मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

सूक्ष्म शरीर 

धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-
र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥

(बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस(बुद्धि)- के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अत: उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता)

सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः ।
वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥

(यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है,जिस प्रकार बढ़ई का बसोला होता है | इसीलिए यह आत्मा असंग है)

अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः
सैगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥

(नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन,धुँधला अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन,गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

सूक्ष्म शरीर

वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च
प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी
पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥

(वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ,श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत, बुद्धि आदि अंत:करण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है)

इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं
लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं
स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात्मनः ॥ ९९ ॥

(यह सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासनायुक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है | और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है)

स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था
स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र ।
स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-
कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते
यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १०० ॥

(स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है , जहां यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है | स्वप्न में जहां यह स्वयंप्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [भिन्न भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्- कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)

दस इन्द्रियाँ 

बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि 
घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः 
कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥

(श्रवण, त्वचा, नेत्र,घ्राण और जिह्वा–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ-ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है )


अंत:करण चतुष्टय:

निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-
र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः 
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

(अपनी वृत्तियों के कारण अंत:करण मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार [इन चार नामों से] कहा जाता है | संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, ‘अहम्-अहम्’ (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट चिंतन के कारण यह चित्त कहलाता है) 

पञ्चप्राण 

प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः ।
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥

(अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेद से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान – इन पांच नामों वाला होता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

स्थूल शरीर 

त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम् ।
पूर्णं मूत्रपुरीषाभ्यां स्थूलं निन्द्यमिदं वपुः ॥ ८९ ॥

(त्वचा,मांस,रक्त,स्नायु (नस),मेद मज्जा और अस्थियों का समूह तथा मल-मूत्र से भरा हुआ यह स्थूल देह अति निंदनीय है)

पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलेभ्यः पूर्वकर्मणा ।
समुत्पन्नमिदं स्थूलं भोगायतनमात्मनः ।
अवस्था जागरस्तस्य स्थूलार्थानुभवो यतः ॥ ९० ॥

(पंचीकृत स्थूल भूतों से पूर्व-कर्मानुसार उत्पन्न हुआ यह शरीर आत्मा का स्थोल भोगायतन है; इसकी [प्रतीति की] अवस्था जाग्रत् है, जिसमें कि स्थूल पदार्थों का अनुभव होता है )

बाह्येन्द्रियैः स्थूलपदार्थसेवां
स्रक्चन्दनस्त्र्यादिविचित्ररूपाम् ।
करोति जीवः स्वयमेतदात्मना
तस्मात्प्रशस्तिर्वपुषोऽस्य जागरे ॥ ९१ ॥

(इससे तादात्म्य को प्राप्त होकर ही जीव माला , चन्दन तथा स्त्री अदि नाना प्रकार के स्थूल पदार्थों को बाह्येंद्रियों से सेवन कर्ता है, इसलिए जाग्रत-अवस्था में इस स्थूल देह की प्रधानता है)

सर्वोऽपि बाह्यसंसारः पुरुषस्य यदाश्रयः ।
विद्धि देहमिदं स्थूलं गृहवद्गृहमेधिनः ॥ ९२ ॥

(जिसके आश्रय से जीव को सम्पूर्ण बाह्य जगत् प्रतीत होता है, गृहस्थ के घर के तुल्य उसे ही स्थूल देह जानो)

स्थूलस्य सम्भवजरामरणानि धर्माः
स्थौल्यादयो बहुविधाः शिशुताद्यवस्था ।
वर्णाश्रमादिनियमा बहुधा यमाः स्युः
पूजावमानबहुमानमुखा विशेषाः ॥ ९३ ॥

(स्थूल देह के ही जन्म, जरा, मरण, तथा स्थूलता आदि धर्म हैं; बालकपन आदि नाना प्रकार की अवस्थाएं हैं; वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नियम और यम हैं; तथा इसी की पूजा, मान अपमान आदि विशेषताएं हैं)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


रविवार, 30 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२६)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२६)
देहासक्ति की निंदा
अनुक्षणं यत्परित्य कृत्य-
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥
(जो अनादि अविद्याकृत बन्धन को छुडानारूप अपना कर्त्तव्य त्यागकर प्रतिक्षण इस परार्थ [अन्य के भोग्य रूप] देह के पोषण में ही लगा रहता है, वह [अपनी इस प्रवृत्ति से] स्वयं अपना घात करता है)
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
(जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ट-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है)
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु ।
मोहो विनिर्जतो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥ ८७ ॥
(शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्षु की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है)
मोहं जहि महामृत्युं देहदारसुतादिषु ।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८८ ॥
(देह,स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परम पद को प्राप्त होते हैं)
नारायण ! नारायण !!
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बुधवार, 26 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२५)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२५)

विषय निंदा

आपातवैराग्यवतो मुमुक्षून्
भवाब्धिपारं प्रतियातुमुद्यतान् ।
आशाग्रहो मज्जयतेऽन्तराले
विगृह्य कण्ठे विनिवर्त्य वेगात् ॥ ८१ ॥

(संसार-सागर को पार करने के लिए उद्यत हुए क्षणिक वैराग्य वाले मुमुक्षुओं को आशारूपी ग्राह अतिवेग से बीच ही में रोककर गला पकड़कर डुबो देता है)

विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्तसिना हतः ।
सः गच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः ॥ ८२ ॥

(जिसने वैराग्यरूपी खड्ग से विषयैषणारूपी ग्राह को मार दिया है, वही निर्विघ्न संसार-समुद्र के उस पार जा सकता है)

विषमविषयमार्गैर्गच्छतोऽनच्छबुद्धेः
प्रतिपदमभियातो मृत्युरप्येष विद्धि ।
हितसुजनगुरूक्त्या गच्छतः स्वस्य युक्त्या
प्रभवति फलसिद्धिः सत्यमित्येव विद्धि ॥ ८३ ॥

(विषयरूपी विषममार्ग में चलनेवाले मलिनबुद्धि को पद-पद पर मृत्यु आती है—ऐसा जानो | और यह भी बिलकुल ठीक समझो कि हितैषी,सज्जन अथवा गुरु के कथनानुसार अपनी युक्ति से चलने वाले को फल-सिद्धि हो ही जाती है)

मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति
त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा ।
पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-
प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥

(यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष के समान दूर ही से त्याग दे | और संतोष,दया,सरलता,शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर )

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२४)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२४)

विषय निंदा

शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पंच
पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः ।
कुरङ्गमातङ्गपतङ्गमीन-
भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥ ७८ ॥

(अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि मंच विषयों में से केवल एक-एक से बंधे हुए हरिण, हाथी,पतंग,मछली और भौंरे मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकडा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है ?)

दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि ।
विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥ ७९ ॥

(दोष में- विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते)

विषयाशामहापाशाद्यो विमुक्त: सुदुस्त्यजात् |
स एव कल्पते मुक्त्यै नान्य:षट्शास्त्रवेद्यपि ||८०||

(जो विषयों की आशारूप कठिन बन्धन से छुटा हुआ है,वही मोक्ष का भागी होता है और कोई नहीं; चाहे वह छहों दर्शनों का ज्ञाता क्यों न हो)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)


||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)

स्थूल शरीर का वर्णन 

मज्जास्थिमेदःपलरक्तचर्म-
त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम् ।
पादोरुक्षोभुजपृष्ठमस्तकै
रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत् ॥ ७४ ॥
अहंममेति प्रथितं शरीरं
मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।

( मज्जा,अस्थि,मेद,मांस,रक्त चर्म और त्वचा- इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्ष:स्थल (छाती) भुजा, पीठ और मस्तक आदि अङ्गोपाङ्गों से युक्त “ मैं और मेरा “ रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रयरूप देह को विद्वान लोग स्थूल शरीर कहते हैं )

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः
सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा
स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति
शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥

(आकाश,वायु, तेज,जल और पृथिवी—ये सूक्ष्म भूत हैं | इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूलशरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएं भोक्ता जीव के भोगरूप सुख के लिए शब्दादि पांच विषय हो जाती हैं)

य एषु मूढा विषयेषु बद्धा 
रोगारुपाशेन सुदुर्दमेन ।
आयान्ति निर्यान्तध ऊर्ध्वमुच्चैः स्व-
कर्मदूतेन जवेन नीताः ॥ ७७ ॥

( जो मूढ़ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बंध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते जाते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
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 —


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)
प्रश्न विचार
यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नौ वरीयाञ्छास्त्रविन्मतः ।
सूत्रप्रायो निगूढार्थो ज्ञातव्यश्च मुमुक्षुभिः ॥ ६९ ॥
([गुरु कहते हैं कि] तूने आज जो प्रश्न किया है, शास्त्रज्ञ जन उसको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं | वह परे: सूत्ररूप (संक्षिप्त) है, तो भी गंभीर अर्थयुक्त और मुमुक्षुओं के जानने योग्य है)
श्रृणुष्वावहितो विद्वन्यन्मया समुदीर्यते ।
तदेतच्छ्वणात्सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे ॥ ७० ॥
(हे विद्वन् ! जो मैं कहता हूँ,सावधान होकर सुन ;उसको सुनाने से तू शीघ्र ही भवबन्धन से छूट जाएगा)
मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते
वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु ।
ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा
न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-
ध्यानं चिरं चित्यनिरन्तरं मुनेः ।
ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-
निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ॥ ७२ ॥
(मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनंतर शम, दम,तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है | तदुपरांत मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य निरन्तर आत्म-तत्त्व का अध्यान करना चाहिए | तब वह विद्वान परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर निर्वाण सुख को पाता है)
यद्वोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम् ।
तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय ॥ ७३ ॥
(जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिए वह मैं समझाता हूँ, उसे तू भलीभाँति सुनकर अपने चित्त में स्थिर कर)
नारायण ! नारायण !!
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)
अपरोक्षानुभव की आवश्यकता
न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दत: |
विनापरोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते ||६४||
(औषध को बिना पिए केवल औषध – शब्द के उच्चारणमात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव बिना, केवल ”ब्रह्म, ब्रह्म” कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता)
अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मन: |
बाह्यशब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम् ||६५||
(बिना दृश्य-प्रपञ्च किये और आत्मतत्त्व को जाने,केवल बाह्य शब्दों से,जिनका फल केवल उच्चारणमात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है)
अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम् |
राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवतुमर्हति ||६६||
( बिना शत्रुओं का वध किये और बिना सम्पूर्ण पृथिवीमण्डल का ऐश्वर्य प्राप्त किये, “मैं राजा हूँ”-ऐसा कहने से ही कोई राजा नहीं हो जाता)
आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिलाद्युत्कर्षणं स्वीकृतिं
निक्षेप: समपेक्षते न हि बही: शब्दैस्तु निर्गच्छति |
तद्वद् ब्रह्मविदोपदेशमननध्यानादिभिर्लभ्यते
मायाकार्यतिरोहितं स्वममलं तत्त्वं न् दुर्युक्तिभि : ||६७||
( पृथ्वी में गडे हुए धन को प्राप्त करने के किये जैसे प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की और फिर पृथ्वी को खोदने, कंकड-पत्थर आदि को हटाने तथा प्राप्त हुए धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है- कोरी बातों से वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपंच से शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मविद् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन और निदिध्यासनादि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं)
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये |
स्वैरेव यत्न: कर्तव्यो रोगादाविव पण्डितै : ||६८||
( इस लिए रोग आदि के समान भव-बन्ध की निवृत्ति के लिए विद्वान् को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिए)
नारायण ! नारायण !!
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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...