॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
श्रीप्रह्लाद
उवाच
ब्रह्मादयः
सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः
सत्त्वैकतानगतयो
वचसां प्रवाहैः
नाराधितुं
पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः
किं
तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ||८||
मन्ये
धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्
तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः
नाराधनाय
हि भवन्ति परस्य पुंसो
भक्त्या
तुतोष भगवान्गजयूथपाय ||९||
विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ
पादारविन्दविमुखात्श्वपचं
वरिष्ठम्
मन्ये
तदर्पितमनोवचनेहितार्थ
प्राणं
पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ||१०||
प्रह्लादजीने
कहा—ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी
बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति
और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर
जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ ८ ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग—ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं—परंतु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ ९ ॥ मेरी
समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख
हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्के
चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने
कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र
नहीं कर सकता ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से