||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)
आत्मानात्म - विवेक
कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति ।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥
(अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढँके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता)
तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् ।
तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२ ॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः ।
नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥
(जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषारूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करने पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरस-स्वरूप , अंतर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासता है)
आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा ।
तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥
(बन्धन की निवृत्ति के लिए विद्वान् को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए | उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जानकार वह आनंदित हो जाता है)
मुञ्जादिषीकमिव दृश्यवर्गात्
प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रिय म् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं
तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥
(जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्यवर्ग से पृथक् करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)
आत्मानात्म - विवेक
कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति ।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥
(अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढँके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता)
तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् ।
तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२ ॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः ।
नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥
(जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषारूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करने पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरस-स्वरूप , अंतर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासता है)
आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा ।
तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥
(बन्धन की निवृत्ति के लिए विद्वान् को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए | उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जानकार वह आनंदित हो जाता है)
मुञ्जादिषीकमिव दृश्यवर्गात्
प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रिय
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं
तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥
(जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्यवर्ग से पृथक् करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे