शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

विकल्पं जुहुयाच्चित्तौ तां मनस्यर्थविभ्रमे
मनो वैकारिके हुत्वा तं मायायां जुहोत्यनु ॥ ४३ ॥
आत्मानुभूतौ तां मायां जुहुयात्सत्यदृङ्मुनिः
ततो निरीहो विरमेत्स्वानुभूत्यात्मनि स्थितः ॥ ४४ ॥
स्वात्मवृत्तं मयेत्थं ते सुगुप्तमपि वर्णितम्
व्यपेतं लोकशास्त्राभ्यां भवान्हि भगवत्परः ॥ ४५ ॥

श्रीनारद उवाच

धर्मं पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वासुरेश्वरः
पूजयित्वा ततः प्रीत आमन्त्र्य प्रययौ गृहम् ॥ ४६ ॥

सत्यका अनुसन्धान करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि जो नाना प्रकारके पदार्थ और उनके भेद- विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्तिमें हवन कर दे। चित्तवृत्तिको इन पदार्थोंके सम्बन्धमें विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मनमें, मनको सात्त्विक अहंकारमें और सात्त्विक अहंकारको महत्तत्त्व के द्वारा मायामें हवन कर दे। इस प्रकार ये सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ॥ ४३-४४ ॥ प्रह्लादजी ! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्रसे परे की वस्तु है। तुम भगवान्‌के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है ॥ ४५ ॥
नारदजी कहते हैंमहाराज ! प्रह्लादजीने दत्तात्रेय मुनिसे परमहंसोंके इस धर्मका श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे यतिधर्मे त्रयोदशोऽध्यायः

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गुरुवार, 8 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

मधुकारमहासर्पौ लोकेऽस्मिन्नो गुरूत्तमौ
वैराग्यं परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्षया वयम् ॥ ३४ ॥
विरागः सर्वकामेभ्यः शिक्षितो मे मधुव्रतात्
कृच्छ्राप्तं मधुवद्वित्तं हत्वाप्यन्यो हरेत्पतिम् ॥ ३५ ॥
अनीहः परितुष्टात्मा यदृच्छोपनतादहम्
नो चेच्छये बह्वहानि महाहिरिव सत्त्ववान् ॥ ३६ ॥
क्वचिदल्पं क्वचिद्भूरि भुञ्जेऽन्नं स्वाद्वस्वादु वा
क्वचिद्भूरि गुणोपेतं गुणहीनमुत क्वचित् ॥ ३७ ॥
श्रद्धयोपहृतं क्वापि कदाचिन्मानवर्जितम्
भुञ्जे भुक्त्वाथ कस्मिंश्चिद्दिवा नक्तं यदृच्छया ॥ ३८ ॥
क्षौमं दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा
वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक्तुष्टधीरहम् ॥ ३९ ॥
क्वचिच्छये धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु
क्वचित्प्रासादपर्यङ्के कशिपौ वा परेच्छया ॥ ४० ॥
क्वचित्स्नातोऽनुलिप्ताङ्गः सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः
रथेभाश्वैश्चरे क्वापि दिग्वासा ग्रहवद्विभो ॥ ४१ ॥
नाहं निन्दे न च स्तौमि स्वभावविषमं जनम्
एतेषां श्रेय आशासे उतैकात्म्यं महात्मनि ॥ ४२ ॥

(दत्तात्रेयजी कह रहे हैं) इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैंअजगर और मधुमक्खी। उनकी शिक्षासे हमें वैराग्य और सन्तोष की प्राप्ति हुई है ॥ ३४ ॥ मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्टसे धन-सञ्चय करते हैं; परंतु दूसरा ही कोई उस धन-राशिके स्वामीको मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगोंसे विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३५ ॥ मैं अजगरके समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसीमें सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनोंतक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ ॥ ३६ ॥ कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरसबेस्वाद; और कभी अनेकों गुणोंसे युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन ॥ ३७ ॥ कभी बड़ी श्रद्धासे प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमानके साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जानेपर कभी दिनमें, कभी रातमें और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ ॥ ३८ ॥ मैं अपने प्रारब्धके भोगमें ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछजैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ ॥ ३९ ॥ कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राखके ढेर पर ही पड़ रहता हूँ, तो कभी दूसरोंकी इच्छासे महलोंमें पलँगों और गद्दोंपर सो लेता हूँ ॥ ४० ॥ दैत्यराज ! कभी नहा-धोकर, शरीरमें चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलोंके हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़ेपर चढक़र चलता हूँ, तो कभी पिशाचके समान बिलकुल नंग-धड़ंग विचरता हूँ ॥ ४१ ॥ मनुष्योंके स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अत: न तो मैं किसीकी निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मासे एकता चाहता हूँ ॥ ४२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

सुखमस्यात्मनो रूपं सर्वेहोपरतिस्तनुः
मनःसंस्पर्शजान्दृष्ट्वा भोगान्स्वप्स्यामि संविशन् ॥ २६ ॥
इत्येतदात्मनः स्वार्थं सन्तं विस्मृत्य वै पुमान्
विचित्रामसति द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम् ॥ २७ ॥
जलं तदुद्भवैश्छन्नं हित्वाज्ञो जलकाम्यया
मृगतृष्णामुपाधावेत्तथान्यत्रार्थदृक्स्वतः ॥ २८ ॥
देहादिभिर्दैवतन्त्रैरात्मनः सुखमीहतः
दुःखात्ययं चानीशस्य क्रिया मोघाः कृताः कृताः ॥ २९ ॥
आध्यात्मिकादिभिर्दुःखैरविमुक्तस्य कर्हिचित्
मर्त्यस्य कृच्छ्रोपनतैरर्थैः कामैः क्रियेत किम् ॥ ३० ॥
पश्यामि धनिनां क्लेशं लुब्धानामजितात्मनाम्
भयादलब्धनिद्रा णां सर्वतोऽभिविशङ्किनाम् ॥ ३१ ॥
राजतश्चौरतः शत्रोः स्वजनात्पशुपक्षितः
अर्थिभ्यः कालतः स्वस्मान्नित्यं प्राणार्थवद्भयम् ॥ ३२ ॥
शोकमोहभयक्रोध रागक्लैब्यश्रमादयः
यन्मूलाः स्युर्नृणां जह्यात्स्पृहां प्राणार्थयोर्बुधः ॥ ३३ ॥

सुख ही आत्माका स्वरूप है। समस्त चेष्टाओंकी निवृत्ति ही उसका शरीरउसके प्रकाशित होनेका स्थान है। इसलिये समस्त भोगोंको मनोराज्यमात्र समझकर मैं अपने प्रारब्धको भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ ॥ २६ ॥ मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुखको, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैतको सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयङ्कर और विचित्र जन्मों और मृत्युओंमें भटकता रहता है ॥ २७ ॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जलमें उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जलके लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझनेवाला पुरुष आत्मा को छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है ॥ २८ ॥ प्रह्लादजी ! शरीर आदि तो प्रारब्धके अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दु:ख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्यमें सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दु:खोंसे आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्टसे कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है ? ॥ ३० ॥ लोभी और इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले धनियोंका दु:ख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भयके मारे उन्हें नींद नहीं आती। सबपर उनका सन्देह बना रहता है ॥ ३१ ॥ जो जीवन और धनके लोभी हैंवे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और कालसे, यहाँतक कि कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ’—इस आशङ्का से अपने-आपसे भी सदा डरते रहते हैं ॥ ३२ ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदिका शिकार होना पड़ता हैउस धन और जीवनकी स्पृहा का त्याग कर दे ॥ ३३ ॥

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बुधवार, 7 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

तृष्णया भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूर्यया
कर्माणि कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३ ॥
यदृच्छया लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन्
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४ ॥
तत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये
कर्माणि कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५ ॥

(दत्तात्रेयजी कह रहे हैं) प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियोंमें मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मोंके कारण अनेकों योनियोंमें भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेहकी भी प्राप्तिका द्वार हैइसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदिकी योनि, निवृत्त हो जायँ तो मोक्ष और दोनों प्रकारके कर्म किये जायँ तो फिर मनुष्य-योनिकी ही प्राप्ति हो सकती है ॥ २४ ॥ परंतु मैं देखता हूँ कि संसारके स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही हैवे और भी दु:खमें पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मोंसे उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

श्रीनारद उवाच

स इत्थं दैत्यपतिना परिपृष्टो महामुनिः
स्मयमानस्तमभ्याह तद्वागमृतयन्त्रितः ॥ १९ ॥

श्रीब्राह्मण उवाच

वेदेदमसुरश्रेष्ठ भवान्नन्वार्यसम्मतः
ईहोपरमयोर्नॄणां पदान्यध्यात्मचक्षुषा ॥ २० ॥
यस्य नारायणो देवो भगवान्हृद्गतः सदा
भक्त्या केवलयाज्ञानं धुनोति ध्वान्तमर्कवत् ॥ २१ ॥
तथापि ब्रूमहे प्रश्नांस्तव राजन्यथाश्रुतम्
सम्भाषणीयो हि भवानात्मनः शुद्धिमिच्छता ॥ २२ ॥


नारदजी कहते हैं—धर्मराज ! जब प्रह्लादजीने महामुनि दत्तात्रेयजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणीके वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले ॥ १९ ॥
दत्तात्रेयजीने कहा—दैत्यराज ! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्योंको कर्मोंकी प्रवृत्ति और उनकी निवृत्तिका क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टिसे जानते ही हो ॥ २० ॥ तुम्हारी अनन्य भक्तिके कारण देवाधिदेव भगवान्‌ नारायण सदा तुम्हारे हृदयमें विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञानको नष्ट करते रहते हैं ॥ २१ ॥ तो भी प्रह्लाद ! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये ॥ २२ ॥

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मंगलवार, 6 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
प्रह्रादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ ११ ॥
तं शयानं धरोपस्थे कावेर्यां सह्यसानुनि
रजस्वलैस्तनूदेशैर्निगूढामलतेजसम् ॥ १२ ॥
ददर्श लोकान्विचरन्लोकतत्त्वविवित्सया
वृतोऽमात्यैः कतिपयैः प्रह्रादो भगवत्प्रियः ॥ १३ ॥
कर्मणाकृतिभिर्वाचा लिङ्गैर्वर्णाश्रमादिभिः
न विदन्ति जना यं वै सोऽसाविति न वेति च ॥ १४ ॥
तं नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयोः शिरसा स्पृशन्
विवित्सुरिदमप्राक्षीन्महाभागवतोऽसुरः ॥ १५ ॥
बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यमो भोगवान्यथा
वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह
भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ॥ १६ ॥
न ते शयानस्य निरुद्यमस्य ब्रह्मन्नु हार्थो यत एव भोगः
अभोगिनोऽयं तव विप्र देहः पीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत् ॥ १७ ॥
कविः कल्पो निपुणदृक्चित्रप्रियकथः समः
लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥ १८ ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद ॥ ११ ॥ एक बार भगवान्‌ के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदयकी बात जाननेकी इच्छासे लोकोंमें विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वतकी तलहटीमें कावेरी नदीके तटपर पृथ्वीपर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीरकी निर्मल ज्योति अङ्गोंके धूलि-धूसरित होनेके कारण ढकी हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदिके चिह्नोंसे लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ १४ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजीने अपने सिरसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जाननेकी इच्छासे यह प्रश्र किया ॥ १५ ॥ भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषोंके समान हृष्ट-पुष्ट है। संसारका यह नियम है कि उद्योग करनेवालोंको धन मिलता है, धनवालोंको ही भोग प्राप्त होता है और भोगियोंका ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं। इसलिये आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँसे प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता ! बिना भोगके ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुननेयोग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ १७ ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्थामें आप सारे संसारको कर्म करते हुए देखकर भी समभावसे पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है ?’ ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

श्रीनारद उवाच
कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः
ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १ ॥
बिभृयाद्यद्यसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम्
त्यक्तं न लिङ्गाद्दण्डादेरन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ २ ॥
एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः
सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ॥ ३ ॥
पश्येदात्मन्यदो विश्वं परे सदसतोऽव्यये
आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥ ४ ॥
सुप्तिप्रबोधयोः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक्
पश्यन्बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ॥ ५ ॥
नाभिनन्देद्ध्रुवं मृत्युमध्रुवं वास्य जीवितम्
कालं परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ६ ॥
नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम्
वादवादांस्त्यजेत्तर्कान्पक्षं कंच न संश्रयेत् ॥ ७ ॥
न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद्बहून्
न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ ८ ॥
न यतेराश्रमः प्रायो धर्महेतुर्महात्मनः
शान्तस्य समचित्तस्य बिभृयादुत वा त्यजेत् ॥ ९ ॥
अव्यक्तलिङ्गो व्यक्तार्थो मनीष्युन्मत्तबालवत्
कविर्मूकवदात्मानं स दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ १० ॥

नारदजी कहते हैंधर्मराज ! यदि वानप्रस्थीमें ब्रह्मविचारका सामर्थ्य हो, तो शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोडक़र वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँवमें एक ही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वीपर विचरण करे ॥ १ ॥ यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायँ। और जबतक कोई आपत्ति न आवे, तबतक दण्ड तथा अपने आश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तुको ग्रहण न करे ॥ २ ॥ संन्यासीको चाहिये कि वह समस्त प्राणियोंका हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसीका आश्रय न लेकर अपने-आपमें ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ ३ ॥ इस सम्पूर्ण विश्वको कार्य और कारणसे अतीत परमात्मामें अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में  ब्रह्मस्वरूप अपने आत्माको परिपूर्ण देखे ॥ ४ ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरणकी सन्धिमें अपने स्वरूपका अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया हैं, वस्तुत: कुछ नहींऐसा समझे ॥ ५ ॥ न तो शरीरकी अवश्य होनेवाली मृत्युका अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवनका। केवल समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और नाशके कारण कालकी प्रतीक्षा करता रहे ॥ ६ ॥ असत्यअनात्मवस्तुका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंसे प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाहके लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवादके लिये कोई तर्क न करे और संसारमें किसीका पक्ष न ले ॥ ७ ॥ शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थोंका अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामोंका आरम्भ न करे ॥ ८ ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासीके लिये किसी आश्रमका बन्धन धर्मका कारण नहीं है। वह अपने आश्रमके चिह्नोंको धारण करे, चाहे छोड़ दे ॥ ९ ॥ उसके पास कोई आश्रमका चिह्न न हो, परंतु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परंतु जान पड़े पागल और बालककी तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होनेपर भी साधारण मनुष्योंकी दृष्टिसे ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है ॥ १० ॥

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सोमवार, 5 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा ।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम् ॥ २३ ॥
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य सन्न्यस्याहं ममात्मताम् ।
कारणेषु न्यसेत् सम्यक् संघातं तु यथार्हतः ॥ २४ ॥
खे खानि वायौ निश्वासान् तजःसूष्माणमात्मवान् ।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद्‍भवम् ॥ २५ ॥
वाचमग्नौ सवक्तव्यां इन्द्रे शिल्पं करावपि ।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ ॥ २६ ॥
मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत् ।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शेनाध्यात्मनि त्वचम् ॥ २७ ॥
रूपाणि चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत् ।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत् ॥ २८ ॥
मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे ।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहं ममताक्रिया ।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे ॥ २९ ॥
अप्सु क्षितिमपो ज्योतिषि अदो वायौ नभस्यमुम् ।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत् ॥ ३० ॥
इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम् ।
ज्ञात्वाद्वयोऽथ विरमेद् दग्धयोनिरिवानलः ॥ ३१ ॥

वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त- विचार करने की भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये ॥ २३ ॥ अनशन के पूर्व ही वह अपने आहवनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। मैंपनऔर मेरेपनका त्याग करके शरीरको उसके कारण भूत तत्त्वों में यथायोग्य भलीभाँति लीन करे ॥ २४ ॥ जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीरके छिद्राकाशोंको आकाशमें, प्राणोंको वायुमें, गरमीको अग्रिमें, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वोंको जलमें और हड्डी आदि ठोस वस्तुओंको पृथ्वीमें लीन करे ॥ २५ ॥ इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषणको उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्रिमें, हाथ और उसके द्वारा होनेवाले कला-कौशलको इन्द्रमें, चरण और उसकी गतिको कालस्वरूप विष्णुमें, रति और उपस्थको प्रजापतिमें एवं पायु और मलोत्सर्गको उनके आश्रयके अनुसार मृत्युमें लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा सुने जानेवाले शब्दको दिशाओंमें, स्पर्श और त्वचाको वायुमें, नेत्रसहित रूपको ज्योतिमें, मधुर आदि रसके सहित[*] रसनेन्द्रियको जलमें और युधिष्ठिर ! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जानेवाले गन्धको पृथ्वीमें लीन कर दे ॥ २६२८ ॥ मनोरथोंके साथ मनको चन्द्रमामें, समझमें आनेवाले पदार्थोंके सहित बुद्धिको ब्रह्मामें तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करनेवाले अहंकारको उसके कर्मोंके साथ रुद्रमें लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्तको क्षेत्रज्ञ (जीव)में और गुणोंके कारण विकारी-से प्रतीत होनेवाले जीवको परब्रह्ममें लीन कर दे ॥ २९ ॥ साथ ही पृथ्वीका जलमें, जलका अग्रिमें, अग्रिका वायुमें, वायुका आकाशमें, आकाशका अहंकारमें, अहंकारका महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वका अव्यक्तमें और अव्यक्तका अविनाशी परमात्मामें लय कर दे ॥ ३० ॥ इस प्रकार अविनाशी परमात्माके रूपमें अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँयह जानकर अद्वितीय भावमें स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय काष्ठादि के भस्म हो जानेपर अग्रि शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाय ॥ ३१ ॥
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[*] यहाँ मूलमें प्रचेतसापद है, जिसका अर्थ वरुणके सहितहोता है। वरुण रसनेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं। श्रीधरस्वामीने भी इसी मतको स्वीकार किया है। परंतु इस प्रसङ्गमें सर्वत्र इन्द्रिय और उसके विषयका अधिष्ठातृदेवमें लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रियके लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीके मतानुसार प्रचेतसापदका (प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो मधुरादिरसस्तेन’—जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस प्रचेतस्है, उसके सहित) इस विग्रहके अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही युक्तियुक्त मालूम होता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

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