजा परीक्षित्‌ को मुक्ति दिलाने वाले, भागवतसप्ताह सुनाने वाले हुए । वे शुकदेव जी माँ के पेट में ही नाम-जपमें लग गये । शुकदेव मुनि इस तरह से श्रेष्ठ हुए । पार्वती को अमरकथा सुनायी, जिससे पार्वती भी अमर हो गयी ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


नाम में अरुचिका कारण

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नाम में अरुचिका कारण
वाल्मीकिजी को अल्पप्राणवाला नाम भी क्यों नहीं आया ? कारण क्या था ? ध्यान दें ! ‘राम’ नाम उच्चारण करने में सुगम है; परन्तु जिसके पाप अधिक हैं, उस पुरुष द्वारा नाम-उच्चारण कठिन हो जाता है । एक कहावत है—
मजाल क्या है जीव की, जो राम-नाम लेवे ।
पाप देवे थाप की, जो मुण्डो फोर देवे ॥
जिनका अल्प पुण्य होता है, वे ‘राम’ नाम ले नहीं सकते । श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है—
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
.............(७ । २८)
जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, वे ही दृढ़व्रत होकर भगवान्‌के भजनमें लग सकते हैं ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


संसारकूप में पड़ा प्राणी

|| श्रीहरि :||
संसारकूप में पड़ा प्राणी
संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते |
करावालम्बं मम देहि विष्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ||
(जो मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त और विषयों की ज्वाला से संतप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कूप में मैं पड़ा हुआ हूँ | ‘हे मेरे मधुसूदन! हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!, मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये)
भव-कूप—यह एक पौराणिक रूपक है, और है सर्वथा परिपूर्ण | इस संसार के कूप में पडा प्राणी कूप-मण्डूक से भी अधिक अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त होरहा है | अहंता और ममता के घेरे में घिरा प्राणी—समस्त चराचर में परिव्याप्त एक ही आत्मतत्त्व है, इस परमसत्य की बात स्वप्न में भी नहीं सोच पाता |
कितना भयानक है यह संसार-कूप—यह सूखा कुआँ है | इस अंधकूप में जल का नाम नहीं है | इस दु:खमय संसार में जल-रस कहाँ है | जल तो रस है, जीवन है; किन्तु संसार में तो न सुख है, न जीवन है | यहाँ का सुख और जीवन—एक मिथ्या भ्रम है | सुख से सर्वथा रहित है, संसार और मृत्यु से ग्रस्त है—अनित्य है |
मनुष्य इस रसहीन सूखे कुँए में गिर रहा है | कालरूपी हाथी के भय से भागकर वह कुँए के मुखपर उगी लताओं को पकड़कर लटक गया है कुँए में | लेकिन कबतक लटका रहेगा वह ? उसके दुर्बल बाहु कबतक देह का भार सम्हाले रहेंगे | कुँएके ऊपर मदांध गज उसकी प्रतीक्षा कर रहा है –बाहर निकला और गज ने कुचल दिया पैरों से |
कुँए में ही गिर जाता--कूद जाता; किन्तु वहां तो महाविषधर फण उठाए फूत्कार कर रहा है | क्रुद्ध सर्प प्रस्तुत ही है की मनुष्य गिरे और उसके शरीर में पैंने दन्त तीक्ष्ण विष उँडेल दें | अभागा मनुष्य—वह देर तक लटका भी नहीं रह सकता | जिस लता को पकड़कर वह लटक रहा है, दो चूहे--काले और श्वेत रंग के दो चूहे उस लता को कुतरने में लगे हैं | वे उस लता को ही काट रहे हैं | लेकिन मूर्ख मानव को मुख फाड़े सिर पर और नीचे खादी मृत्यु दीखती ही कहाँ है | वह तो मग्न है | लता में लगे शहद के छत्ते से जो मधुबिंदु यदाकदा टपकपड़ते हैं, उन सीकरों को चाट लेने में ही वह अपने को कृतार्थ मान रहा है |
यह न रूपक है न कहानी है | यह तो जीवन है—संसार के रसहीन कूप में पड़े सभी प्राणी यही जीवन बिता रहे हैं | मृत्यु से चरों ओर से ग्रस्त यह जीवन—कालरूपी कराल हाथी कुचल देने की प्रतीक्षा में है इसे | मौतरूपे सर्प अपना फण फैलाए प्रस्तुत है | कहीं भी मनुष्य का मृत्यु से छुटकारा नहीं | जीवन के दिन—आयु की लता जो उसका सहारा है, कटती जारही है | दिन और रात्रिरूपी सफ़ेद तथा काले चूहे उसे कुतर रहे हैं | क्षण-क्षण आयु क्षीण हो रही है | इतने पर भी मनुष्य मोहान्ध हो रहा है | उसे मृत्यु दीखती नहीं | विषय-सुखरूपी मधुकण जो यदाकदा उसे प्राप्त होजाते हैं, उन्हीं में रम रहा है वह—उन्हीं को पाने की चिंता में व्यग्र है वह !
----------कल्याण, वर्ष ९०, अंक ११-नवम्बर,२०१६


“राम अनंत अनंत गुनानी”

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
“राम अनंत अनंत गुनानी”
माँ इतनी हितैषिणी होती है कि उसका स्तन काटनेपर भी बालकपर स्नेह रखती है, गुस्सा नहीं करती । वह तो फिर भी दूध पिलाती है । वह उसकी परवाह नहीं करती और अहित नहीं होने देती । इसी तरह भगवान्‌ने नारदजीके मनकी बात नहीं होने दी तो उन्होंने भगवान्‌को ही शाप दे दिया । छोटे बालक ही तो ठहरे ! काट गये । फिर भी माँ प्यार करती है और थप्पड़ भी देती है तो प्यारभरे हाथसे देती है । माँ गुस्सा नहीं करती है कि काटता क्यों है ! ऐसे ही पहले नारदजीने शाप तो दे दिया; परंतु फिर पश्चात्ताप करके बोले‒‘प्रभु ! मेरा शाप व्यर्थ हो जाय । मेरी गलती हुई, मुझे माफ कर दो ।’ भगवान्‌ने कहा‒‘मम इच्छा कह दीनदयाला’‒मेरी ऐसी ही इच्छा थी । भगवान् इस प्रकार कृपा करते हैं ।
पम्पा सरोवरपर भगवान्‌की वाणी सुनकर नारदजीको लगा कि भगवान् प्रसन्न हैं । अभी मौका है । तब बोले कि ‘मुझे एक वर दीजिये ।’ भगवान् बोले‒‘कहो भाई ! क्या वरदान चाहते हो?’ नारदजीने कहा‒
राम सकल नामन्ह ते अधिका ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥
………(मानस, अरण्यकाण्ड, ४२ । ८)
आपका जो नाम है, वह सब नामोंसे अधिक हो जाय और बधिक के समान पापरूपी पक्षियोंका नाश करनेवाला हो जाय । भगवान्‌के हजारों नाम हैं, उन नामोंकी गणना नहीं की जा सकती । ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ (मानस,बालकाण्ड १४० । ५) भगवान् अनन्त हैं, भगवान्‌की कथा अनन्त है तो भगवान्‌के नाम सान्त (सीमित) कैसे हो जायँगे ?
राम अनंत अनंत गुनानी ।
जन्म कर्म अनंत नामानी ॥
……………(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ५२ । ३)
विष्णुसहस्रनाममें आया है‒
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
भगवान्‌के गुण आदिको लेकर कई नाम आये हैं । उनका जप किया जाय तो भगवान्‌के गुण, प्रभाव, तत्त्व, लीला आदि याद आयेंगे । भगवान्‌के नामोंसे भगवान्‌के चरित्र याद आते हैं । भगवान्‌के चरित्र अनन्त हैं । उन चरित्रोंको लेकर नाम भी अनन्त होंगे । गुणोंको लेकर जो नाम हैं, वे भी अनन्त होंगे । अनन्त नामोंमें सबसे मुख्य ‘राम’ नाम है । वह खास भगवान्‌का ‘राम’ नाम हमें मिल गया तो समझना चाहिये कि बहुत बड़ा काम हो गया ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गुरुवार, 4 जनवरी 2018

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


कलौ भागवती वार्ता भवरोगविनाशिनी ॥

(इस कलियुगमें भागवत की कथा भवरोग की रामबाण औषध है)




बुधवार, 3 जनवरी 2018

सच्चा सुधारक गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 02)

*श्रीजानकीवल्लभो विजयते**
सच्चा सुधारक
गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 02)
( बाबा राघवदासजी )
दिनरात भजनमें संलग्न रहनेपर भी आप (तुलसीदास जी) कहते हैं-
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुञ्जहारी॥
कितना बड़ा आत्म-विश्लेषण है !
हम आजकल तनिकसा पूजा-पाठ करके अपनेको कृतार्थ समझ लेते हैं और उस कृतकृत्यकी आड़में मनमाने पाप करनेमें भी नहीं सकुचाते। इतना होनेपर भी लोगों के सामने बड़े भक्त, सदाचारी और निर्दोष बनने का दावा करते हैं। पर गोस्वामीजी महाराज जैसे परम पवित्र महापुरुष जीवनभर सच्ची भक्ति और मानसिक भजन में लगे रहने पर भी अपनी मानवीय दुर्बलताओं को अपने इष्टदेव श्रीराम के सामने कितनी स्पष्टता से प्रकट करते हैं। यही उनके सच्चे सुधारक होनेका ज्वलन्त प्रमाण है। आप बड़े ही आर्त्त भावसे कहते हैं-
कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते विपत्ति-जाल निसिदिन दुख तोहि पथ अनुसरिये॥
जानत हूं मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो विपरीत देखि परसुख बिनु कारन ही जरिये॥
स्रुति पुरान सबको मत यह सत्संग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह ईर्षावस तिनहिं न आदरिये॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जाते भवनिधि परिये।
कहो, अब नाथ! कौन बलतें संसार-सोक हरिये॥
जब कब निज करुना-सुभावतें द्रवहु तो निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं कत पचि पचि मरिये॥
अपने दोषोंके वर्णन के साथ ही करुणामय नाथ पर कितना भरोसा है। दूसरों को उपदेश देकर उनका सुधार करनेवाले और भगवान्‌ के आश्रय की उपेक्षा करने वाले आत्म-विस्मृत हम लोगों को गोस्वामीजी महाराज की इस विनय से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
गोस्वामी जी महाराज के इस आत्मसंशोधन के कार्य को उनके सद्‌ग्रन्थों द्वारा जानकर हमें अपनी दुर्बलताओं का अनुभव करके एकमात्र सर्वगुणाधार सर्वनियन्ता सर्वशक्तिमान भगवान्‌ की शरण ग्रहण करनेके लिये तैयार हो जाना चाहिये । भगवान्‌ की शरणसे समस्त पापों का नाश होकर सारा सुधार स्वयमेव हो जायगा ।
भगवान्‌की यह घोषणा याद रखनी चाहिये-
सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
जय सियाराम !
------००४. ०२. भाद्रपद कृष्ण ११ सं० १९८६वि०. कल्याण ( पृ० ५७१ )


गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

।। श्रीहरिः ।।

गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके स्वधर्म हैं (१८ । ४२) । इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हे । शौर्य, तेज आदि क्षत्रियके स्वधर्म हैं (१८।४३) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक पालन करना भी क्षत्रियका स्वधर्महै । खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके स्वधर्महैं (१८ । ४४) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका स्वधर्महै । सबकी सेवा करना शूद्रका स्वधर्महै (१८ । ४४) । इसके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त और भी कर्मोंको सांगोपागं करना शूद्रका स्वधर्महै ।

भगवान्‌ ने कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छो‍ड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो (१८ । ६६) । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने वर्ण-आश्रमक‌ी मर्यादामें रहनेके लिये, अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये (३ । १४१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये । आश्रय केवल भगवान्‌का ही लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं ।

भगवान्‌ने स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (२ । ४०) पदोंसे समताको, ‘धर्मस्यास्य’ (९ । ३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको और धर्म्यामृतम्’ (१२ । २०) पदसे सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको भी धर्मकहा है । इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप होनेसे समता सभी प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वतःसिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण भी सबके स्वधर्म हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तक से


गीतामें धर्म (पोस्ट ०१)

।। श्रीहरिः ।।

गीतामें धर्म (पोस्ट ०१)

वर्णे तु यस्मिन् मनुजः प्रजातस्तत्रत्यकार्यं कथितः स्वधर्मः ।
शास्त्रेण तस्मान्नियतं हि  कर्म कर्तव्यमित्यत्र विधानमस्ति ॥

गीतामें धर्मका वर्णन मुख्य है । अगर गीताके आरम्भ और अन्तके अक्षरोंका प्रत्याहार बनाया जाय अर्थात् आरम्भके धर्मक्षेत्रे’ (१ । १) पदसे धर्और अन्तके मतिर्मम’ (१८ । ७८) पदसे लिया जाय, तो धर्मप्रत्याहार बन जाता है । अतः पूरी गीता ही धर्मके अन्तर्गत आ जाती है ।

गीता ने कुलधर्माः सनातनाः’ (१ । ४०), ‘जातिधर्माः’ (१ । ४३) पदोंसे सदासे चलती आयी कुलकी मर्यादाओं, रीतियों, परम्पराओं और जातिकी रिवाजोंको भी धर्मकहा है; ‘धर्मसम्मूढचेताः’ (२ । ७), ‘स्वधर्मम्, धर्म्यात्’ (२ । ३१), ‘धर्म्यम्, स्वधर्मम्’ (२ । ३३), ‘स्वधर्मः’, (३ ।३५; १८ ।४७) आदि पदोंसे अपने-अपने वर्णके अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंको भी धर्मअथवा स्वधर्मकहा है; और त्रयीधर्मम्’ (९ । २१) पदसे वैदिक अनुष्ठानोंको भी धर्मकहा है । इन सभी धर्मोंको कर्तव्यमात्र समझकर निष्कामभावपूर्वक तत्परतासे किया जाय, तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है (१८ । ४५) ।

 जो मनुष्य जिस वर्णमें पैदा हुआ है उस वर्णके अनुसार शास्त्रने उसके लिये कर्तव्यरूपसे जो कर्म नियत कर दिया है, वह कर्म उसके लिये स्वधर्महै । परंतु शास्त्रने जिसके लिये जिस कर्मका निषेध कर दिया है, वह कर्म दूसरे वर्णवालेके लिये विहित होनेपर भी (जिसके लिये निषेध किया है) उसके लिये परधर्महै । अच्छी तरहसे अनुष्ठानमें लाये हुए परधर्मकी अपेक्षा गुण‌ोंकी कमीवाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है । अपने धर्मका पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय, तो भी अपना धर्म कल्याण करनेवाला है; परंतु परधर्मका आचरण करना भयको देनेवाला है (३ । ३५) ।
वर्ण-आश्रमके कर्मके अतिरिक्त मनुष्यको परिस्थितिरूपसे जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उस कर्तव्यका पालन करना भी मनुष्यका स्वधर्म है । जैसेकोई विद्यार्थी है तो तत्परतासे विद्या पढ़ना उसका स्वधर्म है; कोई शिक्षक है तो विद्यार्थीको पढ़ाना उसका स्वधर्म है; कोई नौकर है तो अपने कर्तव्यका पालन करना उसका स्वधर्म है आदि-आदि । जो स्वीकार किये हुए कर्म-(स्वधर्म-) का निष्कामभावसे पालन करता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (१८ । ४५) ।

    शेष आगामी पोस्ट में........


-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तक से


सोमवार, 1 जनवरी 2018

श्री हरि

: नारायण हरि :
“तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥“
भगवान्‌ तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥
…..श्रीमद्भागवत ३.१३.४९


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...