शनिवार, 3 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

नारद उवाच -

ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् ।
आचरन् दासवत् नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः ॥ १ ॥
सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान् ।
सन्ध्ये उभे च यतवाग् जपन्ब्रह्म समाहितः ॥ २ ॥
छन्दांस्यधीयीत गुरोः आहूतश्चेत् सुयन्त्रितः ।
उपक्रमेऽवसाने च चरणौ शिरसा नमेत् ॥ ३ ॥
मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून् ।
बिभृयाद् उपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम् ॥ ४ ॥
सायं प्रातश्चरेद्‍भैक्ष्यं गुरवे तन्निवेदयेत् ।
भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत् क्वचित् ॥ ५ ॥
सुशीलो मितभुग् दक्षः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ।
यावदर्थं व्यवहरेत् स्त्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च ॥ ६ ॥
वर्जयेत्प्रमदागाथां अगृहस्थो बृहद्व्रतः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः ॥ ७ ॥

नारदजी कहते हैंधर्मराज ! गुरुकुल में निवास करने वाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर दास के समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हितके कार्य करता रहे ॥ १ ॥ सायंकाल और प्रात:काल गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओंकी उपासना करे और मौन होकर एकाग्रतासे गायत्रीका जप करता हुआ दोनों समयकी सन्ध्या करे ॥ २ ॥ गुरुजी जब बुलावें तभी पूर्णतया अनुशासनमें रहकर उनसे वेदोंका स्वाध्याय करे। पाठके प्रारम्भ और अन्तमें उनके चरणोंमें सिर टेककर प्रणाम करे ॥ ३ ॥ शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथमें कुश धारण करे ॥ ४ ॥ सायंकाल और प्रात:काल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरुजीको समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा न दें तो उपवास कर ले ॥ ५ ॥ अपने शीलकी रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियों को अपने वशमें रखे। स्त्री और स्त्रियों के वश में रहने वालों के साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे ॥ ६ ॥ जो गृहस्थ नहीं हैं और ब्रह्मचर्यका व्रत लिये हुए हैं, उसे स्त्रियोंकी चर्चासे ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवालोंके मनको भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं ॥ ७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

वृत्तिः सङ्‌करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत् ।
अचौराणां अपापानां अन्त्यजान्तेऽवसायिनाम् ॥ ३० ॥
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे ।
वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत् ॥ ३१ ॥
वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत् ।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात् ॥ ३२ ॥
उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् ।
न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३ ॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।
विरज्येत यथा राजन् अग्निवत् कामबिन्दुभिः ॥ ३४ ॥
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥

युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करतेउन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं ॥ ३० ॥ वेददर्शी ऋषि-मुनियोंने युग-युगमें प्राय: मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥ जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥ ३२ ॥ महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोनेसे खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कुर उगना बंद हो जाता है, यहाँतक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता हैउसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयोंका अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परंतु स्वल्प भोगोंसे ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालनेसे आग नहीं बुझती, परंतु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है ॥ ३३-३४ ॥ जिस पुरुषके वर्णको बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझना चाहिये ॥ ३५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

स्त्रीणां च पतिदेवानां तत् शुश्रूषानुकूलता ।
तद्‍बन्धुष्वनुवृत्तिश्च नित्यं तद्व्रतधारणम् ॥ २५ ॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां गृहमण्डनवर्तनैः ।
स्वयं च मण्डिता नित्यं परिमृष्टपरिच्छदा ॥ २६ ॥
कामैरुच्चावचैः साध्वी प्रश्रयेण दमेन च ।
वाक्यैः सत्यैः प्रियैः प्रेम्णा काले काले भजेत्पतिम् ॥ २७ ॥
सन्तुष्टालोलुपा दक्षा धर्मज्ञा प्रियसत्यवाक् ।
अप्रमत्ता शुचिः स्निग्धा पतिं त्वपतितं भजेत् ॥ २८ ॥
या पतिं हरिभावेन भजेत् श्रीरिव तत्परा ।
हर्यात्मना हरेर्लोके पत्या श्रीरिव मोदते ॥ २९ ॥

पतिकी सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पतिके सम्बन्धियोंको प्रसन्न रखना और सर्वदा पतिके नियमोंकी रक्षा करनाये पतिको ही ईश्वर माननेवाली पतिव्रता स्त्रियोंके धर्म हैं ॥ २५ ॥ साध्वी स्त्रीको चाहिये कि झाडऩे-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदिसे घरको और मनोहर वस्त्राभूषणोंसे अपने शरीरको अलंकृत रखे। सामग्रियोंको साफ-सुथरी रखे ॥ २६ ॥ अपने पतिदेवकी छोटी-बड़ी इच्छाओंको समयके अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनोंसे प्रेमपूर्वक पतिदेवकी सेवा करे ॥ २७ ॥ जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तुके लिये ललचावे नहीं। सभी कार्योंमें चतुर एवं धर्मज्ञ हो। सत्य और प्रिय बोले। अपने कर्तव्यमें सावधान रहे। पवित्रता और प्रेमसे परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे ॥ २८ ॥ जो लक्ष्मीजीके समान पतिपरायणा होकर अपने पतिकी उसे साक्षात् भगवान्‌का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मीजीके समान उनके साथ आनन्दित होती है ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् ।
ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम् ॥ २१ ॥
शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजः त्याग आत्मजयः क्षमा ।
ब्रह्मण्यता प्रसादश्च सत्यं च क्षत्रलक्षणम् ॥ २२ ॥
देवगुर्वच्युते भक्तिः त्रिवर्गपरिपोषणम् ।
आस्तिक्यं उद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥ २३ ॥
शूद्रस्य सन्नतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया ।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्र रक्षणम् ॥ २४ ॥

शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्यये ब्राह्मणके लक्षण हैं ॥ २१ ॥ युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करनाये क्षत्रियके लक्षण हैं ॥ २२ ॥ देवता, गुरु और भगवान्‌ के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और कामइन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणताये वैश्य के लक्षण हैं ॥ २३ ॥ उच्च वर्णों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ-ब्राह्मणोंकी रक्षा करनाये शूद्रके लक्षण हैं ॥ २४ ॥

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गुरुवार, 1 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

संस्कारा यदविच्छिन्नाः स द्विजोऽजो जगाद यम् ।
इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम् ।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥ १३ ॥
विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रहः ।
राज्ञो वृत्तिः प्रजागोप्तुः अविप्राद् वा करादिभिः ॥ १४ ॥
वैश्यस्तु वार्तावृत्तिश्च नित्यं ब्रह्मकुलानुगः ।
शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्च स्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥
वार्ता विचित्रा शालीन यायावरशिलोञ्छनम् ।
विप्रवृत्तिश्चतुर्धेयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥ १६ ॥
जघन्यो नोत्तमां वृत्तिं अनापदि भजेन्नरः ।
ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥ १७ ॥
ऋतां ऋताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।
सत्यानृताभ्यां जीवेत न श्ववृत्त्या कदाचन ॥ १८ ॥
ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तं अमृतं यद् अयाचितम् ।
मृतं तु नित्ययांच्या स्यात् प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९ ॥
सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।
वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २० ॥

धर्मराज ! जिनके वंशमें अखण्डरूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है ॥ १३ ॥ अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ करानाये छ: कर्म ब्राह्मणके हैं। क्षत्रियको दान नहीं लेना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका जीवन-निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है ॥ १४ ॥ वैश्यको सर्वदा ब्राह्मण वंशका अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा। उसकी जीविका का निर्वाह उसका स्वामी करता है ॥ १५ ॥
ब्राह्मणके जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकार के हैं१-वार्ता (यज्ञादि कराकर धन लेना), २-शालीन (बिना मांगे जो कुछ मिल जाए उसीमें निर्वाह करना), ३-यायावर(नित्यप्रति धान्यादि मांग लाना) और ४-शिलोञ्छन [*] । इनमेंसे पीछे-पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ॥ १६ ॥ निम्नवर्ण का पुरुष बिना आपत्तिकाल के उत्तम वर्णकी वृत्तियोंका अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोडक़र ब्राह्मणकी शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है। आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियोंको स्वीकार कर सकते हैं ॥ १७ ॥
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृतइनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परंतु श्वानवृत्ति का अवलम्बन कभी न करे ॥ १८ ॥ बाजारमें पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर शिलोञ्छवृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना ऋतहै। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना अमृतहै। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ययावरवृत्तिके द्वारा जीवन-यापन करना मृतहै। कृषि आदिके द्वारा वार्तावृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना प्रमृतहै ॥ १९ ॥ वाणिज्य सत्यानृतहै और निम्नवर्णकी सेवा करना श्वानवृत्ति है। ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ॥ २० ॥
.............................................................
[*] किसानके खेत काटकर अन्न घरको ले जानेपर पृथ्वीपर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें शिलतथा बाजारमें पड़े हुए अन्नके दानों को उञ्छकहते हैं। उन शिल और उञ्छोंको बीनकर अपना निर्वाह करना शिलोञ्छनवृत्ति है।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

धर्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।
स्मृतं च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ७ ॥
सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः ।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८ ॥
सन्तोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः ।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनं आत्मविमर्शनम् ॥ ९ ॥
अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १० ॥
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः ।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्म समर्पणम् ॥ ११ ॥
नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः ।
त्रिंशत् लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२ ॥

युधिष्ठिर ! सर्ववेदस्वरूप भगवान्‌ श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले महर्षियोंकी स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्मके मूल हैं ॥ ७ ॥
युधिष्ठिर ! धर्मके ये तीस लक्षण शास्त्रोंमें कहे गये हैंसत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियोंका संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओंकी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगोंकी चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्ण प्रयत्नोंका फल उलटा ही होता हैऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियोंको अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्योंमें अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव, संतोंके परम आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला आदिका श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पणयह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम धर्म है। इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं ॥ ८१२ ॥

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बुधवार, 31 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

श्रीशुक उवाच -
श्रुत्वेहितं साधु सभासभाजितं
     महत्तमाग्रण्य उरुक्रमात्मनः ।
युधिष्ठिरो दैत्यपतेर्मुदा युतः
     पप्रच्छ भूयस्तनयं स्वयम्भुवः ॥ १ ॥

युधिष्ठिर उवाच -

भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् ।
वर्णाश्रमाचारयुतं यत् पुमान् विन्दते परम् ॥ २ ॥
भवान् प्रजापतेः साक्षात् आत्मजः परमेष्ठिनः ।
सुतानां सम्मतो ब्रह्मन् तपोयोगसमाधिभिः ॥ ३ ॥
नारायणपरा विप्रा धर्मं गुह्यं परं विदुः ।
करुणाः साधवः शान्ताः त्वद्विधा न तथापरे ॥ ४ ॥

नारद उवाच -
नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्महेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ५ ॥
योऽवतीर्यात्मनोंऽशेन दाक्षायण्यां तु धर्मतः ।
लोकानां स्वस्तयेऽध्यास्ते तपो बदरिकाश्रमे ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवन्मय प्रह्लादजी के साधुसमाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिरको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारदजीसे और भी पूछा ॥ १ ॥
युधिष्ठिरजीने कहाभगवन् ! अब मैं वर्ण और आश्रमोंके सदाचारके साथ मनुष्योंके सनातनधर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्मसे ही मनुष्यको ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परम पुरुष भगवान्‌की प्राप्ति होती है ॥ २ ॥ आप स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीके पुत्र हैं और नारदजी ! आपकी तपस्या, योग एवं समाधिके कारण वे अपने दूसरे पुत्रोंकी अपेक्षा आपका अधिक सम्मान, भी करते हैं ॥ ३ ॥ आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्मके गुप्त-से-गुप्त रहस्यको जैसा यथार्थरूपसे जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते ॥ ४ ॥
नारदजीने कहायुधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान्‌ ही समस्त धर्मोंके मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याणके लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्तिके द्वारा अपने अंशसे अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रममें तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान्‌को नमस्कार करके उन्हींके मुखसे सुने हुए सनातनधर्मका मैं वर्णन करता हूँ ॥ ५-६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

विलोक्य भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्
तदायं भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत् ॥ ६१ ॥
वत्सश्चासीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः
प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ ॥ ६२ ॥
तेऽसुरा ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिताः
तद्विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ ॥ ६३ ॥
स्मयन्विशोकः शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च ताम्
देवोऽसुरो नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन ॥ ६४ ॥
आत्मनोऽन्यस्य वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः
अथासौ शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधानिकं व्यधात् ॥ ६५ ॥
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धि तपोविद्याक्रियादिभिः
रथं सूतं ध्वजं वाहान्धनुर्वर्मशरादि यत् ॥ ६६ ॥
सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे
शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः ॥ ६७ ॥
ददाह तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः ॥ ६८ ॥
देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः
अवाकिरन्जगुर्हृष्टा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ६९ ॥
एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान्पुरहा नृप
ब्रह्मादिभिः स्तूयमानः स्वं धाम प्रत्यपद्यत ॥ ७० ॥
एवं विधान्यस्य हरेः स्वमायया
विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः
वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरो-
र्लोकं पुनानान्यपरं वदामि किम् ॥ ७१ ॥

इन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्होंने एक युक्ति की ॥ ६१ ॥ यही भगवान्‌ विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्न के समय उन तीनों पुरोंमें गये और उस सिद्धरसके कुएँका सारा अमृत पी गये ॥ ६२ ॥ यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी भगवान्‌की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्‌की इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत रक्षकोंसे उसने कहा—‘भाई ! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनोंके लिये जो प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है ?’ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी शक्तियोंके द्वारा भगवान्‌ शङ्करके युद्धकी सामग्री तैयार की ॥ ६३६५ ॥ उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया ॥ ६६ ॥ इन सामग्रियोंसे सज-धजकर भगवान्‌ शङ्कर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान्‌ शङ्करने अभिजित् मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया। युधिष्ठिर ! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैंकड़ों विमानोंकी भीड़ लग गयी ॥ ६७-६८ ॥ देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्दसे जय-जयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं ॥ ६९ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान्‌ शङ्करने पुरारिकी पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये ॥ ७० ॥ आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ॥ ७१ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे त्रिपुरविजये नाम दशमोऽध्यायः

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...