मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

अन्नमय कोश

पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यंगेऽपि जीवनात् ।
तत्तच्छक्तेरनाशाच्च न नियम्यो नियामकः ॥ १५८ ॥

(यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता,क्योंकि उसके अंग-भंग होने पर भी अपनी शक्ति का नाश न होने के कारण पुरुष जीवित रहता है | इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है , वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता)

देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः ।
स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मन: ॥ १५९ ॥

(देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उससे पृथकता स्वयं ही स्वत:सिद्ध है)

कुल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः ।
कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥ १६० ॥

(हड्डियों का समूह, मांस से लिथड़ा हुआ और मल से भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपने से भिन्न अपना जानने वाला स्वयं ही कैसे हो सकता है ?)

त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशा-
वहंमतिं मूढजनः करोति ।
विलक्षणं वेत्ति विचारशीलो
निजस्वरूपं परमार्थभूतम् ॥ १६१ ॥

(त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल की राशिरूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं | विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूप को इससे पृथक् ही जानते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

अन्नमय कोश 

देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोश-
श्चान्नेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ।
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि-
र्नायं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः ॥ १५६ ॥

(अन्न से उत्पन्न हुआ यह देह ही अन्नमय कोश है , जो अन्न से ही जीता है और उसके बिना नष्ट हो जाता है | यह त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर,अस्थि और मल आदि का समूह स्वयं नित्यशुद्ध आत्मा नहीं हो सकता)

पूर्वं जनेरपि मृतेरपि नायमस्ति
जातःक्षणां क्षणगुणोऽनियतस्वभावः ।
नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः
स्वात्मा कथं भवति भावविकारवेत्ता ॥ १५७ ॥

(यह जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् भी नहीं रहता, क्षण में जन्म लेता है, क्षणिक गुण वाला है और अस्थिर-स्वभाव है; तथा अनेक तत्वों का संघात, जड और घट के समान दृश्य है, फिर यह भाव-विकारों का जानने वाला अपना आत्मा कैसे हो सकता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

आत्मानात्म - विवेक 

कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति ।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥

(अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढँके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता)

तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् ।
तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२ ॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः ।
नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥

(जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषारूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करने पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरस-स्वरूप , अंतर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासता है)

आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा ।
तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥

(बन्धन की निवृत्ति के लिए विद्वान् को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए | उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जानकार वह आनंदित हो जाता है)

मुञ्जादिषीकमिव दृश्यवर्गात्
प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रियम् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं
तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥

(जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्यवर्ग से पृथक् करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

आत्मानात्म - विवेक 

नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वह्निना 
छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः ।
विवेकविज्ञानमहासिना विना 
धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना ॥ १४९ ॥

(यह बन्धन विधाता की विशुद्ध कृपा से प्राप्त हुए विवेक-विज्ञान-रूप शुभ्र और मंजुल महाखड्ग के बिना और किसी अस्त्र, शस्त्र, वायु, अग्नि अथवा करोड़ों कर्मकलापों से भी नहीं काटा जा सकता)

श्रुतिप्रमाणैकमतेः स्वधर्म-
निष्ठा तयैवात्मविशुद्धिरस्य ।
विशुद्धबुद्धैः परमात्मवेदनं 
तेनैव संसारसमूलनाशः ॥ १५० ॥

जिसका श्रुतिप्रामाण्य में दृढ निश्चय होता है, उसी की स्वधर्म में निष्ठा होती है और उसी से उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है ; जिसका चित्त शुद्ध होता है उसी को परमात्मा का ज्ञान होता है और इस ज्ञान से ही संसाररूपी वृक्ष का समूल नाश होता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

बन्ध निरूपण 

बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरङ्कुरो 
रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः ।
अग्राणीन्द्रिसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं 
नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७ ॥

(संसाररूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देहात्म -बुद्धि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर स्तंभ (तना) है, प्राण शाखाएं हैं, इन्द्रियाँ उपशाखाएँ (गुद्दे ) हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दु:ख फल है तथा जीवरूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है)

अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो 
नैसर्गिकोऽनादिरनन्त ईरितः ।
जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख-
प्रवाहपातं जनयत्यमुष्य ॥ १४८ ॥

(यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन स्वाभाविक तथा अनादि और अनंत कहा गया है | यही जीव के जीवन, मरण, व्याधि और जरा(वृद्धावस्था) आदि दु:खों का प्रवाह उत्पन्न कर देता है)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति 

कवलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेघै
र्व्यथयति हिमझञ्झावायुरुग्रोयथैतान् ।
अविरततमसात्मन्यावृते मूढबुद्धिं 
क्षपयति बहुदुःखैस्तीव्रविक्षेपशक्तिः ॥ १४५ ॥

(जिस प्रकार किसी दुर्दिन में [जिस दिन आंधी, मेघ आदि का विशेष उत्पात हो] सघन मेघों के द्वारा सूर्यदेव के आच्छादित होने पर अति भयंकर और ठण्डी ठण्डी आंधी सबको खिन्न कर देती है, उसी प्रकार बुद्धि के निरन्तर तमोगुण से आवृत होने पर मूढ़ पुरुष को विक्षेप-शक्ति नाना प्रकार के दु:खों से सन्तप्त करती है)

एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः ।
याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥ १४६ ॥

(इन दोनों [आवरण और विक्षेप] शक्तियों से ही पुरुष को बन्धन की प्राप्ति हुई है और इन्हीं से मोहित होकर यह देह को आत्मा मानकर संसार-चक्र में भ्रमता रहता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)

अध्यास

अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या 
स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् 
समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा 
तमोमयी राहुरिवार्कविम्बम् ॥ १४१ ॥

(अखण्ड, नित्य और अद्वय बोध-शक्ति से स्फुरित होते हुए अखण्डैश्वर्यसम्पन्न आत्मतत्त्व को यह तमोमयी आवरणशक्ति इस प्रकार ढँक लेती है जैसे सूर्यमंडल को राहु)

तिरोभूत स्वात्मन्यमलतरतेजोवत पुमा-
ननात्मानं मोहादहमिति शरीरं कलयति ।
ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुं बन्धनगुणैः 
परं विक्षेपाख्या रजस उरुशक्तिर्व्यथयति ॥ १४२ ॥

(अति निर्मल तेजोमय आत्मतत्त्व के तिरोभूत (अदृश्य) होने पर पुरुष अनात्मदेह को ही मोह से ‘मैं हूँ’ –ऐसा मनाने लगता है | तब रजोगुण की विक्षेप नाम वाली अति प्रबल शक्ति काम-क्रोधादि अपने बन्धनकारी गुणों से इसको व्यथित करने लगती है)

महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो 
धियो नानावस्थाः स्वयमभिनयंस्तद्गुणतया ।
अपारे संसारे विषयविषपूरे जलनिधौ 
निमज्योन्मज्यायं भ्रमति कुमतिः कुत्सितगतिः ॥ १४३ ॥

(तब यह नाना प्रकार की नीच गतियोंवाला कुमति विषयरूपी विष से भरे हुए इस अपार संसार-समुद्र में डूबता-उछलता महामोहरूप ग्राह के पंजे में पड़कर आत्मज्ञान के नष्ट हो जाने से बुद्धि के गुणों का अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओं का अभिनय(नाट्य) करता हुआ भ्रमता रहता है)

भानुप्रभासञ्जनिताभ्रपङ्क्ति-
र्भानुं तिरोधाय विजृम्भते यथा ।
आत्मोदिताहङ्कृतिरात्मतत्त्वं 
तथा तिरोधाय विजृम्भते स्वयम् ॥ १४४ ॥

(जिस प्रकार सूर्य के तेज से उत्पन्न हुई मेघमाला सूर्य ही को ढँककर स्वयं फैल जाती है, उसी प्रकार आत्मा से प्रकट हुआ अहंकार आत्मा को ही आच्छादित करके स्वयं स्थित हो जाता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

अध्यास

अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः
प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसम्पातहेतुः ।
येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या
पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत् ॥ १३९ ॥

(पुरुष का अनात्म-वस्तुओं में ‘अहम्’- इस आत्मबुद्धि का होना ही जन्म-मरणरूपी क्लेशों की प्राप्ति कराने वाला अज्ञान से प्राप्त हुआ बन्धन है; जिसके कारण यह जीव असत् शरीर को सत्य समझकर इसमें आत्मबुद्धि हो जाने से, तन्तुओं से रेशम के कीड़े के समान, इसका विषयों द्वारा पोषण, मार्जन और रक्षण करता रहता है)

अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा
विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा ।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक-
स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः श्रुणु सखे ॥ १४० ॥

(मूढ़ पुरुष को तमोगुण के कारण ही अन्य में अन्य-बुद्धि होती है, विवेक न होने से ही रज्जु में सर्प-बुद्धि होती है; ऐसी बुद्धि वाले को ही नाना प्रकार के अनर्थों का समूह आ घेरता है, अत: हे मित्र ! सुन , यह जो असद्ग्राह (असत् को सत्य मानना) है , वही बन्धन है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

आत्म निरूपण

अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥

(इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है)

ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाणाम् ।
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न वेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥

(वह मन और अहंकाररूप विचारों का तथा देह,इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है | तथा तपाए हुए लोहपिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है)

न जायते नो म्रियते न वर्धते
न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥

(वह न जन्मता है, न मरता है, न बढता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है | वह नित्य है और शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता)

प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।
विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्घेः ॥ १३७ ॥

(प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप , वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहंभाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षीरूप से साक्षात् विराजमान है)

नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमत्म-
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादत् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धु
प्रतर भव कृर्तार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥

(तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर ‘यह मैं हूँ’—ऐसा अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव कर | और [इसप्रकार] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

आत्म निरूपण 

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥

(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)

अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥

(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)

यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभावमहमित्ययम् ॥ १२८ ॥

(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)

यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥

(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)

येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥

(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)

यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥

( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )

अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥

(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)

एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो 
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो 
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥

(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...