गुरुवार, 6 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०३)


||श्री परमात्मने नम :||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०३)
ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान्
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्ति देवता : |
आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-
र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेपि ||६||
( भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभकर्म करें अथवा देवताओं को भजें, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता, तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [अर्थात् सौ कल्पों में भी] मुक्ति नहीं हो सकती)
अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुति: |
ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यात: || ७||
(क्योंकि ‘धन से अमृतत्व की आशा नहीं है’ यह श्रुति ‘मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है’, यह बात स्पष्ट बतलाती है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)



||श्री परमात्मने नम :||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् |
य: स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी:
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् || ||

(किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति के सिद्धात का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है)

इत: को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ||||

(दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा ?)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे



||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)



||श्री परमात्मने नम :||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् |
य: स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी:
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् || ||

(किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति के सिद्धात का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है)

इत: को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ||||

(दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा ?)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे



बुधवार, 5 सितंबर 2018

जय सियाराम



"सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥


( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए )



||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०१)

 
||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०१)

मंगलाचरण

सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं तमगोचरम् |
गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ||१||

( जो अज्ञेय होकर भी सम्पूर्ण वेदान्त के सिद्धांत-वाक्यों से जाने जाते हैं, उन परमानन्दस्वरूप सद्गुरुदेव श्री गोविन्द को मैं प्रणाम करता हूँ )

ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व

जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमत: पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् |
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-
र्मुक्तिर्नो शत्कोटिजन्मसु कृतै: पुन्यैर्विना लभ्यते || २||

( जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उस से भी ब्राह्मणत्व मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्म का अनुगामी होना और उस से भी विद्वत्ता का होना कठिन है | [ यह सब कुछ होने पर भी] आत्मा और अनात्मा का विवेक, सम्यक् अनुभव , ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति- ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाक के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते )

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रय : ||३||

(भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान पुरुषों का संग- ये तीनों ही दुर्लभ हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


मंगलवार, 4 सितंबर 2018

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०४) विवेक चूडामणि का संक्षिप्त परिचय

||श्री हरि ||

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०४)

विवेक चूडामणि का संक्षिप्त परिचय

श्रीमद् आदिशंकराचार्य द्वारा रचित यद्यपि छोटे बड़े सैकड़ों ग्रन्थ हैं , पर विवेक-चूडामणि साधना और संक्षिप्त में सम्यक् ज्ञानोपलाब्धि की दृष्टि से सर्वोत्तम है | इसके अनुसार मनुष्य-जन्म पाकर संसार को विलोप करते हुए सर्वत्र शुद्ध भगवद्दृष्टि प्राप्त कर सर्वथा जीवन-मुक्त होकर कैवल्य-प्राप्ति ही सर्वोत्तम सिद्धि है | इसी बात को उन्होंने गीताभाष्य,ब्रह्मसूत्रभाष्य आदि में विस्तार से प्रतिपादित किया है | पर आचार्य कहते हैं कि यह अवस्था अनंत जन्मों के पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होती –

“ मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतै: पुन्यैर्विना लभ्यते ||”...(वि०च०म०२)

यही बात गीता में भगवान् कृष्ण भी कहते हैं –
“अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ||”....(गीता६.४५)

साधना की दृष्टि से भगवत्कृपा के द्वारा मोक्ष की इच्छा और तदर्थ प्रयत्न और सतसंग की प्राप्ति ये तीन दुर्लभ वस्तुएँ हैं | इनसे विवेक की प्राप्ति होकर जीवन्मुक्ति की उपलब्धि होती है | आचार्य का वचन है—

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रय :||…..(वि.चू.म.३)

गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाओं पर इनका स्पष्ट प्रभाव दीखता है --

बिनु सत्संग बिबेक न होई | राम कृपा बिनु सुलभ न होई ||
बिनु सत्संग भगति नहिं होई | ते तब मिलहिं द्रवै जब सोई ||
सत्संगति मुद मंगलमूला | सोइ फल सिधि सब साधन फूला ||
बड़े भाग मानुष तन पावा | सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गावा ||
बड़े भाग पाइय सत्संगा | बिनहिं प्रयास होइ भव भंगा ||

लगता तो यहाँ तक है कि—“वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्”—इत्यादि में निदर्शनालंकार से गोस्वामी जी ने शंकरावतार शंकराचार्य जी की ही वन्दना की है और उनके समग्र साहित्य पर आचार्य का महान प्रभाव है और इन्हीं कारणों से भाषा हिन्दी होने, भाव गंभीर होने के कारण मानस का विश्व में सर्वाधिक प्रचार हो गया |
विवेक-चूडामणि में नित्य-समाधि के लिए वैराग्य को ही सर्वोत्कृष्ट साधन माना गया है | आचार्य कहते हैं ---“अत्यन्तवैराग्यवत: समाधि:” अर्थात् अत्यंत विरक्त को तत्काल समाधि सिद्ध होती है | गीता में भी यही भाव व्यक्त हुआ है –

“तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ||”...(गीता २.५२-५३)

“विवेक चूडामणि” की सारी उपयोगिताओं को हृदयंगम करने के लिए ग्रन्थ का पर्यावलोकन आवश्यक है | उसे शनैः शनैः आप रसपूर्वक मनन करते हुए पूरा लाभ उठाएं | यही निवेदन है |

नारायण ! नारायण !!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


सोमवार, 3 सितंबर 2018

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०३)


||श्री हरि ||

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि
(पोस्ट.०३)

काशी में रहते समय शंकराचार्य ने वहाँ रहने वाले प्राय: सभी विरुद्ध मत वालों को परास्त कर दिया | वहाँ से कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम गए | वहाँ कुछ दिन रहकर उन्हों ने कुछ और ग्रन्थ लिखे | जो ग्रन्थ उनके मिलते हैं, प्राय: सबको उन्होंने काशी अथवा बदरिकाश्रम में लिखा | 12 वर्ष से 16 वर्ष तक की अवस्था में उन्होंने सारे ग्रन्थ लिख डाले | बदरिकाश्रम से चलकर शंकर प्रयाग आये और यहाँ कुमारिलभट्ट से उनकी भेंट हुई | कुमारिलभट्ट के कथनानुसार वे प्रयाग से माहिष्मती (महेश्वर) नगरी में मंडनमिश्र के पास शास्त्रार्थ के लिए आये | यहाँ मंडनमिश्र के घर का दरवाजा बन्द होने के कारण योगबल से वे आँगन में चले गए, जहां मंडनमिश्र श्राद्ध कर रहे थे , शास्त्रार्थ करने के लिए कहा | उस शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बनायी गयीं मंडनमिश्र की विदुषी पत्नी भारती | अंत में मंडनमिश्र की पराजय हुई और उन्होंने शंकाराचार्य की शिष्यत्व ग्रहण किया और ये ही आगे चलकर सुरेश्वराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए | कहते हैं, भारती ने पति के हार जाने पर स्वयं शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया और कामशास्त्र-सम्बन्धी प्रश्न पूछे, जिसके लिए शंकराचार्य को योगबल से मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश कर कामशास्त्र की शिक्षा ग्रहण करनी पडी | पति के सन्यासी होजाने पर भारती ब्रह्मलोक को जाने को उद्यत हुई, परन्तु शंकराचार्य उन्हें समझा-बुझाकर श्रृंगगिरि लिवा लाये और वहाँ रहकर अध्यापन का कार्य करने की प्रार्थना की | कहते हैं, भारती द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के कारण श्रृंगेरी और द्वारका के शारदा मठों का शिष्य-सम्प्रदाय “भारती” के नाम से प्रसिद्ध हुआ |

मध्यभारत पर विजय प्राप्त कर शंकराचार्य दक्षिण की ओर चले और महाराष्ट्र में शैवों और कापालिकों को परास्त किया | एक धूर्त कापालिक तो उन्हींकी बलि चढाने के लिए छल से उनका शिष्य हो गया | परन्तु जब वह बलि चढाने कि लिए तैयार हुआ तो पद्मपादाचार्य ने उसे मार डाला | उस समय भी शंकराचार्य की साधना का अपूर्व प्रभाव देखा गया | कापालिक की तलवार की धार के नीचे वे समाधिस्थ और शांत बैठे रहे | वहाँ से चलकर दक्षिण में तुंगभद्रा के तट पर उन्होंने एक मन्दिर बनवाकर उसमें शारदादेवी की स्थापना की, यहाँ जो मठ स्थापित हुआ उसे श्रृंगेरी मठ कहते हैं | सुरेश्वराचार्य इसी मठ में आचार्य पद पर नियुक्त हुए | इन्हीं दिनों शंकराचार्य अपनी वृद्धा माता की मृत्यु समीप जानकर घर आये और माता की अन्त्येष्टी क्रिया की | कहते हैं कि माता की इच्छा के अनुसार इन्होंने प्रार्थना करके उन्हें विष्णुलोक में भिजवाया | वहाँ से ये श्रृंगेरीमठ आये और वहाँ से पुरी आकर इन्होने गोवर्धन मठ की स्थापना की और पद्मपादाचार्य को उसका अधिपति नियुक्त किया | इन्होंने चोल और पांड्य देश के राजाओं की सहायता से दक्षिण के शाक्त, गाणपत्य और कापालिक – सम्प्रदाय के अनाचार को दूर किया | इस प्रकार दक्षिण में सर्वत्र धर्म की पताका फहराकर और वेदान्त की महिमा घोषित कर ये पुन: उत्तर भारत के ओर मुड़े | रास्ते में कुछ दिन बरार में ठहर कर उज्जैन आये और वहाँ इन्होंने भैरवों की भीषण साधना को बन्द किया | वहाँ से ये गुजरात आये और द्वारका में एक मठ स्थापितकर अपने शिष्य हस्तामलकाचार्य को आचार्य पद पर नियुक्त किया | फिर गांगेय प्रदेश के पण्डितों को पराजित करते हुए कश्मीर के शारदाक्षेत्र पहुंचे तथा वहाँ के पण्डितों को परास्त कर अपना मत प्रतिष्ठित किया | फिर यहाँ से आचार्य आसाम के कामरूप आये और वहाँ के शैवों से शास्त्रार्थ किया यहाँ से फिर बदरिकाश्रम वापस आये और वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना कर तोटकाचार्य को मठाधीश बनाया | वहाँ से ये केदारक्षेत्र आये और यहीं से कुछ दिनों बाद सीधे देवलोक चले चले गए |

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी


रविवार, 2 सितंबर 2018

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)

||श्री हरि ||
भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि
(पोस्ट.०२)
विद्याध्ययन समाप्त करके शंकर ने संन्यास लेना चाहा, परन्तु जब उन्होंने माता से आज्ञा माँगी तो उन्होंने नाहीं करदी | शंकर माता के बड़े भक्त थे, माता को कष्ट देकर संन्यास नहीं लेना चाहते थे | एक दिन माता के साथ नदी में स्नान करने गए | वहाँ शंकर को मगर ने पकड़ लिया | इस प्रकार पुत्र को संकट में देख माता के होश उड़ गए | वह बेचैन होकर हाहाकार मचाने लगी | शंकर ने माता से कहा –“मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दी दो तो मगर मुझे छोड़ देगा” | माता ने तुरंत आज्ञा दे दी और मगर ने शंकर को छोड़ दिया | इस तरह माता की आज्ञा प्राप्त कर वे घर से निकल पड़े | जाते समय माता की इच्छानुसार यह वचन देते गए कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा |
घर से चल कर शंकर नर्मदा तट पर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा ली | गुरु ने उनका नाम ‘भगवत्पूज्यपादाचार्य’ रखा | उन्होंने गुरूपदिष्ट मार्ग से साधना प्रारम्भ कर दी और अल्पकाल में बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गए | उनकी सिद्धि से प्रसन्न होकर गुरु ने काशी जाकर वेदान्त-सूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी और वे काशी आगये | काशी आनेपर उनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकृष्ट होकर उनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे | उनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए जो पीछे ‘पद्मपादाचार्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुए | काशी में शिष्यों को पढाने के साथ-साथ वे ग्रन्थ भी लिखते जाते थे | कहते हैं एक दिन भगवान विश्वनाथ ने उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्मप्रचार करने का आदेश दिया | वेदान्तसूत्र पर जब वे भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगातट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा | उस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका 27 दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा | पीछे उन्हें मालूम हुआ कि स्वयं भगवान वेदव्यास ब्राह्मण के वेश में प्रकट होकर उनके साथ विवाद कर रहे हैं | तब उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और क्षमा माँगी | फिर वेदव्यास ने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और उनकी 16 वर्ष की आयु को 32 वर्ष बढ़ा दिया | इस घटना के बाद शंकराचार्य दिग्विजय के लिए निकल पड़े |
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


शनिवार, 1 सितंबर 2018

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०१)



||श्री हरि ||
भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि 
(पोस्ट.०१)

संसार के दार्शनिकों में भगवान् शंकराचार्य का नाम सर्वाग्रणी है | अब तक उनके जीवन-चरित संबंधी छोटी बड़ी हजारों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें कई तो दिग्विजय संबंधी हैं |

भगवान् शंकर के दिग्विजय तथा गुरुवंशकाव्यम् एवं गुरुपरम्परा चरित्रम् आदि जो ग्रन्थ मिलते हैं तथा अन्यत्र उनके जीवनचरित-संबंधी जो सामग्रियां प्राप्त होती हैं , उनसे ज्ञात होता है कि वे सर्वथा अलौकिक,दिव्य-प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे | उनके अंदर प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, प्रचंड कर्मशीलता अगाध भगवद्भक्ति, उत्कृष्ट वैराग्य, अद्भुत योगैश्वर्य आदि अनेक गुणों का दुर्लभ सामंजस्य उपलब्ध होता है | उनकी वाणी पर तो मानो साक्षात् सरस्वती ही विराजती थीं | यही कारण है कि अपनी 32 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने अनेक बड़े बड़े ग्रन्थ रच डाले | सारे भारत में भ्रमण करके विरोधियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया, भारत के चारों कोनों में चार प्रधान मठ स्थापित किये और समस्त देश में सनातन वैदिक-धर्म की ध्वजा फहरा दी | थोड़े में यह कहा जा सकता है कि शंकाराचार्य ने अवतरित होकर डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की और उसीके फलस्वरूप आज हम सनातनधर्म को जीता-जागता देखते हैं | उनके इस धर्म-संस्थापन की कार्य को देखकर यह विश्वास और भी दृढ हो जाता है कि वे साक्षात् कैलासपति भगवान् शंकर के ही अवतार थे -–“शंकर: शंकर:” साक्षात्—और इसी से सब लोग “भगवान्” शब्द के साथ उनका स्मरण करते हैं |

आचार्य शंकर का प्राकट्य केरल-प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक गाँव में वैशाख शुक्ल 5,को हुआ था | उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का सुभद्रा था | शिवगुरु बड़े विद्वान् और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे | सुभद्रा भी पति के अनुरूप ही विदुषी और धर्मपरायणा पत्नी थीं | परन्तु प्राय: प्रौढावस्था समाप्त होने पर भी जब उन्हें कोई सन्तान न हुई तब पति-पत्नी ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान् शंकर की पुत्र-प्राप्ति के लिए कठिन ताप:पूर्ण उपासना की | भगवान् आशुतोष ब्राह्मणदम्पति की उपासना से प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उन्होंने उन्हें मनोवांछित वरदान दिया | भगवान् शंकर के आशीर्वाद से शुभ-मुहूर्त में माँ सुभद्रा के गर्भ से एक दिव्य कान्तिमान् पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ और उसका नाम आशुतोष शंकर के नाम पर ही शंकर रख दिया गया |

बालक शंकर के रूप में कोई महान् विभूति अवतरित हुई है, इसका प्रमाण शंकर के बचपन से ही मिलने लगा | एक वर्ष की अवस्था होते-होते बालक शंकर अपनी मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगे और दो वर्ष की अवस्था में माता से पुराणादि की कथाएं सुनकर कण्ठस्थ करने लगे | उनके पिता तीन वर्ष की अवस्था में उनका चूडाकर्म करके दिवंगत हो गए | पांचवें वर्ष में यज्ञोपवीत कर उन्हें गुरु के घर पढ़ने भेजा गया और केवल आठ वर्ष की अवस्था में वे वेद-वेदान्त और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके घर वापस आगये | उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन दंग रह गए |

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीभगवान्‌ कहते हैं---जिस प्रकार वायुके द्वारा उडक़र जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्प से घ्राणेन्द्रियतक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारों से शून्य चित्त परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ॥ मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतोंमें स्थित हूँ; ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें ही हवन करता है ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष जो दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥

“यथा वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥“

...............(श्रीमद्भाग०महापुराण ३|२८|२०-२३)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...