बुधवार, 18 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

मथ्यमानात्ता सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम् ॥ १६
मेघश्यामः कनकपरिधिः कर्णविद्योतविद्युन्
मूर्ध्नि भ्राजद्विलुलितकचः स्रग्धरो रक्तनेत्रः
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदैर्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन्मथ्ना प्रतिगिरिरिवाशोभताथोद्धृताद्रिः ॥ १७

इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्र-मन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान्‌ समुद्र-मन्थन करने लगे ॥ १६ ॥ मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानों में बिजली के समान चमकते हुए कुण्डल, सिर पर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रों में लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डों से वासुकिनाग को पकडक़र तथा कूर्मरूप से पर्वत को धारणकर जब भगवान्‌ मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ॥ १७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 17 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्र मुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः ॥ १२
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥ १३
अहीन्द्र साहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दवाग्निदग्धाः सरला इवाभवन् ॥ १४
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्-
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्
समभ्यवर्षन्भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः ॥ १५

इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान्‌ अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूपमें, पर्वत में दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनाग में निद्रा के रूपमेंजिससे उसे कष्ट न होप्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये ॥ १३ ॥ नागराज वासुकिके हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूएँसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखूके पेड़ खड़े हों ॥ १४ ॥ देवता भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्‌की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरङ्गोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका सञ्चार करने लगी ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः
समुद्यता निर्मथितुं सुरासुराः
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन-
प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान् ॥ ९ ॥
सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं
परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः
बिभ्रत्तदावर्तनमादिकच्छपो
मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः ॥ १० ॥
तथासुरानाविशदासुरेण
रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन्
उद्दीपयन्देवगणांश्च विष्णु-
र्दैवेन नागेन्द्रमबोधरूपः ॥ ११ ॥

देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र- मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्‌ ने जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचल को धारण कर रखा था ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! जब बड़े-बड़े देवता और असुरों ने अपने बाहुबल से मन्दराचल को प्रेरित किया, तब वह भगवान्‌ की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्‌ को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ॥ १० ॥ साथ ही समुद्र-मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान्‌ ने असुरों में उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओंको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे ॥ ११ ॥

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सोमवार, 16 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रि रनाधारो ह्यपोऽविशत्
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात्पाण्डुनन्दन ॥ ६ ॥
ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः
आसन्स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा ॥ ७ ॥
विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो
दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः
कृत्वा वपुः कच्छपमद्भुतं महत्
प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा ॥ ६ ॥ इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैवके द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टीमें मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी ॥ ७ ॥ उस समय भगवान्‌ ने देखा कि यह तो विघ्रराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवान्‌की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसङ्कल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्
परिवीय गिरौ तस्मिन्नेत्रमब्धिं मुदान्विताः ॥ १
आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थं कुरूद्वह
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन् ॥ २
तन्नैच्छन्दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम् ॥ ३
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः
इति तूष्णीं स्थितान्दैत्यान्विलोक्य पुरुषोत्तमः
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः ॥ ४
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः
ममन्थुः परमं यत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम् ॥ ५

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृत के लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान्‌ वासुकि के मुख की ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ॥ १-२ ॥ परंतु भगवान्‌ की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि पूँछ तो साँपका अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ॥ ३ ॥ हमने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बातमें कम हैं ?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान्‌ ने मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ॥ ४ ॥ इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्रमन्थन करने लगे ॥ ५ ॥

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रविवार, 15 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट१०)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट१०)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

ततस्ते मन्दरगिरिं ओजसोत्पाट्य दुर्मदाः ।
नदन्त उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः ॥ ३३ ॥
दूरभारोद्वहश्रान्ताः शक्रवैरोचनादयः ।
अपारयन्तस्तं वोढुं विवशा विजहुः पथि ॥ ३४ ॥
निपतन्स गिरिस्तत्र बहून् अमरदानवान् ।
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः ॥ ३५ ॥
तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान् ।
विज्ञाय भगवान् तत्र बभूव गरुडध्वजः ॥ ३६ ॥
गिरिपातविनिष्पिष्टान् विलोक्यामरदानवान् ।
ईक्षया जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान्यथा ॥ ३७ ॥
गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया ।
आरुह्य प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः ॥ ३८ ॥
अवरोप्य गिरिं स्कन्धात् सुपर्णः पततां वरः ।
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः ॥ ३९ ॥

इसके बाद उन्होंने अपनी शक्तिसे मन्दराचलको उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतटकी ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघके समान थीं, शरीरमें शक्ति थी और अपने-अपने बलका घमंड तो था ही ॥ ३३ ॥ परंतु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्तेमें ही पटक दिया ॥ ३४ ॥ वह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला ॥ ३५ ॥
उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान्‌ सहसा वहीं प्रकट हो गये ॥ ३६ ॥ उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अत: उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की ॥ ३८ ॥ पक्षिराज गरुडऩे समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान्‌ के विदा करनेपर गरुडज़ी वहाँसे चले गये ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मंदराचल आनयनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच -

इति देवान् समादिश्य भगवान् पुरुषोत्तमः ।
तेषामन्तर्दधे राजन् स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २६ ॥
अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः ।
भवश्च जग्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुराः ॥ २७ ॥
दृष्ट्वा अरीनप्यसंयत्तान् जातक्षोभान् स्वनायकान् ।
न्यषेधद् दैत्यराट् श्लोक्यः सन्धिविग्रहकालवित् ॥ २८ ॥
ते वैरोचनिमासीनं गुप्तं चासुरयूथपैः ।
श्रिया परमया जुष्टं जिताशेषमुपागमन् ॥ २९ ॥
महेन्द्रः श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामतिः ।
अभ्यभाषत तत्सर्वं शिक्षितं पुरुषोत्तमात् ॥ ३० ॥
तदरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपाः ।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिनः ॥ ३१ ॥
ततो देवासुराः कृत्वा संविदं कृतसौहृदाः ।
उद्यमं परमं चक्रुः अमृतार्थे परंतप ॥ ३२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवताओंको यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान्‌ उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे ॥ २६ ॥ उनके चले जानेपर ब्रह्मा और शङ्करने फिरसे भगवान्‌ को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकोंको चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास गये ॥ २७ ॥ देवताओंको बिना अस्त्र-शस्त्रके सामने आते देख दैत्यसेनापतियों के मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओंको पकड़ लेना चाहा। परंतु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोधके अवसरको जाननेवाले एवं पवित्र कीर्तिसे सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्योंको वैसा करनेसे रोक दिया ॥ २८ ॥ इसके बाद देवतालोग बलिके पास पहुँचे। बलिने तीनों लोकोंको जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियोंसे सेवित एवं असुर-सेनापतियोंसे सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासनपर बैठे हुए थे ॥ २९ ॥ बुद्धिमान् इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीसे समझाते हुए राजा बलिसे वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान्‌ने उन्हें दी थी ॥ ३० ॥ वह बात दैत्यराज बलिको जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरोंको भी यह बात बहुत अच्छी लगी ॥ ३१ ॥ तब देवता और असुरोंने आपसमें सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित्‌ ! वे सब मिलकर अमृत मन्थनके लिये पूर्ण उद्योग करने लगे ॥ ३२ ॥

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शनिवार, 14 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

यूयं तदनुमोदध्वं यदिच्छन्ति असुराः सुराः ।
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वार्थाः सान्त्वया यथा ॥ २४ ॥
न भेतव्यं कालकूटाद् विषात् जलधिसम्भवात् ।
लोभः कार्यो न वो जातु रोषः कामस्तु वस्तुषु ॥ २५ ॥

(श्रीभगवान्‌ कह  रहे हैं) देवताओ ! असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता ॥ २४ ॥ पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परंतु यदि कामना हो और वह पूरी न हो , तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति अहो ...