शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

श्रीशुक उवाच -
एवं भगवता राजन् श्रीवत्सांकेन सत्कृतः ।
आमंत्र्य तं परिक्रम्य सगणः स्वालयं ययौ ॥ ४१ ॥
आत्मांशभूतां तां मायां भवानीं भगवान् भवः ।
शंसतां ऋषिमुख्यानां प्रीत्याचष्टाथ भारत ॥ ४२ ॥
अयि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायां
     परस्य पुंसः परदेवतायाः ।
अहं कलानां ऋषभो विमुह्ये
     ययावशोऽन्ये किमुतास्वतंत्राः ॥ ४३ ॥
यं मां अपृच्छस्त्वमुपेत्य योगात्
     समासहस्रान्त उपारतं वै ।
स एष साक्षात्पुरुषः पुराणो
     न यत्र कालो विशते न वेदः ॥ ४४ ॥

श्रीशुक उवाच -
इति तेऽभिहितस्तात विक्रमः शारंगधन्वनः ।
सिन्धोर्निर्मथने येन धृतः पृष्ठे महाचलः ॥ ४५ ॥
एतन्मुहुः कीर्तयतोऽनुश्रृण्वतो
     न रिष्यते जातु समुद्यमः क्वचित् ।
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनं
     समस्तसंसारपरिश्रमापहम् ॥ ४६ ॥
असद् अविषयमङ्‌घ्रिं भावगम्यं प्रपन्नान्
     अमृतममरवर्यानाशयत् सिन्धुमथ्यम् ।
कपटयुवतिवेषो मोहयन् यः सुरारीन्
     तमहमुपसृतानां कामपूरं नतोऽस्मि ॥ ४७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ विष्णु ने भगवान्‌ शङ्कर का सत्कार किया। तब उनसे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणोंके साथ कैलासको चले गये ॥ ४१ ॥ भरतवंशशिरोमणे ! भगवान्‌ शङ्करने बड़े-बड़े ऋषियोंकी सभामें अपनी अद्र्धाङ्गिनी सती देवीसे अपने विष्णुरूपकी अंशभूता मायामयी मोहिनीका इस प्रकार बड़े प्रेमसे वर्णन किया ॥ ४२ ॥ देवि ! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान्‌ विष्णुकी माया देखी ? देखो, यों तो मैं समस्त कलाकौशल, विद्या आदिका स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस मायासे विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अत: वे मोहित हो जायँइसमें कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ जब मैं एक हजार वर्षकी समाधिसे उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमामें बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! मैंने विष्णुभगवान्‌की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र-मन्थनके समय अपनी पीठपर मन्दराचल धारण करनेवाले भगवान्‌का वर्णन है ॥ ४५ ॥ जो पुरुष बार-बार इसका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान्‌के गुण और लीलाओंका गान संसारके समस्त क्लेश और परिश्रमको मिटा देनेवाला है ॥ ४६ ॥ दुष्ट पुरुषोंको भगवान्‌के चरणकमलोंकी प्राप्ति कभी हो नहीं सकती। वे तो भक्तिभावसे युक्त पुरुषको ही प्राप्त होते हैं। इसीसे उन्होंने स्त्रीका मायामय रूप धारण करके दैत्योंको मोहित किया और अपने चरणकमलोंके शरणागत देवताओंको समुद्र-मन्थनसे निकले हुए अमृतका पान कराया। केवल उन्हींकी बात नहींचाहे जो भी उनके चरणोंकी शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभुके चरणकमलोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे शंकरमोहनं द्वादशोध्याऽयः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

श्रीभगवानुवाच –

दिष्ट्या त्वं विबुधश्रेष्ठ स्वां निष्ठां आत्मना स्थितः ।
यन्मे स्त्रीरूपया स्वैरं मोहितोऽप्यङ्‌ग मायया ॥ ३८ ॥
को नु मेऽतितरेन्मायां विषक्तस्त्वदृते पुमान् ।
तान् तान् विसृजतीं भावान् दुस्तरामकृतात्मभिः ॥ ३९ ॥
सेयं गुणमयी माया न त्वां अभिभविष्यति ।
मया समेता कालेन कालरूपेण भागशः ॥ ४० ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहादेवशिरोमणे ! मेरी स्त्रीरूपिणी माया से विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठामें स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्दकी बात है ॥ ३८ ॥ मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी मायाके फंदेमें फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके ॥ ३९ ॥ यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ोंको मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदिके लिये समयपर उसे क्षोभित करनेवाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छाके विपरीत वह रजोगुण आदिकी सृष्टि नहीं कर सकती ॥ ४० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

आत्मानं मोचयित्वाङ्‌ग सुरर्षभभुजान्तरात् ।
प्राद्रवत्सा पृथुश्रोणी माया देवविनिर्मिता ॥ ३० ॥
तस्यासौ पदवीं रुद्रो विष्णोरद्‍भुतकर्मणः ।
प्रत्यपद्यत कामेन वैरिणेव विनिर्जितः ॥ ३१ ॥
तस्यानुधावतो रेतः चस्कन्दामोघरेतसः ।
शुष्मिणो यूथपस्येव वासितामनुधावतः ॥ ३२ ॥
यत्र यत्रापतन् मह्यां रेतस्तस्य महात्मनः ।
तानि रूप्यस्य हेम्नश्च क्षेत्राण्यासन् महीपते ॥ ३३ ॥
सरित्सरःसु शैलेषु वनेषु उपवनेषु च ।
यत्र क्व चासन् ऋषयः तत्र सन्निहितो हरः ॥ ३४ ॥
स्कन्ने रेतसि सोऽपश्यत् आत्मानं देवमायया ।
जडीकृतं नृपश्रेष्ठ सन्न्यवर्तत कश्मलात् ॥ ३५ ॥
अथ अवगतमाहात्म्य आत्मनो जगदात्मनः ।
अपरिज्ञेयवीर्यस्य न मेने तदु हाद्‍भुतम् ॥ ३६ ॥
तमविक्लवमव्रीडं आलक्ष्य मधुसूदनः ।
उवाच परमप्रीतो बिभ्रत् स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३७ ॥

वास्तव में वह सुन्दरी भगवान्‌ की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शङ्करजी के भुजपाश से अपनेको छुड़ा लिया और बड़े वेगसे भागी ॥ ३० ॥ भगवान्‌ शङ्कर भी उन मोहिनीवेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान्‌ विष्णुके पीछे-पीछे दौडऩे लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेवने इस समय उनपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ ३१ ॥ कामुक हथिनी के पीछे दौडऩेवाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रह थे। यद्यपि भगवान्‌ शङ्कर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की मायासे वह स्खलित हो गया ॥ ३२ ॥ भगवान्‌ शङ्करका वीर्य पृथ्वीपर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदीकी खानें बन गयीं ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवनमें एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनीके पीछे-पीछे भगवान्‌ शङ्कर गये थे ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! वीर्यपात हो जानेके बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान्‌ की मायाने तो मुझे खूब छकाया ! वे तुरंत उस दु:खद प्रसङ्ग से अलग हो गये ॥ ३५ ॥ इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान्‌ की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान्‌की शक्तियोंका पार कौन पा सकता है ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ने देखा कि भगवान्‌ शङ्करको इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुष-शरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नतासे उनसे कहने लगे ॥ ३७ ॥

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गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

तां वीक्ष्य देव इति कन्दुकलीलयेषद्
     व्रीडास्फुटस्मितविसृष्टकटाक्षमुष्टः ।
स्त्रीप्रेक्षणप्रतिसमीक्षणविह्वलात्मा
     नात्मानमन्तिक उमां स्वगणांश्च वेद ॥ २२ ॥
तस्याः कराग्रात्स तु कन्दुको यदा
     गतो विदूरं तमनुव्रजत्स्त्रियाः ।
वासः ससूत्रं लघु मारुतोऽहरद्
     भवस्य देवस्य किलानुपश्यतः ॥ २३ ॥
एवं तां रुचिरापाङ्‌गीं दर्शनीयां मनोरमाम् ।
दृष्ट्वा तस्यां मनश्चक्रे विषज्जन्त्यां भवः किल ॥ २४ ॥
तयापहृतविज्ञानः तत्कृतस्मरविह्वलः ।
भवान्या अपि पश्यन्त्या गतह्रीस्तत्पदं ययौ ॥ २५ ॥
सा तं आयान्तमालोक्य विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ।
निलीयमाना वृक्षेषु हसन्ती नान्वतिष्ठत ॥ २६ ॥
तां अन्वगच्छद् भगवान् भवः प्रमुषितेन्द्रियः ।
कामस्य च वशं नीतः करेणुमिव यूथपः ॥ २७ ॥
सोऽनुव्रज्यातिवेगेन गृहीत्वानिच्छतीं स्त्रियम् ।
केशबन्ध उपानीय बाहुभ्यां परिषस्वजे ॥ २८ ॥
सोपगूढा भगवता करिणा करिणी यथा ।
इतस्ततः प्रसर्पन्ती विप्रकीर्णशिरोरुहा ॥ २९ ॥

गेंदसे खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्जभाव से मुसकराकर तिरछी नजर से शङ्करजी की ओर देखा। बस, उनका मन हाथसे निकल गया। वे मोहिनीको निहारने और उसकी चितवनके रसमें डूबकर इतने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने-आपकी भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणोंकी तो याद ही कैसे रहती ॥ २२ ॥ एक बार मोहिनीके हाथसे उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसीके पीछे दौड़ी। उसी समय शङ्करजीके देखते-देखते वायुने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनीके साथ ही उड़ा ली ॥ २३ ॥ मोहिनीका एक-एक अङ्ग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशामें देखकर भगवान्‌ शङ्कर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी ॥ २४ ॥ उसने शङ्करजीका विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावोंसे कामातुर हो गये और भवानीके सामने ही लज्जा छोडक़र उसकी ओर चल पड़े ॥ २५ ॥ मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शङ्करजीको अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्षसे दूसरे वृक्षकी आड़में जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परंतु कहीं ठहरती न थी ॥ २६ ॥ भगवान्‌ शङ्करकी इन्द्रियाँ अपने वशमें नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अत: हथिनीके पीछे हाथीकी तरह उसके पीछे-पीछे दौडऩे लगे ॥ २७ ॥ उन्होंने अत्यन्त वेगसे उसका पीछा करके पीछेसे उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होनेपर भी उसे दोनों भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ २८ ॥ जैसे हाथी हथिनीका आलिङ्गन करता है, वैसे ही भगवान्‌ शङ्करने उसका आलिङ्गन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ानेकी चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटीमें उसके सिरके बाल बिखर गये ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

श्रीशुक उवाच -
एवं अभ्यर्थितो विष्णुः भगवान् शूलपाणिना ।
प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥ १४ ॥

श्रीभगवानुवाच -
कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया कृतः ।
पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥ १५ ॥
तत्तेऽहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षोः सुरसत्तम ।
कामिनां बहु मन्तव्यं संकल्पप्रभवोदयम् ॥ १६ ॥

श्रीशुक उवाच -
इति ब्रुवाणो भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
सर्वतश्चारयन् चक्षुः भव आस्ते सहोमया ॥ १७ ॥
ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियं
     विचित्रपुष्पारुणपल्लवद्रुमे ।
विक्रीडतीं कन्दुकलीलया लसद्
     दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥ १८ ॥
आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन
     प्रकृष्टहारोरुभरैः पदे पदे ।
प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चलउ
     पदप्रवालं नयतीं ततस्ततः ॥ १९ ॥
दिक्षु भ्रमत्कन्दुकचापलैर्भृशं
     प्रोद्विग्नतारायतलोललोचनाम् ।
स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लसत्
     कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥ २० ॥
श्लथद् दुकूलं कबरीं च विच्युतां
     सन्नह्यतीं वामकरेण वल्गुना ।
विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकं
     विमोहयन्तीं जगदात्ममायया ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब भगवान्‌ शङ्करने विष्णुभगवान्‌से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भावसे हँसकर शङ्करजीसे बोले ॥ १४ ॥
श्रीविष्णुभगवान्‌ने कहाशङ्करजी ! उस समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अत: देवताओंका काम बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था ॥ १५ ॥ देवशिरोमणे ! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परंतु वह रूप तो कामी पुरुषोंका ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान्‌ शङ्कर सती देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे ॥ १७ ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँतिके वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलोंसे भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवनमें एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही हैं ॥ १८ ॥ गेंदके उछालने और लपककर पकडऩेसे उसके स्तन और उनपर पड़े हुए हार हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भारसे उसकी पतली कमर पग-पगपर टूटते- टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवोंके समान सुकुमार चरणोंसे बड़ी कलाके साथ ठुमुक-ठुमुक चल रही थी ॥ १९ ॥ उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपककर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चञ्चल आँखें कुछ उद्विग्र-सी हो रही थीं। उसके कपोलोंपर कानोंके कुण्डलोंकी आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उनपर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था ॥ २० ॥ जब कभी साड़ी सरक जाती और केशोंकी वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथसे वह उन्हें सँभाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहिने हाथसे गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत् को  अपनी मायासे मोहित कर रही थी ॥ २१ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

एकस्त्वमेव सदसद् द्वयमद्वयं च
     स्वर्णं कृताकृतमिवेह न वस्तुभेदः ।
अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विहितो विकल्पो ।
     यस्माद् गुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्य ॥ ८ ॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेके
     एके परं सदसतोः पुरुषं परेशम् ।
अन्येऽवयन्ति नवशक्तियुतं परं त्वां
     केचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥ ९ ॥
नाहं परायुर्ॠषयो न मरीचिमुख्या
     जानन्ति यद्विरचितं खलु सत्त्वसर्गाः ।
यन्मायया मुषितचेतस ईश दैत्य
     मर्त्यादयः किमुत शश्वदभद्रवृत्ताः ॥ १० ॥
स त्वं समीहितमदः स्थितिजन्मनाशं
     भूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ ।
वायुर्यथा विशति खं च चराचराख्यं
     सर्वं तदात्मकतयावगमोऽवरुन्त्से ॥ ११ ॥
अवतारा मया दृष्टा रममाणस्य ते गुणैः ।
सोऽहं तद् द्रष्टुमिच्छामि यत्ते योषिद् वपुर्धृतम् ॥ १२ ॥
येन सम्मोहिता दैत्याः पायिताश्चामृतं सुराः ।
तद् दिदृक्षव आयाताः परं कौतूहलं हि नः ॥ १३ ॥

(श्रीमहादेवजी भगवान् श्रीहरिसे कहरहे हैं) स्वामिन् ! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैतजो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणोंके रूपमें स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्णमें कोई अन्तर नहीं है, दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगोंने आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण आपमें नाना प्रकारके भेदभाव और विकल्पोंकी कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आपमें किसी प्रकारकी उपाधि न होनेपर भी गुणोंको लेकर भेदकी प्रतीति होती है ॥ ८ ॥ प्रभो ! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुषसे परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहाइन नौ शक्तियोंसे युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदिके बन्धनसे रहित, पूर्वजोंके भी पूर्वज, अविनाशी पुरुषविशेषके रूपमें मानते हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! मैं, ब्रह्मा और मरीचि आदि ऋषिजो सत्त्वगुणकी सृष्टिके अन्तर्गत हैंजब आपकी बनायी हुई सृष्टिका भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त मायाने अपने वशमें कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मोंमें लगे रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या ॥ १० ॥ प्रभो ! आप सर्वात्मक एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायुके समान आकाशमें अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत्में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियोंके कर्म एवं संसारके बन्धन, मोक्षसभीको जानते हैं ॥ ११ ॥ प्रभो ! आप जब गुणोंको स्वीकार करके लीला करनेके लिये बहुत-से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतारका भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूपमें ग्रहण किया था ॥ १२ ॥ जिससे दैत्योंको मोहित करके आपने देवताओंको अमृत पिलाया। स्वामिन् ! उसीको देखनेके लिये हम सब आये हैं। हमारे मनमें उसके दर्शनका बड़े कौतूहल है ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...