मंगलवार, 19 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीराजोवाच -
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविदः
     तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयुः
     विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥ ४६ ॥
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
     सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
     ग्रन्थिं स भिन्द्याद् हृदयं स नो गुरुः ॥ ४७ ॥
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
     पुमान् विजह्यान् मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
     भूयात् स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८ ॥
न यत्प्रसादायुतभागलेशं
     अन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंसः
     तं ईश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ४९ ॥

राजा सत्यव्रत ने कहाप्रभो ! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि-अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीडि़त हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं ॥ ४६ ॥ यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दु:खप्रद कर्मोंका अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें ॥ ४७ ॥ जैसे अग्रिमें तपानेसे सोने- चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्त:करणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अत: आप ही हमारे भी गुरु बनें ॥ ४८ ॥ जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव हैंवे सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

आस्तीर्य दर्भान् प्राक्कूलान् राजर्षिः प्रागुदंमुखः ।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः ॥ ४० ॥
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम् ।
वर्धमानो महामेघैः वर्षद्‌भिः समदृश्यत ॥ ४१ ॥
ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम् ।
तामारुरोह विप्रेन्द्रैः आदायौषधिवीरुधः ॥ ४२ ॥
तं ऊचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम् ।
स वै नः संकटादस्मादविता शं विधास्यति ॥ ४३ ॥
सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन् महार्णवे ।
एकशृंगधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः ॥ ४४ ॥
निबध्य नावं तत् श्रृंगे यथोक्तो हरिणा पुरा ।
वरत्रेणाहिना तुष्टः तुष्टाव मधुसूदनम् ॥ ४५ ॥

कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान्‌के चरणोंका चिन्तन करने लगे ॥ ४० ॥ इतनेमें ही भगवान्‌ का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोडक़र बढ़ रहा है। प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी ॥ ४१ ॥ तब राजाने भगवान्‌की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये ॥ ४२ ॥ सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन् ! तुम भगवान्‌का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे॥ ४३ ॥ उनकी आज्ञासे राजाने भगवान्‌का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान्‌ प्रकट हुए। मत्स्यभगवान्‌का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकि नाग के द्वारा भगवान्‌ के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने प्रसन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ४५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 18 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीभगवानुवाच -
सप्तमे ह्यद्यतनाद् ऊर्ध्वं अहन्येतदरिन्दम ।
निमंक्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ॥ ३२ ॥
त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा ।
उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता ॥ ३३ ॥
त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजानि उच्चावचानि च ।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ३४ ॥
आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः ।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा ॥ ३५ ॥
दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा ।
उपस्थितस्य मे शृंगे निबध्नीहि महाहिना ॥ ३६ ॥
अहं त्वां ऋषिभिः साकं सहनावमुदन्वति ।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद्‍ब्राह्मी निशा प्रभो ॥ ३७ ॥
मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम् ।
वेत्स्यसि अनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि ॥ ३८ ॥
इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत ।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत् ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान्‌ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा ॥ ३१ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहासत्यव्रत ! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे ॥ ३२ ॥ उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी ॥ ३३ ॥ उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना ॥ ३४ ॥ उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढक़र चारों ओर विचरण करना ॥ ३५ ॥ जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुमलोग वासुकि नागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना ॥ ३६ ॥ सत्यव्रत ! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी, तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा ॥ ३७ ॥ उस समय जब तुम प्रश्र करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम परब्रह्महै, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अत: अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान्‌ ने आज्ञा दी थी ॥३९॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम् ।
तमाह को भवान् अस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन् ॥ २५ ॥
नैवं वीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि वा ।
यो भवान् योजनशतं अह्नाभिव्यानशे सरः ॥ २६ ॥
नूनं त्वं भगवान् साक्षात् हरिर्नारायणोऽव्ययः ।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ॥ २७ ॥
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर ।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो ॥ २८ ॥
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः ।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम् ॥ २९ ॥
न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
     मृषा भवेत्सर्वसुहृत् प्रियात्मनः ।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सतां
     अदीदृशो यद्वपुरद्‍भुतं हि नः ॥ ३० ॥

मत्स्य भगवान्‌ की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा— ‘मत्स्य का रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं ? ॥ २५ ॥ आपने एक ही दिनमें चार सौ कोस के विस्तारका सरोवर घेर लिया। आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था ॥ २६ ॥ अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है ॥ २७ ॥ पुरुषोत्तम ! आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं ॥ २८ ॥ यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ॥ २९ ॥ कमलनयन प्रभो ! जैसे देहादि अनात्मपदार्थों में अपनेपन का अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ॥ ३० ॥

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रविवार, 17 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे ।
तद् आवृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत ॥ २१ ॥
नैतन्मे स्वस्तये राजन् उदकं सलिलौकसः ।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि ॥ २२ ॥
इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि ।
जलाशयेऽसम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम् ॥ २३ ॥
क्षिप्यमाणस्तमाहेदं इह मां मकरादयः ।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परंतु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया ॥ २१ ॥ और कहा—‘राजन् ! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये ॥ २२ ॥ मत्स्यभगवान्‌के इस प्रकार कहनेपर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये; परंतु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया ॥ २३ ॥ समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान्‌ने सत्यव्रतसे कहा—‘वीर ! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोडिय़े॥ २४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् ।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे ॥ १५ ॥
तस्या दीनतरं वाक्यं आश्रुत्य स महीपतिः ।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ॥ १६ ॥
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम् ॥ १७ ॥
नाहं कमण्डलौ अवस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८ ॥
स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ॥ १९ ॥
न मे एतद् अलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम् ।
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं गता ॥ २० ॥

राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान्‌ मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया ॥ १५ ॥ राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये ॥ १६ ॥ आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछली ने राजासे कहा॥ १७ ॥ अब तो इस कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अत: मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ॥ १८ ॥ राजा सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया। परंतु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी ॥ १९ ॥ फिर उसने राजा सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो॥ २० ॥

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शनिवार, 16 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा
तत्र राजऋषिः कश्चित् नाम्ना सत्यव्रतो महान् ।
नारायणपरोऽतप्यत् तपः स सलिलाशनः ॥ १० ॥
योऽसौ अस्मिन् महाकल्पे तनयः स विवस्वतः ।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः ॥ ११ ॥
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम् ।
तस्याञ्जलि उदके काचित् शफर्येकाभ्यपद्यत ॥ १२ ॥
सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत ।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः ॥ १३ ॥
तं आह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् ।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल ।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले ॥ १४ ॥

परीक्षित्‌ ! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे ॥ १० ॥ वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान्‌ ने वैवस्वत मनु बना दिया ॥ ११ ॥ एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अञ्जलिके जलमें एक छोटी-सी मछली आ गयी ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! द्रविड देशके राजा सत्यव्रतने अपनी अञ्जलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया ॥ १३ ॥ उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन् ! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीशुक उवाच -
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः ।
रक्षां इच्छन् तनु धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥ ५ ॥
उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः ।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ॥ ६ ॥
आसीद् अतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप ॥ ७ ॥
कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली ।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ॥ ८ ॥
ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम् ।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यों तो भगवान्‌ सब के एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थ की रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं ॥ ५ ॥ वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परंतु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहितनिर्गुण हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ॥ ७ ॥ प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ॥ ८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरिने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...