मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

तमोगुण

अभावना वा विपरीतभावना-
सम्भावना विप्रतिपत्तिरस्याः ।
संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं
विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्रम् ॥ ११७ ॥

(तमोगुण की इस आवरण-शक्ति के संसर्ग से युक्त पुरुष को अभावना, विपरीतभावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति – ये तमोगुण की शक्तियां नहीं छोडतीं और विक्षेप-शक्ति भी उसे निरन्तर डावाँडोल ही रखती है) #

अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा
प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः ।
एतैः प्रयुक्तो न हि वेति किञ्चि-
न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति ॥ ११८ ॥

(अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण हैं | इनसे युक्त हुआ पुरुष कुछ नहीं समझता; वह निद्रालु या स्तम्भ के समान [जडवत्] रहता है)
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#‘ ब्रह्म नहीं है’-जिससे ऐसा ज्ञान हो वह ‘अभावना’ कहलाती है | ‘मैं शरीर हूँ’-यह ‘विपरीत भावना’ है | किसी के होने में संदेह – ‘असम्भावना’ है और ‘है या नहीं’-इस तरह के संशय को ‘विप्रतिपत्ति’ कहते हैं | ‘प्रपञ्च का व्यवहार’ ही माया के ‘विक्षेप-शक्ति’ है |

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)

तमोगुण

एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य
शक्तिर्यया वस्त्वभासतेऽन्यथा ।
सैषा निदानं पुरुष्य संसृते-
र्विक्षेपशक्तेः प्रसरस्य हेतुः ॥ ११५ ॥

(जिसके कारण वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होने लगती है वह तमोगुण की आवरणशक्ति है | यही पुरुष के (जन्म-मरण-रूप) संसार का आदि-कारण है और यही विक्षेपशक्ति के प्रसार का भी हेतु है)

प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्सन्तसूक्ष्मार्थदृक्
व्यालीढस्तमसा न वेत्ति बहुधा सम्बोधितोऽपि स्फुटम् ।
भ्रान्त्यारोपितमेव साधु कलयत्यालम्बते तद्गुणान्
हन्तासौ प्रबला दुरन्ततमसः शक्तिर्महत्यावृतिः ॥ ११६॥

(तम से ग्रस्त हुआ पुरुष अति बुद्धिमान्, विद्वान, चतुर और शास्त्र के अत्यन्त सूक्ष्म अर्थों को देखने वाला भी हो तो भी वह नाना प्रकार समझाने से भी अच्छी तरह नहीं समझता; वह भ्रम से आरोपित किये हुए पदार्थों को ही सत्य समझता है और उन्हीं के गुणों का आश्रय लेता है | अहो ! दुरन्त तमोगुण की यह महती आवरण-शक्ति बड़ी ही प्रबल है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

रजोगुण

विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।
रागदयोऽस्याः प्रभवन्ति नित्यं
दुःखादयो ये मनसोविकाराः ॥ ११३ ॥

(क्रियारूपा विक्षेपशक्ति रजोगुण की है जिससे सनातनकाल से समस्त क्रियाएँ होती आई हैं और जिससे रागादि और दु:खादि, जो मन के विकार हैं, सदा उत्पन्न होते हैं)

कामः क्रोधो लोभदम्भाद्यसूया-
हङ्कारेर्ष्यामत्सराद्यास्तु घोराः ।
धर्मा एते राजसाः पुम्प्रवृत्ति-
र्यस्मादेषा तद्रजो बन्धहेतुः ॥ ११४ ॥

(काम, क्रोध, लोभ, दंभ, असूया [गुणों में दोष ढूँढना], अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर –ये घोर धर्म रजोगुण के ही हैं | अत: जिसके कारण जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है , वह रजोगुण ही उसके बन्धन का हेतु है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

माया निरूपण

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-
रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।
कार्यानुमेया सुधियैव माया
यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११० ॥

(जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की पराशक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है | बुद्धिमान जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं)

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

(वह न सत् है न असत् है और न [सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है न अभिन्न है और न [भिन्नाभिन्न] उभयरूप है, न अंगसहित है न अंगरहित है और न [साङ्गानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीयरूपा [जो कही न जा सके ऐसी] है)

शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्य
सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा ।
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रसिद्धा
गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ॥ ११२ ॥

(रज्जु के ज्ञान से सर्प-भ्रम समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से नष्ट होने वाली है | अपने अपने प्रसिद्ध कार्यों के कारण सत्त्व, रज और तम—ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

प्रेम की आत्मार्थता 

आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान् विषयो न स्वतः प्रियः ।
स्वत एव हि सर्वेषामात्मा प्रियतमो यतः ॥ १०८ ॥

(विषय स्वत: प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्मा के लिए ही प्रिय होते हैं, क्योंकि स्वत: प्रियतम तो सबका आत्मा ही है)

तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन ।
यत्सुषुप्तौ निर्विषय आत्मानन्दोऽनुभूयते ।
श्रुतिः प्रयक्षमैतिह्यमनुमानं च जाग्रति ॥ १०९ ॥

(इसलिए आत्मा सदा आनंदस्वरूप है, इसमें दु:ख कभी नहीं है | तभी सुषुप्ति में विषयों का भाव रहते हुए भी आत्मानंद का अनुभव होता है | इसमें विषय, श्रुति, प्रत्यक्षा, ऐतिह्य (इतिहास) और अनुमान- प्रमाण जागृत [मौजूद] हैं)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

प्राण के धर्म

उच्छ्‌वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः ।
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥

(श्वास,प्रश्वास, जम्हाई,छींक,काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं)

अहंकार

अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि ।
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥

(शरीर के अंदर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रिय के गोलकों) –में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंत:करण “मैं-पन” का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है)

अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥

(इसीको अहंकार जानना चाहिए | यही करता,भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है)

विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥

(विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है | सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

सूक्ष्म शरीर 

धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-
र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥

(बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस(बुद्धि)- के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अत: उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता)

सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः ।
वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥

(यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है,जिस प्रकार बढ़ई का बसोला होता है | इसीलिए यह आत्मा असंग है)

अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः
सैगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥

(नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन,धुँधला अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन,गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

सूक्ष्म शरीर

वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च
प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी
पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥

(वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ,श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत, बुद्धि आदि अंत:करण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है)

इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं
लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं
स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात्मनः ॥ ९९ ॥

(यह सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासनायुक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है | और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है)

स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था
स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र ।
स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-
कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते
यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १०० ॥

(स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है , जहां यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है | स्वप्न में जहां यह स्वयंप्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [भिन्न भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्- कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)

दस इन्द्रियाँ 

बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि 
घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः 
कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥

(श्रवण, त्वचा, नेत्र,घ्राण और जिह्वा–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ-ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है )


अंत:करण चतुष्टय:

निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-
र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः 
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

(अपनी वृत्तियों के कारण अंत:करण मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार [इन चार नामों से] कहा जाता है | संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, ‘अहम्-अहम्’ (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट चिंतन के कारण यह चित्त कहलाता है) 

पञ्चप्राण 

प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः ।
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥

(अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेद से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान – इन पांच नामों वाला होता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

स्थूल शरीर 

त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम् ।
पूर्णं मूत्रपुरीषाभ्यां स्थूलं निन्द्यमिदं वपुः ॥ ८९ ॥

(त्वचा,मांस,रक्त,स्नायु (नस),मेद मज्जा और अस्थियों का समूह तथा मल-मूत्र से भरा हुआ यह स्थूल देह अति निंदनीय है)

पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलेभ्यः पूर्वकर्मणा ।
समुत्पन्नमिदं स्थूलं भोगायतनमात्मनः ।
अवस्था जागरस्तस्य स्थूलार्थानुभवो यतः ॥ ९० ॥

(पंचीकृत स्थूल भूतों से पूर्व-कर्मानुसार उत्पन्न हुआ यह शरीर आत्मा का स्थोल भोगायतन है; इसकी [प्रतीति की] अवस्था जाग्रत् है, जिसमें कि स्थूल पदार्थों का अनुभव होता है )

बाह्येन्द्रियैः स्थूलपदार्थसेवां
स्रक्चन्दनस्त्र्यादिविचित्ररूपाम् ।
करोति जीवः स्वयमेतदात्मना
तस्मात्प्रशस्तिर्वपुषोऽस्य जागरे ॥ ९१ ॥

(इससे तादात्म्य को प्राप्त होकर ही जीव माला , चन्दन तथा स्त्री अदि नाना प्रकार के स्थूल पदार्थों को बाह्येंद्रियों से सेवन कर्ता है, इसलिए जाग्रत-अवस्था में इस स्थूल देह की प्रधानता है)

सर्वोऽपि बाह्यसंसारः पुरुषस्य यदाश्रयः ।
विद्धि देहमिदं स्थूलं गृहवद्गृहमेधिनः ॥ ९२ ॥

(जिसके आश्रय से जीव को सम्पूर्ण बाह्य जगत् प्रतीत होता है, गृहस्थ के घर के तुल्य उसे ही स्थूल देह जानो)

स्थूलस्य सम्भवजरामरणानि धर्माः
स्थौल्यादयो बहुविधाः शिशुताद्यवस्था ।
वर्णाश्रमादिनियमा बहुधा यमाः स्युः
पूजावमानबहुमानमुखा विशेषाः ॥ ९३ ॥

(स्थूल देह के ही जन्म, जरा, मरण, तथा स्थूलता आदि धर्म हैं; बालकपन आदि नाना प्रकार की अवस्थाएं हैं; वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नियम और यम हैं; तथा इसी की पूजा, मान अपमान आदि विशेषताएं हैं)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...