गुरुवार, 18 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

श्रीप्रह्लाद उवाच
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः
सत्त्वैकतानगतयो वचसां प्रवाहैः
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः
किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ||८||
मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्
तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो
भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ||९||
विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ
पादारविन्दविमुखात्श्वपचं वरिष्ठम्
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ
प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ||१०||

प्रह्लादजीने कहाब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ ८ ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योगये सभी गुण परमपुरुष भगवान्‌को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैंपरंतु भक्तिसे तो भगवान्‌ गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ ९ ॥ मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान्‌ कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्‌के चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ॥ १० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

श्रीनारद उवाच
एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्र पुरः सराः
नोपैतुमशकन्मन्यु संरम्भं सुदुरासदम् ||१||
साक्षात्श्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तं महदद्भुतम्
अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शङ्किता ||२||
प्रह्रादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके
तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ||३||
तथेति शनकै राजन्महाभागवतोऽर्भकः
उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः ||४||
स्वपादमूले पतितं तमर्भकं
विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः
उत्थाप्य तच्छीर्ष्ण्यदधात्कराम्बुजं
कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ||५||
स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः
सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः
तत्पादपद्मं हृदि निर्वृतो दधौ
हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ||६||
अस्तौषीद्धरिमेकाग्र मनसा सुसमाहितः
प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ||७||

नारदजी कहते हैंइस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान्‌ के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर-छोर नहीं दीखता था ॥ १ ॥ देवताओं ने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंहभगवान्‌ का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पासतक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ॥ २ ॥ तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि बेटा ! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान्‌ कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो ॥ ३ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी प्रह्लाद जो आज्ञाकहकर और धीरेसे भगवान्‌के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ४ ॥ नृसिंहभगवान्‌ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह कर-कमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ॥ ५ ॥ भगवान्‌के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मग्र होकर भगवान्‌के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दाश्रु झरने लगे ॥ ६ ॥ प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निॢनमेष नयनोंसे भगवान्‌को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्‌के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ॥ ७ ॥

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बुधवार, 17 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीकिम्पुरुषा ऊचुः

वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः
अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ५३

श्रीवैतालिका ऊचुः

सभासु सत्रेषु तवामलं यशो
गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे
यस्तामनैषीद्वशमेष दुर्जनो
द्विष्ट्या हतस्ते भगवन्यथाऽऽमयः ||५४||

श्रीकिन्नरा ऊचुः

वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा
दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः
भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो
नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ||५५||

श्रीविष्णुपार्षदा ऊचुः
अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते
दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म
सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्त-
स्तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ||५६||


किम्पुरुषोंने कहाहमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषोंने इसका तिरस्कार कियाइसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुषअसुराधम को नष्ट कर दिया ॥ ५३ ॥
वैतालिकोंने कहाभगवन् ! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञोंमें आपके निर्मल यशका गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्टने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्यकी बात है कि महारोग के समान इस दुष्टको आपने जड़मूल से उखाड़ दिया ॥ ५४ ॥
किन्नरोंने कहाहम किन्नरगण आपके सेवक हैं । यह दैत्य हमसे बेगारमें ही काम लेता था। भगवन् ! आपने कृपा करके आज इस पापीको नष्ट कर दिया। प्रभो ! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ॥ ५५ ॥
भगवान्‌ के पार्षदों ने कहाशरणागतवत्सल ! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हमने आज ही देखा है। भगवन् ! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादिने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे नृसिंहस्तवो नामाष्टमोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीगन्धर्वा ऊचुः
वयं विभो ते नटनाट्यगायका
येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः
स एष नीतो भवता दशामिमां
किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ||५०||

श्रीचारणा ऊचुः
हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः
यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ||५१||

श्रीयक्षा ऊचुः
वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञै-
स्त इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम्
स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते
नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ||५२||

गन्धर्वों ने कहाप्रभो ! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं । इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था । उसे आपने इस दशा को पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलनेवाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है ? ॥ ५० ॥
चारणोंने कहाप्रभो ! आपने सज्जनोंके हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है ॥ ५१ ॥
यक्षोंने  कहाभगवन् ! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हमलोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परंतु हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा ! इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ॥ ५२ ॥

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मंगलवार, 16 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीनागा ऊचुः
येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः
तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ||४७||

श्रीमनव ऊचुः
मनवो वयं तव निदेशकारिणो
दितिजेन देव परिभूतसेतवः
भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो
करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ||४८||

श्रीप्रजापतय ऊचुः
प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा
न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः
स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते
जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ||४९||

नागोंने कहाइस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोंको भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाडक़र आपने हमारी पत्नियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४७ ॥
मनुओंने कहादेवाधिदेव ! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्यने हमलोगोंकी धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? ॥ ४८ ॥
प्रजापतियोंने कहापरमेश्वर ! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परंतु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो ! आपका यह अवतार संसारके कल्याणके लिये है ॥ ४९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीसिद्धा ऊचुः

यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-
रहारषीद्योगतपोबलेन
नाना दर्पं तं नखैर्विददार
तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ||४५||

श्रीविद्याधरा ऊचुः

विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां
न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः
स येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं
मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ||४६||

सिद्धोंने कहानृसिंहदेव ! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणोंमें विनीत भावसे नमस्कार करते हैं ॥ ४५ ॥
विद्याधरोंने कहायह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि हमलोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ ४६ ॥

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सोमवार, 15 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीऋषय ऊचुः
त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो
येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्क्थ
तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल
रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ||४३||

श्रीपितर ऊचुः
श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्
दत्तानि तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु
तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्
तस्मै नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ||४४||

ऋषियोंने कहापुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेज:स्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ॥ ४३ ॥
पितरोंने कहाप्रभो ! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाञ्जलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखोंसे उसका पेट फाडक़र वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मोंके एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीब्रह्मोवाच
नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये
विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे
विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान्गुणैः
स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ||४०||

श्रीरुद्र उवाच
कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः
तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल || ४१||

श्रीइन्द्र उवाच
प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा
दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं तद्गृहं प्रत्यबोधि
कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते
मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ||४२||

ब्रह्माजीने कहाप्रभो ! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तिका कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणोंके द्वारा आप लीलासे ही सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंगसे करते हैंफिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ४० ॥
श्रीरुद्रने कहाआपके क्रोध करनेका समय तो कल्पके अन्तमें होता है। यदि इस तुच्छ दैत्यको मारनेके लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरणमें आया है। भक्तवत्सल प्रभो ! आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ॥ ४१ ॥
इन्द्रने कहापुरुषोत्तम ! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तवमें आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्योंके आतङ्कसे सङ्कुचित हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादिका राज्य हमलोगोंको पुन: प्राप्त हुआ है, यह सब कालका ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या। स्वामिन् ! जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोंकी तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है ॥ ४२ ॥

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रविवार, 14 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

निशम्य लोकत्रयमस्तकज्वरं
तमादिदैत्यं हरिणा हतं मृधे
प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुः
प्रसूनवर्षैर्ववृषुः सुरस्त्रियः ||३५||
तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं
दिदृक्षतां सङ्कुलमास नाकिनाम्
सुरानका दुन्दुभयोऽथ जघ्निरे
गन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ||३६||
तत्रोपव्रज्य विबुधा ब्रह्मेन्द्र गिरिशादयः
ऋषयः पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगाः ||३७||
मनवः प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणाः
यक्षाः किम्पुरुषास्तात वेतालाः सहकिन्नराः ||३८||
ते विष्णुपार्षदाः सर्वे सुनन्दकुमुदादयः
मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिपुटा आसीनं तीव्रतेजसम्
ईडिरे नरशार्दूलं नातिदूरचराः पृथक् ||३९||

युधिष्ठिर ! जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीड़ाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्‌के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान्‌पर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ ३५ ॥ आकाशमें विमानोंसे आये हुए भगवान्‌के दर्शनार्थी देवताओंकी भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ३६ ॥ तात ! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शङ्कर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान्‌ के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिरपर अञ्जलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्‌ की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की ॥ ३७३९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...