||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)
सूक्ष्म शरीर
धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-
र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥
(बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस(बुद्धि)- के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अत: उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता)
सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः ।
वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥
(यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है,जिस प्रकार बढ़ई का बसोला होता है | इसीलिए यह आत्मा असंग है)
अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः
सैगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥
(नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन,धुँधला अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन,गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)
सूक्ष्म शरीर
धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-
र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥
(बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस(बुद्धि)- के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अत: उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता)
सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः ।
वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥
(यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है,जिस प्रकार बढ़ई का बसोला होता है | इसीलिए यह आत्मा असंग है)
अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः
सैगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥
(नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन,धुँधला अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन,गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे