॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
श्रीशुक उवाच -
एवं भगवता राजन् श्रीवत्सांकेन सत्कृतः ।
आमंत्र्य तं परिक्रम्य सगणः स्वालयं ययौ ॥ ४१ ॥
आत्मांशभूतां तां मायां भवानीं भगवान् भवः ।
शंसतां ऋषिमुख्यानां प्रीत्याचष्टाथ भारत ॥ ४२ ॥
अयि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायां
परस्य पुंसः
परदेवतायाः ।
अहं कलानां ऋषभो विमुह्ये
ययावशोऽन्ये
किमुतास्वतंत्राः ॥ ४३ ॥
यं मां अपृच्छस्त्वमुपेत्य योगात्
समासहस्रान्त
उपारतं वै ।
स एष साक्षात्पुरुषः पुराणो
न यत्र कालो
विशते न वेदः ॥ ४४ ॥
श्रीशुक उवाच -
इति तेऽभिहितस्तात विक्रमः शारंगधन्वनः ।
सिन्धोर्निर्मथने येन धृतः पृष्ठे महाचलः ॥ ४५ ॥
एतन्मुहुः कीर्तयतोऽनुश्रृण्वतो
न रिष्यते जातु
समुद्यमः क्वचित् ।
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनं
समस्तसंसारपरिश्रमापहम् ॥ ४६ ॥
असद् अविषयमङ्घ्रिं भावगम्यं प्रपन्नान्
अमृतममरवर्यानाशयत् सिन्धुमथ्यम् ।
कपटयुवतिवेषो मोहयन् यः सुरारीन्
तमहमुपसृतानां
कामपूरं नतोऽस्मि ॥ ४७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् विष्णु ने भगवान् शङ्कर का सत्कार किया। तब
उनसे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणोंके साथ कैलासको चले गये ॥ ४१ ॥
भरतवंशशिरोमणे ! भगवान् शङ्करने बड़े-बड़े ऋषियोंकी सभामें अपनी अद्र्धाङ्गिनी
सती देवीसे अपने विष्णुरूपकी अंशभूता मायामयी मोहिनीका इस प्रकार बड़े प्रेमसे
वर्णन किया ॥ ४२ ॥ ‘देवि ! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णुकी माया
देखी ?
देखो, यों तो मैं
समस्त कलाकौशल,
विद्या आदिका स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस मायासे विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे
जीव तो परतन्त्र हैं ही;
अत: वे मोहित हो जायँ—इसमें कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ जब मैं एक हजार वर्षकी समाधिसे उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते
हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमामें बाँध सकता
है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय
है’
॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित् ! मैंने विष्णुभगवान्की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र-मन्थनके समय अपनी पीठपर मन्दराचल धारण
करनेवाले भगवान्का वर्णन है ॥ ४५ ॥ जो पुरुष बार-बार इसका कीर्तन और श्रवण करता
है,
उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि
पवित्रकीर्ति भगवान्के गुण और लीलाओंका गान संसारके समस्त क्लेश और परिश्रमको
मिटा देनेवाला है ॥ ४६ ॥ दुष्ट पुरुषोंको भगवान्के चरणकमलोंकी प्राप्ति कभी हो
नहीं सकती। वे तो भक्तिभावसे युक्त पुरुषको ही प्राप्त होते हैं। इसीसे उन्होंने
स्त्रीका मायामय रूप धारण करके दैत्योंको मोहित किया और अपने चरणकमलोंके शरणागत
देवताओंको समुद्र-मन्थनसे निकले हुए अमृतका पान कराया। केवल उन्हींकी बात नहीं—चाहे जो भी उनके चरणोंकी शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभुके
चरणकमलोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे शंकरमोहनं द्वादशोध्याऽयः ॥ १२ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से