मंगलवार, 12 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

एष दानवदैत्यानामग्रनीः कीर्तिवर्धनः ।
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति ॥ २८ ॥
क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः ।
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः ॥ २९ ॥
गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः ।
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक् ॥ ३० ॥
एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापं अमरैरपि ।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः ॥ ३१ ॥
तावत् सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् ।
यदाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः ।
नोपसर्गा निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥ ३२ ॥
इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते ।
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः ॥ ३३ ॥
न त्वां अभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे ।
त्वत् शासनातिगान् दैत्यान् चक्रं मे सूदयिष्यति ॥ ३४ ॥
रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् ।
सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ॥ ३५ ॥
तत्र दानवदैत्यानां संगात् ते भाव आसुरः ।
दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनंक्ष्यति ॥ ३६ ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दु:ख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८ ॥ इसका धन छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये, शत्रुओंने बाँध लिया, भाई- बन्धु छोडक़र चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ींयहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा- फटकारा और शापतक दे दिया। परंतु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परंतु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अत: मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१ ॥ तबतक यह विश्वकर्माके बनाये हुए सुतल लोकमें रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नों का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥ [ बलिको सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतल लोकमें जाओ, जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का उल्लङ्घन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों से   रक्षा करूँगा। वीर बलि ! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ॥ ३५ ॥ दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भवे बलिवामनसंवादे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 11 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीभगवानुवाच -
ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम् ।
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥ २४ ॥
यदा कदाचित् जीवात्मा संसरन्निजकर्मभिः ।
नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत् ॥ २५ ॥
जन्मकर्मवयोरूप विद्यैश्वर्यधनादिभिः ।
यद्यस्य न भवेत् स्तंभः तत्रायं मदनुग्रहः ॥ २६ ॥
मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः ।
सर्वश्रेयःप्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः ॥ २७ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाब्रह्माजी ! मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ । क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगोंका तिरस्कार करने लगता है ॥ २४ ॥ यह जीव अपने कर्मोंके कारण विवश होकर अनेक योनियोंमें भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका शरीर प्राप्त करता है ॥ २५ ॥ मनुष्ययोनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदिके कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ॥ २६ ॥ कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वञ्चित कर देते हैं; परंतु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते ॥ २७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीब्रह्मोवाच -
भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय ।
मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥ २१ ॥
कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये ।
निवेदितं च सर्वस्वं आत्माविक्लवया धिया ॥ २२ ॥
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
     दूर्वाङ्‌कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् ।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
     दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत् ॥ २३ ॥

ब्रह्माजीने कहासमस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अत: अब यह दण्डका पात्र नहीं है ॥ २१ ॥ इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदयसे कृपणता छोडक़र आपके चरणोंमें जलका अघ्र्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दु:खका भागी कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥

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रविवार, 10 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच
तस्यानुश्रृण्वतो राजन् प्रह्रादस्य कृताञ्जलेः ।
हिरण्यगर्भो भगवान् उवाच मधुसूदनम् ॥ १८ ॥
बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्‍नी भयविह्वला ।
प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवांमुखी नृप ॥ १९ ॥

श्रीविन्ध्यावलिरुवाच
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते
     स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः ।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
     त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रह्लादजी अञ्जलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान्‌ ब्रह्माजीने वामनभगवान्‌से कुछ कहना चाहा ॥ १८ ॥ परंतु इतनेमें ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावलीने अपने पतिको बँधा देखकर भयभीत हो भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान्‌से बोली ॥ १९ ॥
विन्ध्यावली ने कहाप्रभो ! आपने अपनी क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे ? ॥ २० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीप्रह्लाद उवाच

त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
     हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् ।
मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
     विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् ॥ १६ ॥
यया हि विद्वानपि मुह्यते यतः
     तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा ।
तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै
     नारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥ १७ ॥

प्रह्लादजीने कहाप्रभो ! आपने ही बलिको यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी ! मैं समझता हूँ कि आपने इसपर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्माको मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मीसे इसे अलग कर दिया ॥ १६ ॥ प्रभो। लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूपको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अत: उस लक्ष्मीको छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 9 नवंबर 2019

“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है

“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है
वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है |
“ न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:|
परं हि ब्रह्म कथितं योग्युक्तेन तन्मया ||” (महाभारत आश्व०१६/१२-१३)
गीता उपनिषदों का सार है | गीता की बात उपनिषदों से ही विशेष है |गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है | मतभेद यदि कोई है तो गीता में नहीं , प्रतुत टीकाकारों में है | गीता में भगवान साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं | सगुण निर्गुण,साकार-निराकार, द्विभुज,चतुर्भुज,सहस्रभुज आदि सब रूप परमात्मा के ही अंतर्गत हैं | समग्र रूप में कोई भी रूप बाकी नहीं रहता | किसी की भी उपासना करें,सम्पूर्ण उपासनाएं, सम्पूर्ण दर्शन,समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं | अत: सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है, परमात्मा के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ भी नहीं- इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है | गीता का तात्पर्य “वासुदेव: सर्वम्” में है | एक परमात्म तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढता होती है | प्रवृत्ति का उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्ति की दृढता होना ‘योग’ है |
गीता “सब कुछ परमात्मा है”-- ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से,कारणरूप से,प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह (सातवें,नवें,दसवें,और पन्द्रहवें अध्याय मे) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म (निर्गुण-निराकार),कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव), अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्) अधिदैव (मन,इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)- ये सब -के -सब “ वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं – “त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्” (गीता ११/३७) |
संसार अपने राग के कारण ही दीखता है | राग के कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है | राग न हों तो एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | जैसे भगवान ने कहा है – “सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:” (गीता १५/१५) “ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूं “ | जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष, हलचल,अशांति होते हैं | हृदय में ही सुख होता है और हृदय में ही दु:ख आता है | समुद्र मंथन में वहीं से विष निकला,वहीं से अमृत निकला | भगवान शंकर ने विष पी लिया तो अमृत निकल आया | इसी तरह राग द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा निकल आएंगे | सन्त महात्माओं के हृदय में राग द्वेष नहीं रहते; अत: वहाँ परमात्मा रहते हैं | गीता, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को समकक्ष और लौकिक बताती है | क्षर (जगत् और अक्षर (जीव) दोनों लौकिक हैं – “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च” (गीता १५/१६१६) पर भगवान अलौकिक हैं – “उत्तम:पुरुषस्त्वन्य:” (गीता १५/१७) क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है; अत: कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोग भगवान को लेकर चलता है; अत: भक्तियोग अलौकिक है |
भगवान की वाणी बड़े बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी ठोस और श्रेष्ट है; क्योंकि भगवान, ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं— “ अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: “ (गीता १०/२) अत: कितने ही बड़े ऋषी – मुनि, सन्त महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, पर वह भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी “ गीता “ की बराबरी नहीं कर सकती |
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी कोड 6 से संकलित)


श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुक उवाच -
तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्रादो भगवत्प्रियः ।
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः ॥ १२ ॥
तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया
     विराजमानं नलिनायतेक्षणम् ।
प्रांशुं पिशंगांबरमञ्जनत्विषं
     प्रलंबबाहुं शुभगर्षभमैक्षत ॥ १३ ॥
तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः
     समर्हणं नोपजहार पूर्ववत् ।
ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः
     सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह ॥ १४ ॥
स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
     हरिं सुनन्दाद्यनुगैरुपासितम् ।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
     ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान्‌ के प्रेम-पात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ॥ १२ ॥ राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमल के समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥ बलि इस समय वरुणपाशमें बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजी के आनेपर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओंसे चञ्चल हो उठे, लज्जाके मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ॥ १४ ॥ प्रह्लादजी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान्‌ वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेमके उद्रेक से प्रह्लादजी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखोंमें आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदयसे सिर झुकाये अपने स्वामीके पास गये और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और
भगवान्‌ का उस पर प्रसन्न होना

पितामहो मे भवदीयसम्मतः
     प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवादः ।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
     संप्रापितस्त्वं परमः स्वपित्रा ॥ ८ ॥
किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः
     किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः ।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
     मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः ॥ ९ ॥
इत्थं स निश्चित्य पितामहो महान्
     अगाधबोधो भवतः पादपद्मम् ।
ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्
     भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम ॥ १० ॥
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं
     दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः ।
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं
     ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते ॥ ११ ॥

प्रभो ! मेरे पितामह प्रह्लादजी की कीर्ति सारे जगत् में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आपसे वैर-विरोध रखनेके कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दु:ख दिये; परंतु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आपपर ही निछावर कर दिया ॥ ८ ॥ उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीरको लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन- सम्पत्ति लेनेके लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओंसे अपना स्वार्थ ही क्या है ? पत्नीसे भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्रमें डालनेवाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घरसे मोह करनेमें भी क्या स्वार्थ है ? इन सब वस्तुओंमें उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना है ॥ ९ ॥ ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजीने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टिसे उनके भाई-बन्धुओंके नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरण- कमलोंकी शरण ग्रहण की थी। क्यों न होवे संसारसे परम विरक्त, अगाध बोधसम्पन्न, उदार- हृदय एवं संतशिरोमणि जो हैं ॥ १० ॥ आप उस दृष्टिसे मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाताने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मीसे अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य- लक्ष्मीके कारण जीवकी बुद्धि जड हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि मेरा यह जीवन मृत्युके पंजेमें पड़ा हुआ और अनित्य है॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...