॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण
धर्ममूलं
हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।
स्मृतं
च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ७ ॥
सत्यं
दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः ।
अहिंसा
ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८ ॥
सन्तोषः
समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः ।
नृणां
विपर्ययेहेक्षा मौनं आत्मविमर्शनम् ॥ ९ ॥
अन्नाद्यादेः
संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः
सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १० ॥
श्रवणं
कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः ।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्म समर्पणम् ॥ ११ ॥
नृणामयं
परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः ।
त्रिंशत्
लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२ ॥
युधिष्ठिर
! सर्ववेदस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले
महर्षियोंकी स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो,
वह कर्म धर्मके मूल हैं ॥ ७ ॥
युधिष्ठिर
! धर्मके ये तीस लक्षण शास्त्रोंमें कहे गये हैं—सत्य,
दया, तपस्या, शौच,
तितिक्षा, उचित-अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियोंका संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग,
स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष,
समदर्शी महात्माओंकी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक
भोगोंकी चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्ण
प्रयत्नोंका फल उलटा ही होता है—ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियोंको
अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके
मनुष्योंमें अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव, संतोंके परम
आश्रय भगवान् श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला आदिका श्रवण, कीर्तन,
स्मरण, उनकी सेवा, पूजा
और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और
आत्म-समर्पण— यह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम धर्म
है। इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ ८—१२
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से