मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

आत्म निरूपण 

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥

(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)

अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥

(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)

यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभावमहमित्ययम् ॥ १२८ ॥

(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)

यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥

(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)

येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥

(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)

यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥

( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )

अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥

(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)

एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो 
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो 
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥

(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
 

अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः 
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

कारण शरीर 

अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥

(इस प्रकार तीनों गुणों के निरूपण से यह अव्यक्त का वर्णन हुआ | यही आत्मा का कारण-शरीर है | इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था सुषुप्ति है, जिसमें बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं)

सर्वप्रकारप्रमितिप्रशान्ति-
र्बीजात्मनावस्थितिरेव बुद्धेः ।
सुषुप्तिरेतस्य किल प्रतीतिः
किञ्चिन्न वेद्मीति जगत्प्रसिद्धे ॥ १२३ ॥

(जहां सब प्रकार की प्रमा (ज्ञान) शान्त हो जाती है और बुद्धि बीजरूप से ही स्थिर रहती है, वह सुषुप्ति अवस्था है , इसकी प्रतीति ‘मैं कुछ नहीं जानता’ – ऐसी लोक-प्रसिद्ध उक्ति से होती है)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

सत्त्वगुण

सत्त्वं विशुद्धं जलवत्तथापि
ताभ्यां मिलित्वा सरणाय कल्पते ।
यत्रात्मबिम्बः प्रतिबिम्बितः सन्
प्रकाशयत्यर्क इवाखिलं जडम् ॥ ११९ ॥

(सत्त्वगुण जल के समान शुद्ध है, तथापि रज और तम से मिलने पर वह भी पुरुष की प्रवृत्ति का कारण होता है; इसमें प्रतिबिंबित होकर आत्मबिम्ब सूर्य के समान समस्त जड पदार्थों को प्रकाशित करता है)

मिश्रस्य सत्त्वस्य भवन्ति धर्मा-
स्त्वमानिताद्या नियमा यमाद्याः ।
श्रद्धा च भक्तिश्च मुमुक्षुता च
दैवी च सम्पत्तिरसन्निवृत्तिः ॥ १२० ॥

(अमानित्व आदि यम-नियमादि, श्रद्धा,भक्ति, मुमुक्षता, दैवी-सम्पत्ति तथा असत् का त्याग- ये मिश्र (रज-तम से मिले हुए) सत्त्वगुण के धर्म हैं)

विशुद्धसत्त्वस्य गुणाः प्रसादः
स्वात्मनुभूतिः परमा प्रशान्तिः ।
तृप्तिः प्रहर्षः परमात्मनिष्ठा
यया सदानन्दरसं समृच्छति ॥ १२१ ॥

(प्रसन्नता,आत्मानुभव, परमशांति, तृप्ति ,आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये विशुद्ध सत्त्वगुण के धर्म हैं, जिनसे मुमुक्षु नित्यानन्दरस को प्राप्त करता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

तमोगुण

अभावना वा विपरीतभावना-
सम्भावना विप्रतिपत्तिरस्याः ।
संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं
विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्रम् ॥ ११७ ॥

(तमोगुण की इस आवरण-शक्ति के संसर्ग से युक्त पुरुष को अभावना, विपरीतभावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति – ये तमोगुण की शक्तियां नहीं छोडतीं और विक्षेप-शक्ति भी उसे निरन्तर डावाँडोल ही रखती है) #

अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा
प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः ।
एतैः प्रयुक्तो न हि वेति किञ्चि-
न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति ॥ ११८ ॥

(अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण हैं | इनसे युक्त हुआ पुरुष कुछ नहीं समझता; वह निद्रालु या स्तम्भ के समान [जडवत्] रहता है)
................................................

#‘ ब्रह्म नहीं है’-जिससे ऐसा ज्ञान हो वह ‘अभावना’ कहलाती है | ‘मैं शरीर हूँ’-यह ‘विपरीत भावना’ है | किसी के होने में संदेह – ‘असम्भावना’ है और ‘है या नहीं’-इस तरह के संशय को ‘विप्रतिपत्ति’ कहते हैं | ‘प्रपञ्च का व्यवहार’ ही माया के ‘विक्षेप-शक्ति’ है |

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)

तमोगुण

एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य
शक्तिर्यया वस्त्वभासतेऽन्यथा ।
सैषा निदानं पुरुष्य संसृते-
र्विक्षेपशक्तेः प्रसरस्य हेतुः ॥ ११५ ॥

(जिसके कारण वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होने लगती है वह तमोगुण की आवरणशक्ति है | यही पुरुष के (जन्म-मरण-रूप) संसार का आदि-कारण है और यही विक्षेपशक्ति के प्रसार का भी हेतु है)

प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्सन्तसूक्ष्मार्थदृक्
व्यालीढस्तमसा न वेत्ति बहुधा सम्बोधितोऽपि स्फुटम् ।
भ्रान्त्यारोपितमेव साधु कलयत्यालम्बते तद्गुणान्
हन्तासौ प्रबला दुरन्ततमसः शक्तिर्महत्यावृतिः ॥ ११६॥

(तम से ग्रस्त हुआ पुरुष अति बुद्धिमान्, विद्वान, चतुर और शास्त्र के अत्यन्त सूक्ष्म अर्थों को देखने वाला भी हो तो भी वह नाना प्रकार समझाने से भी अच्छी तरह नहीं समझता; वह भ्रम से आरोपित किये हुए पदार्थों को ही सत्य समझता है और उन्हीं के गुणों का आश्रय लेता है | अहो ! दुरन्त तमोगुण की यह महती आवरण-शक्ति बड़ी ही प्रबल है)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

रजोगुण

विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।
रागदयोऽस्याः प्रभवन्ति नित्यं
दुःखादयो ये मनसोविकाराः ॥ ११३ ॥

(क्रियारूपा विक्षेपशक्ति रजोगुण की है जिससे सनातनकाल से समस्त क्रियाएँ होती आई हैं और जिससे रागादि और दु:खादि, जो मन के विकार हैं, सदा उत्पन्न होते हैं)

कामः क्रोधो लोभदम्भाद्यसूया-
हङ्कारेर्ष्यामत्सराद्यास्तु घोराः ।
धर्मा एते राजसाः पुम्प्रवृत्ति-
र्यस्मादेषा तद्रजो बन्धहेतुः ॥ ११४ ॥

(काम, क्रोध, लोभ, दंभ, असूया [गुणों में दोष ढूँढना], अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर –ये घोर धर्म रजोगुण के ही हैं | अत: जिसके कारण जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है , वह रजोगुण ही उसके बन्धन का हेतु है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

माया निरूपण

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-
रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।
कार्यानुमेया सुधियैव माया
यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११० ॥

(जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की पराशक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है | बुद्धिमान जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं)

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

(वह न सत् है न असत् है और न [सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है न अभिन्न है और न [भिन्नाभिन्न] उभयरूप है, न अंगसहित है न अंगरहित है और न [साङ्गानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीयरूपा [जो कही न जा सके ऐसी] है)

शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्य
सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा ।
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रसिद्धा
गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ॥ ११२ ॥

(रज्जु के ज्ञान से सर्प-भ्रम समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से नष्ट होने वाली है | अपने अपने प्रसिद्ध कार्यों के कारण सत्त्व, रज और तम—ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

प्रेम की आत्मार्थता 

आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान् विषयो न स्वतः प्रियः ।
स्वत एव हि सर्वेषामात्मा प्रियतमो यतः ॥ १०८ ॥

(विषय स्वत: प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्मा के लिए ही प्रिय होते हैं, क्योंकि स्वत: प्रियतम तो सबका आत्मा ही है)

तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन ।
यत्सुषुप्तौ निर्विषय आत्मानन्दोऽनुभूयते ।
श्रुतिः प्रयक्षमैतिह्यमनुमानं च जाग्रति ॥ १०९ ॥

(इसलिए आत्मा सदा आनंदस्वरूप है, इसमें दु:ख कभी नहीं है | तभी सुषुप्ति में विषयों का भाव रहते हुए भी आत्मानंद का अनुभव होता है | इसमें विषय, श्रुति, प्रत्यक्षा, ऐतिह्य (इतिहास) और अनुमान- प्रमाण जागृत [मौजूद] हैं)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

प्राण के धर्म

उच्छ्‌वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः ।
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥

(श्वास,प्रश्वास, जम्हाई,छींक,काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं)

अहंकार

अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि ।
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥

(शरीर के अंदर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रिय के गोलकों) –में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंत:करण “मैं-पन” का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है)

अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥

(इसीको अहंकार जानना चाहिए | यही करता,भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है)

विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥

(विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है | सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं)

नारायण ! नारायण !!

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...