॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
श्रीशुक उवाच -
इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सूनृतम् ।
निशम्य भगवान्प्रीतः प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच -
वचस्तवैतत् जनदेव सूनृतं
कुलोचितं
धर्मयुतं यशस्करम् ।
यस्य प्रमाणं भृगवः सांपराये
पितामहः
कुलवृद्धः प्रशान्तः ॥ २ ॥
न ह्येतस्मिन्कुले कश्चित् निःसत्त्वः कृपणः पुमान् ।
प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥ ३ ॥
न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिताः
पराङ्मुखा ये
त्वमनस्विनो नृपाः ।
युष्मत्कुले यद् यशसामलेन
प्रह्लाद उद्भाति
यथोडुपः खे ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजा बलिके ये वचन धर्मभावसे भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान्
वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिनन्दन किया और कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—राजन् ! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी
कुलपरम्परा के अनुरूप,
धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है । क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बन्ध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य
को परम प्रमाण जो मानते हैं । साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्लादजी की
आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं ॥२॥ आपकी वंशपरम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण
पुरुष कभी हुआ ही नहीं । ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मणको कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देनेकी
प्रतिज्ञा करके बादमें मुकर गया हो ॥ ३ ॥ दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और
युद्धके अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेनेवाला कायर आपके वंश
में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी
कुलपरम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा ॥ ४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से