सोमवार, 23 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

ततश्चाविरभूत्साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥ ८ ॥
तस्यां चक्रुः स्पृहां सर्वे ससुरासुरमानवाः
रूपौदार्यवयोवर्ण महिमाक्षिप्तचेतसः ॥
तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम्
मूर्तिमत्यः सरिच्छ्रेष्ठा हेमकुम्भैर्जलं शुचि ॥ १०
आभिषेचनिका भूमिराहरत्सकलौषधीः
गावः पञ्च पवित्राणि वसन्तो मधुमाधवौ ॥ ११
ऋषयः कल्पयां चक्रुराभिषेकं यथाविधि
जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्च ननृतुर्जगुः ॥ १२
मेघा मृदङ्गपणव मुरजानकगोमुखान्
व्यनादयन्शङ्खवेणु वीणास्तुमुलनिःस्वनान् ॥ १३
ततोऽभिषिषिचुर्देवीं श्रियं पद्मकरां सतीम्
दिगिभाः पूर्णकलशैः सूक्तवाक्यैर्द्विजेरितैः ॥ १४
समुद्रः पीतकौशेय वाससी समुपाहरत्
वरुणः स्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तषट्पदाम् ॥ १५
भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापतिः
हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले ॥ १६

इसके बाद शोभाकी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुर्ईं। वे भगवान्‌ की नित्यशक्ति हैं। उनकी बिजलीके समान चमकीली छटासे दिशाएँ जगमगा उठीं ॥ ८ ॥ उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमासे सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्यसभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायँ ॥ ९ ॥ स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठनेके लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियोंने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेकके लिये सोनेके घड़ोंमें भर-भरकर पवित्र जल ला दिया ॥ १० ॥ पृथ्वीने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओंने पञ्चगव्य और वसन्त ऋतुने चैत्र-वैशाखमें होनेवाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये ॥ ११ ॥ इन सामग्रियोंसे ऋषियोंने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया। गन्धर्वोंने मङ्गलमय संगीतकी तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गाने लगीं ॥ १२ ॥ बादल सदेह होकर मृदङ्ग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शङ्ख, वेणु और वीणा बड़े जोरसे बजाने लगे ॥ १३ ॥ तब भगवती लक्ष्मीदेवी हाथमें कमल लेकर सिंहासनपर विराजमान हो गयीं। दिग्गजोंने जलसे भरे कलशोंसे उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेदमन्त्रोंका पाठ कर रहे थे ॥ १४ ॥ समुद्रने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहननेके लिये दिये। वरुणने ऐसी वैजयन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्धसे भौरे मतवाले हो रहे थे ॥ १५ ॥ प्रजापति विश्वकर्मा ने भाँति-भाँतिके गहने, सरस्वती ने मोतियोंका हार, ब्रह्माजी ने कमल और नागों ने दो कुण्डल समर्पित किये ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

श्रीशुक उवाच
पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः
ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोऽभवत् ॥ १ ॥
तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्मवादिनः
यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप ॥ २ ॥
तत उच्चैःश्रवा नाम हयोऽभूच्चन्द्र पाण्डुरः
तस्मिन्बलिः स्पृहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया ॥ ३
तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः
दन्तैश्चतुर्भिः श्वेताद्रे र्हरन्भगवतो महिम् ॥ ४
कौस्तुभाख्यमभूद्र त्नं पद्मरागो महोदधेः
तस्मिन्हरिः  स्पृहां चक्रे वक्षोऽलङ्करणे मणौ
ततोऽभवत्पारिजातः सुरलोकविभूषणम्
पूरयत्यर्थिनो योऽर्थैः शश्वद्भुवि यथा भवान् ॥
ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः
रमण्यः स्वर्गिणां वल्गु गतिलीलावलोकनैः ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस प्रकार जब भगवान्‌ शङ्कर ने विष पी लिया, तब देवता और असुरोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साहसे समुद्र मथने लगे। तब समुद्रसे कामधेनु प्रकट हुई ॥ १ ॥ वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करनेवाली थी। इसलिये ब्रह्मलोकतक पहुँचानेवाले यज्ञके लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मवादी ऋषियोंने उसे ग्रहण किया ॥ २ ॥ उसके बाद उच्चै:श्रवा नामका घोड़ा निकला। वह चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका था। बलिने उसे लेनेकी इच्छा प्रकट की। इन्द्रने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान्‌ने उन्हें पहलेसे ही सिखा रखा था ॥ ३ ॥ तदनन्तर ऐरावत नामका श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वलवर्ण कैलासकी शोभाको भी मात करते थे ॥ ४ ॥ तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्रसे निकली। उस मणिको अपने हृदयपर धारण करनेके लिये अजित भगवान्‌ने लेना चाहा ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसके बाद स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकोंकी इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वीपर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो ॥ ६ ॥ तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुर्ईं। वे सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित एवं गलेमें स्वर्ण-हार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवनसे देवताओंको सुख पहुँचानेवाली हुर्ईं ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




रविवार, 22 सितंबर 2019

रामकथा कलि-पन्नग भरनी। पुनि बिबेक-पावक कहुँ अरनी



रामकथा कलि-पन्नग भरनी। पुनि बिबेक-पावक कहुँ अरनी
.................(मानस 1-31-6)

(रामकथा कलिरूपी साँपके लिये भरणी (के समान) है और विवेकरूपी अग्निको (उत्पन्न करनेको) अरणी है)

व्याख्या-
शब्दार्थ-पन्नग-सर्प, साँप। 'भरनी'-भरणीके अनेक अर्थ किये गये हैं-()व्रजदेशमें एक सर्पनाशक जीवविशेष होता है जो मूसेका-सा होता है। यह पक्षी सर्पको देखकर सिकुड़कर बैठ जाता है। साँप उसे मेढक (दादुर) जानकर निगल जाता है तब वह अपनी काँटेदार देहको फैला देता है जिससे सर्पका पेट फट जाता है और साँप मर जाता है। यथा-'तुलसी छमा गरीब की पर घर घालनिहारि।ज्यों पन्नग भरनी ग्रसेउ निकसत उदर बिदारि॥ तलसी गई गरीब की दई ताहि पर डारि। ज्यों पन्नग भरनी भषे निकरै उदर बिदारि॥"
() 'भरनी' नक्षत्र भी होता है जिसमें जलकी वर्षासे सर्पका नाश होता है-'अश्विनी अश्वनाशाय भरणी सर्पनाशिनी। कृत्तिका षड्विनाशाय यदि वर्षति रोहिणी॥'
() भरणीको मेदिनीकोश में 'मयूरनी' भी लिखा है- 'भरणी मयूरपत्नी स्याद् वरटा हंसयोषिति' इति मेदिनी।
() गारुडी मन्त्रको भी भरणी कहते हैं। जिससे सर्पके काटनेपर झाड़ते हैं तो साँपका विष उतर जाता है। () 'वह मन्त्र जिसे सुनकर सर्प हटे तो बचे नहीं और न हटे तो जल-भुन जावे।' यथा'कीलो सर्पा तेरे बामी' इत्यादि। (मानसतत्त्वविवरण) बाबा हरीदासजी कहते हैं कि झाड़नेका मन्त्र पढ़कर कानमें 'भरणी' शब्द कहकर फूंक डालते हैं और पाँडेजी कहते हैं कि भरणी झाड़नेका मन्त्र है।
() राजपूतानेकी और सर्पविष झाड़नेके लिये भरणीगान प्रसिद्ध है। फूलकी थालीपर सरफुलईसे तरह-तरहकी गति बजाकर यह गान गाया जाता है। (सुधाकर द्विवेदीजी) अरनी-एक काठका बना हुआ यन्त्र जो यज्ञों में आग निकालने के काम आता है। 

नोट- () भरणीका अर्थ जब 'भरणी पक्षी' या 'गारुडी मन्त्र' लेंगे तब यह भाव निकलता है कि कलिसे ग्रसित हो जानेपर भी कलिका नाश करके जीवको उससे सदाके लिये बचा देती है। कलि का कुछ भी प्रभाव सुनने-पढ़नेवाले पर नहीं पड़ता। पुनः ()-'कलि कलुष विभंजनि' कहकर 'कलि पन्नग भरनी' कहनेका भाव यह है कि कथाके आश्रित श्रोता-वक्ताओंके पापोंका नाश करती है और यदि कलि इस वैरसे स्वयं कथाका ही नाश किया चाहे तो कथा उसका भी नाश करनेको समर्थ है। अन्य सब ग्रन्थ मेंढकके समान हैं जिनको खा-खाकर वह परक गया है। यथा-'कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।' (७। ९७) पर यहाँ वह बात नहीं है। क्योंकि श्रीरामकथा 'भरणी पक्षी' के समान है जिसको खाकर वह पचा नहीं सकता। इस तरह कथाको अपना रक्षक भी जनाया। [ कलिके नाशका भाव यह है कि कलिके धर्मका नाश करती है, कलियुग तो बना ही रहता है पर उसके धर्म नहीं व्यापते। (पं० रा० कु०)] (ग) उसका अर्थ 'भरणी नक्षत्र' या 'मयूरनी' करें तो यह भाव निकलता है कि कलिको पाते ही वह उसका नाश कर देती है। उसको डसनेका अवसर ही नहीं देती। ऐसी यह रामकथा है। यह भी जनाया कि कलिसे श्रीरामकथाका स्वाभाविक वैर है, वह सदा उसके नाशमें तत्पर रहती है चाहे वह कुछ भी बाधा करे या न करे। वह कामादि विकारोंको नष्ट ही करती है, रहने नहीं देती। () इस तरह 'भरणी' शब्द देकर सूचित किया है कि श्रीराम-कथा दोनोंका कल्याण करती है-जिन्हें कलिने ग्रास कर लिया है और जिनको अभी कलि नहीं व्यापा है उनकी भी रक्षा करती है। 

'अरनी' के दो भाग होते हैं, अरणि वा अधरारणि और उत्तरारणि। यह शमीगर्भ अश्वत्थसे बनाया जाता है। अधरारणि नीचे होती है और उसमें एक छेद होता है। इस छेदपर उत्तरारणि खड़ी करके रस्सीसे मथानीके समान मथी जाती है। छेदके नीचे कुश वा कपास रख देते हैं जिसमें आग लग जाती है। इसके मथनेके समय वैदिक मन्त्र पढ़ते हैं और ऋत्विक लोग ही इसके मथने आदिके कामोंको करते हैं। यज्ञमें प्रायः अरणीसे निकाली हुई अग्नि ही काममें लायी जाती है। (श० सा०
सूर्यप्रसाद मिश्रजी लिखते हैं कि 'अरणीसे सूर्यका भी बोध होता है। सूर्यपक्षमें ऐसा अर्थ करना चाहिये कि सूर्यके उदय होनेसे अन्धकार नष्ट हो जाता है एवं रामकथारूपी सूर्यके उदय होनेसे हृदयस्थ अविवेकरूप अन्धकार नष्ट होकर परम पवित्र विवेक उत्पन्न होता है।' (स्कन्दपुराण काशीखण्ड अ० ९में सूर्यभगवान् के सत्तर नाम गिनाकर उनके द्वारा उनको अर्घ्य देनेकी विशेष विधि बतायी हैं, उन नामोंमेंसे एक नाम 'अरणि' भी है। यथा-'गभस्तिहस्तस्तीब्रांशुस्तरणिः सुमहोऽरणिः।' (८०) इस प्रकार 'अरणि' का अर्थ 'सूर्य' भी हुआ।
टिप्पणी-() कलि और कलुषके रहते विवेक नहीं होता। इसीसे कलि और कलुष दोनोंका नाश कहकर तब विवेककी उत्पत्ति कही। () 'अरणी' कहनेका भाव यह है कि यह कथा प्रत्यक्षमें तो उपासना है परन्तु इसके अभ्यन्तर ज्ञान भरा है, जैसे अरणीके भीतर अग्नि है यद्यपि प्रकटरूपमें वह लकड़ी ही है।

 ......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक मानस पीयूष खण्ड-१ से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीशुक उवाच
एवमामन्त्र्य भगवान्भवानीं विश्वभावनः
तद्विषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वमोदत ॥ ४१ ॥
ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम्
अभक्षयन्महादेवः कृपया भूतभावनः ॥ ४२ ॥
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्यं जलकल्मषः
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम् ॥ ४३ ॥
तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः ॥ ४४ ॥
निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुषः
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्च शशंसिरे ॥ ४५ ॥
प्रस्कन्नं पिबतः पाणेर्यत्किञ्चिज्जगृहुः स्म तत्
वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्च येऽपरे ॥ ४६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंविश्वके जीवनदाता भगवान्‌ शङ्कर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस विषको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ शङ्कर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये ॥ ४२ ॥ वह विष जलका पापमल था। उसने शङ्करजीपर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परंतु वह तो प्रजाका कल्याण करनेवाले भगवान्‌शङ्करके लिये भूषणरूप हो गया ॥ ४३ ॥ परोपकारी सज्जन प्राय: प्रजाका दु:ख टालनेके लिये स्वयं दु:ख झेला ही करते हैं। परंतु यह दु:ख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्‌की परम आराधना है ॥ ४४ ॥
देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान्‌ भी उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ४५ ॥ जिस समय भगवान्‌ शङ्कर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथसे थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवोंने एवं विषैली ओषधियोंने ग्रहण कर लिया ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धेऽमृतमथने
सप्तमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीशुक उवाच
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः
सर्वभूतसुहृद्देव इदमाह सतीं प्रियाम् ॥ ३६ ॥

श्रीशिव उवाच
अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम्
क्षीरोदमथनोद्भूतात्कालकूटादुपस्थितम् ॥ ३७ ॥
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ॥ ३८ ॥
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ॥ ३९ ॥
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर के हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही ॥ ३६ ॥
शिवजीने कहादेवि ! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्र-मन्थन से निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दु:ख आ पड़ा है ॥ ३७ ॥ ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामथ्र्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दु:खियोंकी रक्षा करें ॥ ३८ ॥ सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्गुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि ! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक- दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं ॥ ३९ ॥ उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ॥ ४० ॥

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शनिवार, 21 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रि
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः ॥ ३३ ॥
तत्तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जः स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम् ॥ ३४ ॥
एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः ॥ ३५ ॥

जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्यामें ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होनेके कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैंवे मूर्ख आपकी लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जतासे भरा है ॥ ३३ ॥ इस कार्य और कारणरूप जगत् से  परे माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो ! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करनेमें सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामें उनके पुत्रोंके पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है ॥ ३४ ॥ हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूपको देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको हम नहीं जानते। महेश्वर ! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप व्यक्तरूपसे भी रहते हैं ॥ ३५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट११)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्र गम्यम्
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद्ब्रह्म निरस्तभेदम् ॥ ३१
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत्ते
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद ॥ ३२

भगवन् ! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकारका भेदभाव ही। आपके उस स्वरूपको सारे लोकपालयहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते ॥ ३१ ॥ आपने कामदेव, दक्षके यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायँगे) और अनेक जीवद्रोही असुरोंको नष्ट कर दिया है। परंतु यह कहनेसे आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलयके समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्रसे निकली हुई आगकी चिनगारी एवं लपटसे जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता ॥ ३२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...