मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०१)

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः |
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ||||
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् |
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||||
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः |
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||||

माँ! मैं न मन्त्र जानता हूँ, न यन्त्र; अहो! मुझे स्तुतिका भी ज्ञान नहीं है। न आवाहनका पता है, न ध्यान का । स्तोत्र और कथा की भी जानकारी नहीं है। न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है; परंतु एक बात जानता हूँ, केवल तुम्हारा अनुसरण-तुम्हारे पीछे चलना। जो कि सब क्लेशोंको-समस्त दुःख-विपत्तियोंको हर लेनेवाला है॥१॥
सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता! मैं पूजाकी विधि नहीं जानता, मेरे पास धनका भी अभाव है, मैं स्वभावसे भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजाका सम्पादन हो भी नहीं सकता; इन सब कारणोंसे तुम्हारे चरणोंकी सेवामें जो त्रुटि हो गयी है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्र का होना सम्भव है,किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥२॥  
माँ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत-से हैं, किंतु  उन सबमें मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ; मेरे-जैसा चञ्चल  कोई विरला ही होगा। शिवे! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे के लिये कदापि उचित नहीं है, क्योंकि संसारमें कुपुत्रका होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥३॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





पुत्रगीता (पोस्ट 10)


||श्रीहरि||

पुत्रगीता (पोस्ट 10)

नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ ३५॥
आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि वा।
आत्मन्येव भविष्यामि न मां तारयति प्रजा ॥ ३६॥
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं
यथैकता समता सत्यता च।
शीले स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं
ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः॥ ३७॥
किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते
किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताः पिता च ॥ ३८॥

भीष्म उवाच
पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा यथाकार्षीत् पिता नृप।
तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः ॥ ३९॥

संसारमें विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्यके समान कोई तप नहीं है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है॥ ३५॥
मैं सन्तानरहित होने पर भी परमात्मा में ही परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ, परमात्मा में ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मा में ही लीन होऊँगा। सन्तान मुझे पार नहीं उतारेगी॥ ३६॥
परमात्माके साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण, सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्डका परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकारके सकाम कर्मोंसे उपरतिइनके समान ब्राह्मणके लिये दूसरा कोई धन नहीं है॥ ३७॥
ब्राह्मणदेव पिताजी ! जब आप एक दिन मर ही जायँगे तो आपको इस धनसे क्या लेना है अथवा भाई-बन्धुओंसे आपका क्या काम है तथा स्त्री आदिसे आपका कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? आप अपने हृदयरूपी गुफा में स्थित हुए परमात्मा को खोजिये। सोचिये तो सही, आपके पिता और पितामह कहाँ चले गये? ॥ ३८॥
भीष्म जी कहते हैं-नरेश्वर! पुत्र का यह वचन सुनकर पिता ने जैसे सत्य-धर्म का अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य-धर्ममें तत्पर रहकर यथायोग्य बर्ताव करो ॥ ३९ ॥

॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पुत्रगीता सम्पूर्णा ॥




श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०३)

कोई शत्रुओं से पीड़ित हो अथवा दुर्भेद्य बन्धन में पड़ा हो, इन  बत्तीस नामों के पाठमात्र से संकट से छुटकारा पा जाता है। इस में तनिक भी संदेह के लिये स्थान नहीं है। यदि राजा क्रोध में भरकर वध के लिये अथवा और किसी कठोर दण्ड के लिये आज्ञा दे दे या युद्ध में शत्रुओं द्वारा मनुष्य घिर जाय अथवा वन में व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओंके चंगुल में फँस जाय तो इन बत्तीस नामोंका एक सौ आठ बार पाठमात्र करनेसे वह सम्पूर्ण भयोंसे मुक्त हो जाता है। विपत्तिके समय इसके समान भयनाशक उपाय दूसरा नहीं है। देवगण! इस नाममालाका पाठ करनेवाले मनुष्योंकी कभी कोई हानि नहीं होती। अभक्त, नास्तिक  और शठ मनुष्य को इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो भारी विपत्ति में पड़नेपर भी इस नामावलीका हजार, दस हजार अथवा लाख बार पाठ करता है, स्वयं करता या ब्राह्मणों से कराता है, वह सब प्रकार की आपत्तियों से मुक्त हो जाता है। सिद्ध अग्नि में मधुमिश्रित सफेद तिलों से  इन नामों द्वारा लाख बार हवन करे तो मनुष्य सब विपत्तियों से छूट जाता है। इस नाममालाका पुरश्चरण तीस हजार का है। पुरश्चरणपूर्वक पाठ करने से मनुष्य इसके द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध कर सकता है। मेरी सुन्दर मिट्टीकी अष्टभुजा मूर्ति बनावे, आठों भुजाओं में क्रमशः गदा, खड्ग, त्रिशूल, बाण, धनुष, कमल, खेट ( ढाल ) और मुद्गर धारण करावे। मूर्तिके मस्तकमें चन्द्रमाका चिह्न हो, उसके तीन नेत्र हों, उसे लाल वस्त्र पहनाया गया हो, वह सिंह के कंधेपर सवार हो और शूलसे महिषासुरका वध कर रही हो, इस प्रकार की प्रतिमा बनाकर नाना प्रकारकी सामग्रियोंसे भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करे। मेरे उक्त नामोंसे लाल कनेर के फूल चढ़ाते हुए सौ बार पूजा करे और मन्त्र-जप करते हुए पूए से हवन करे। भाँति-भाँतिके उत्तम पदार्थ  भोग लगावे। इस प्रकार करनेसे मनुष्य असाध्य कार्यको भी सिद्ध कर लेता है। जो मानव प्रतिदिन मेरा भजन करता है, वह कभी विपत्ति में नहीं पड़ता।
देवताओं से ऐसा कहकर जगदम्बा वहीं अन्तर्धान हो गयीं।  दुर्गा जी के इस उपाख्यान को जो सुनते हैं, उन पर कोई विपत्ति नहीं आती ।

इति श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





सोमवार, 8 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०२)



श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:


अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०२)

देवताओं के इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दयामयी दुर्गादेवी ने  कहा-देवगण! सुनो-यह रहस्य अत्यन्त गोपनीय और दुर्लभ है। मेरे बत्तीस नामों की माला सब प्रकार की आपत्ति का विनाश करनेवाली है। तीनों लोकों में इसके समान दूसरी कोई स्तुति नहीं है। यह रहस्यरूप है। इसे बतलाती हूँ, सुनो---

दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी,
दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा,
दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला,
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी,
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता,
दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी
दुर्गमाङ्गी दुर्गमता  दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी
दुर्गभीमा दुर्गभामा  दुर्गभा दुर्गदारिणी।।
नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानव: ||
पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न शंशय: ||

१-दुर्गा,२-दुर्गार्तिशमनी,३-दुर्गापद्विनिवारिणी,४-दुर्गमच्छेदिनी, ५-दुर्गसाधिनी, ६-दुर्गनाशिनी, ७-दुर्गतोद्धारिणी, ८-दुर्गनिहन्त्री,९-दुर्गमापहा,१०-दुर्गमज्ञानदा,११-दुर्गदैत्यलोकदवानला, १२-दुर्गमा,१३-दुर्गमालोका,१४-दुर्गमात्मस्वरूपिणी,१५-दुर्गमार्गप्रदा,१६-दुर्गमविद्या,१७- दुर्गमाश्रिता,१८ दुर्गमज्ञानसंस्थाना,१९-दुर्गमध्यानभासिनी,२०-दुर्गमोहा,२१-दुर्गमगा,२२- दुर्गमार्थस्वरूपिणी,८-दुर्गमेश्वरी,२९-दुर्गभीमा,३०-दुर्गभामा,३१-दुर्गभा,३२-दुर्गदारिणी।।

जो मनुष्य मुझ दुर्गा की इस नाममाला का पाठ करता है, वह निःसन्देह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जायगा।'

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से







पुत्रगीता (पोस्ट 09)


||श्रीहरि||


पुत्रगीता (पोस्ट 09)

पशुयज्ञैः कथं हिंस्त्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति।
अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः क्षेत्रयज्ञैः पिशाचवत्॥ ३३॥
यस्य वाङ्मनसी स्यातां सम्यक् प्रणिहिते सदा।
तपस्त्यागश्च सत्यं च स वै सर्वमवाप्नुयात्॥ ३४॥

मेरे-जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देनेवाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ और पिशाचोंके समान अपने शरीरके ही रक्त-मांसद्वारा किये जानेवाले तामस यज्ञोंका अनुष्ठान कैसे कर सकता है?॥ ३३॥
जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भलीभाँति एकाग्र रहते हैं। तथा जो त्याग, तपस्या और सत्यसे सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है॥ ३४॥

----गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड 1958) से




श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०१)



श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गाद्वात्रिंशत्-नाममाला (पोस्ट ०१)

एक समयकी बात है, ब्रह्मा आदि देवताओं ने पुष्प आदि विविध उपचारोंसे महेश्वरी दुर्गा का पूजन किया। इससे प्रसन्न होकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा ने कहा-देवताओ! मैं तुम्हारे पूजन से संतुष्ट हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो, माँगो, मैं तुम्हें दुर्लभ-से-दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करूंगी।' दुर्गाका यह वचन सुनकर देवता बोले देवि! हमारे शत्रु महिषासुर को, जो तीनों लोकों के लिये कंटक था, आपने मार डाला, इससे सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ एवं निर्भय हो गया। आपकी ही कृपासे हमें पुनः अपने-अपने पदकी प्राप्ति हुई है। आप भक्तोंके लिये कल्पवृक्ष हैं, हम आपकी शरणमें  आये हैं। अतः अब हमारे मनमें कुछ भी पानेकी अभिलाषा शेष नहीं है। हमें सब कुछ मिल गया। तथापि आपकी आज्ञा है,इसलिये हम जगत् की  रक्षाके लिये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। महेश्वरि! कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे शीघ्र प्रसन्न होकर आप संकटमें पड़े हुए जीवकी रक्षा करती हैं। देवेश्वरि! यह बात सर्वथा गोपनीय हो तो भी हमें अवश्य बतायें।'

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





रविवार, 7 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट १७)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट १७)

स्वर्गाङ्गणे वेणुमृदङ्गशङ्खभेरीनिनादैरूपगीयमाना ।
कोलाहलैराकलितातवास्तु विद्याधरीनृत्यकलासुखाय ॥ १७॥
देवि भक्तिरसभावितवृत्ते प्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्यते ।
तत्र लौल्यमपि सत्फलमेकञ्जन्मकोटिभिरपीह न लभ्यम् ॥ १८॥
एतैः षोडशभिः पद्यैरूपचारोपकल्पितैः ।
यः परां देवतां स्तौति स तेषां फलमाप्नुयात् ॥ १९॥

॥ इति श्रीदुर्गामानसपूजा ॥

स्वर्गके आँगनमें वेणु, मृदङ्ग, शङ्ख तथा भेरीकी मधुर ध्वनिके साथ जो संगीत होता है तथा जिसमें अनेक प्रकारके कोलाहलका शब्द व्याप्त रहता है, वह विद्याधरीद्वारा प्रदर्शित नृत्य-कला तुम्हारे सुखकी वृद्धि करे॥१७॥
देवि! तुम्हारे भक्तिरस से भावित इस पद्यमय स्तोत्रमें यदि  कहीं से भी कुछ भक्तिका लेश मिले तो उसीसे प्रसन्न हो जाओ। माँ! तुम्हारी भक्तिके लिये चित्तमें जो आकुलता होती, वही एकमात्र जीवनका फल है, वह कोटि-कोटि जन्म धारण करनेपर भी इस संसारमें तुम्हारी कृपाके बिना सुलभ नहीं होती॥ १८॥
इन उपचारकल्पित सोलह पद्यों से जो परा देवता भगवती त्रिपुरसुन्दरी का स्तवन करता है, वह उन उपचारों के समर्पण का फल  प्राप्त करता है॥१९॥

इति श्रीदुर्गामानसपूजा

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





पुत्रगीता (पोस्ट 08)


||श्रीहरि||

पुत्रगीता (पोस्ट 08)

न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित् प्रबाधते।
ऋते सत्यमसत् त्याज्यं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्॥ २८॥
तस्मात् सत्यव्रताचारः सत्ययोगपरायणः।
सत्यागमः सदा दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत्॥२९॥
अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्।
मृत्युमापद्यते मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम् ॥ ३०॥
सोऽहं ह्यहिंस्रः सत्यार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः।
समदुःखसुखः क्षेमी मृत्यु हास्याम्यमर्त्यवत् ॥ ३१॥
शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः।
वाह्मनःकर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने॥३२॥

सत्यके बिना कोई भी मनुष्य सामने आते हुए मृत्युकी सेनाका कभी सामना नहीं कर सकता; इसलिये असत्यको त्याग देना चाहिये; क्योंकि अमृतत्व सत्यमें ही स्थित है॥ २८॥ अतः मनुष्यको सत्यव्रतका आचरण करना चाहिये। सत्ययोगमें तत्पर रहना और शास्त्रकी बातोंको सत्य मानकर श्रद्धापूर्वक सदा मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। इस प्रकार सत्यके द्वारा ही मनुष्य मृत्युपर विजय पा सकता है॥ २९॥
अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीरमें ही स्थित हैं। मनुष्य मोहसे मृत्युको और सत्यसे अमृत को प्राप्त होता है॥३०॥ अतः अब मैं हिंसा से दूर रहकर सत्यकी खोज करूंगा, काम और क्रोध को हृदयसे निकालकर दुःख और सुखमें समान भाव रबँगा तथा सबके लिये कल्याणकारी बनकर देवताओंके समान मृत्युके भयसे मुक्त हो जाऊँगा ॥ ३१॥ मैं निवृत्तिपरायण होकर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियों को वश में रखकर ब्रह्मयज्ञ (वेद-शास्त्रोंके स्वाध्याय) में लग जाऊँगा और मुनिवृत्तिसे रहूँगा। उत्तरायणके मार्गसे जानेके लिये मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र एवं गुरुशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञका अनुष्ठान करूंगा ॥ ३२॥

----गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड 1958) से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...