॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और
भगवान् का उस पर प्रसन्न होना
एष
दानवदैत्यानामग्रनीः कीर्तिवर्धनः ।
अजैषीदजयां
मायां सीदन्नपि न मुह्यति ॥ २८ ॥
क्षीणरिक्थश्च्युतः
स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः ।
ज्ञातिभिश्च
परित्यक्तो यातनामनुयापितः ॥ २९ ॥
गुरुणा
भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः ।
छलैरुक्तो
मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक् ॥ ३० ॥
एष
मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापं अमरैरपि ।
सावर्णेरन्तरस्यायं
भवितेन्द्रो मदाश्रयः ॥ ३१ ॥
तावत्
सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् ।
यदाधयो
व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः ।
नोपसर्गा
निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥ ३२ ॥
इन्द्रसेन
महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते ।
सुतलं
स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः ॥ ३३ ॥
न
त्वां अभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे ।
त्वत्
शासनातिगान् दैत्यान् चक्रं मे सूदयिष्यति ॥ ३४ ॥
रक्षिष्ये
सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् ।
सदा
सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ॥ ३५ ॥
तत्र
दानवदैत्यानां संगात् ते भाव आसुरः ।
दृष्ट्वा
मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनंक्ष्यति ॥ ३६ ॥
(श्रीभगवान् कह रहे हैं) यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही
वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर
ली है,
जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दु:ख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८ ॥ इसका धन छीन
लिया,
राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये,
शत्रुओंने बाँध लिया, भाई- बन्धु छोडक़र चले गये, इतनी यातनाएँ
भोगनी पड़ीं—यहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा- फटकारा और शापतक दे
दिया। परंतु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परंतु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अत: मैंने
इसे वह स्थान दिया है,
जो बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है।
सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१ ॥ तबतक यह विश्वकर्माके
बनाये हुए सुतल लोकमें रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं।
इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट,
तन्द्रा, बाहरी या
भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नों का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥
[ बलिको सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने
भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतल लोकमें जाओ, जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें
पराजित नहीं कर सकेंगे,
दूसरोंकी तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का
उल्लङ्घन करेंगे,
मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों
से रक्षा करूँगा। वीर बलि ! तुम मुझे वहाँ
सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ॥ ३५ ॥ दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो
कुछ आसुरभाव होगा,
वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे
वामनप्रादुर्भवे बलिवामनसंवादे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से