रविवार, 8 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान् नृपः ।
पुरुकुत्सं अंबरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम् ।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौभरिं वव्रिरे पतिम् ॥ ३८॥
यमुनान्तर्जले मग्नः तप्यमानः परंतपः ।
निर्वृतिं मीनराजस्य दृष्ट्वा मैथुनधर्मिणः ॥ ३९ ॥
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यां एकां अयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४० ॥
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयं असम्मतः ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः ॥ ४१ ॥
साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणां इति व्यवसितः प्रभुः ॥ ४२ ॥
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत् ।
वृतः स राजकन्याभिः एकं पञ्चाशता वरः ॥ ४३ ॥
तासां कलिरभूद् भूयान् तत् अर्थेऽपोह्य सौहृदम् ।
ममानुरूपो नायं व इति तद्‍गतचेतसाम् ॥ ४४ ॥
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु ।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥ ४५ ॥
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः ।
स्वलङ्‌कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद् द्विजभृङ्‌गवन्दिषु ॥ ४६ ॥
यद्‍गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः ।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम् ॥ ४७ ॥
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः ।
सेवमानो न चातुष्यद् आज्यस्तोकैरिवानलः ॥ ४८ ॥

राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुएपुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया ॥ ३८ ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ ३९ ॥ उसके इस सुखको देखकर ब्राह्मण सौभरिके मनमें भी विवाह करनेकी इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा—‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये॥ ४० ॥ सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है। अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ॥ ४१ ॥ अच्छी बात है । मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया ॥ ४२ ॥
फिर क्या था, अन्त:पुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया ॥ ४३ ॥ उन कन्याओं का मन सौभरिजी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपस के प्रेमभावको तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगीं कि ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं॥ ४४ ॥ ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्याके प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे घिरे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पत्नियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते, तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते ॥ ४५-४६ ॥ सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूँदोंसे आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

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शनिवार, 7 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

राजा तद् यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मंत्रजलं स्वयम् ॥ २७ ॥
उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो ।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम् ॥ २८ ॥
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते ।
ईश्वराय नमश्चक्रुः अहो दैवबलं बलम् ॥ २९ ॥
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम् ।
युवनाश्वस्य तनयः चक्रवर्ती जजान ह ॥ ३० ॥
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम् ।
मां धाता वत्स मा रोदीः इतीन्द्रो देशिनीमदात् ॥ ३१ ॥
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः ।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात् ॥ ३२ ॥
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्‌ग विदधे नाम यस्य वै ।
यस्मात् त्रसन्ति हि उद्विग्ना दस्यवो रावणादयः ॥ ३३ ॥
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः ।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा ॥ ३४ ॥
ईजे च यज्ञं क्रतुभिः आत्मविद् भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम् ॥ ३५ ॥
द्रव्यं मंत्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः ।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वं एतद् यदात्मकम् ॥ ३६ ॥
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
सर्वं तत् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ३७ ॥

एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि के समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! जब प्रात:काल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलशमें तो जल ही नहीं है, तब उन लोगोंने पूछा कि यह किसका काम है ? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया ?’ ॥ २८ ॥ अन्तमें जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान्‌की प्रेरणासे राजा युवनाश्वने ही उस जलको पी लिया है, तो उन लोगोंने भगवान्‌के चरणोंमें नमस्कार किया और कहा—‘धन्य है ! भगवान्‌का बल ही वास्तवमें बल है॥ २९ ॥ इसके बाद प्रसवका समय आनेपर युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाडक़र उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥ उसे रोते देख ऋषियोंने कहा—‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है; अत: किसका दूध पियेगा ?’ तब इन्द्रने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा ! तू रो मत।यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी अँगुली उसके मुँहमें डाल दी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे उस बालकके पिता युवनाश्वकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे ॥ ३३ ॥ युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान्‌ के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वीका शासन किया ॥ ३४ ॥ वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थीफिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे उन यज्ञस्वरूप प्रभुकी आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं ॥ ३५ ॥ भगवान्‌के अतिरिक्त और है ही क्या ? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज्, धर्म, देश और कालयह सब-का-सब भगवान्‌ का ही स्वरूप तो है ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! जहाँ से सूर्य का उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्व के पुत्र मान्धाता के ही अधिकारमें था ॥३७॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

पुरञ्जयस्य पुत्रोऽभूद् अनेनास्तत्सुतः पृथुः ।
विश्वगन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्वस्तु तत्सुतः ॥ २० ॥
शाबस्तः तत्सुतो येन शाबस्ती निर्ममे पुरी ।
बृहदश्वस्तु शाबस्तिः ततः कुवलयाश्वकः ॥ २१ ॥
यः प्रियार्थमुतंकस्य धुन्धुनामासुरं बली ।
सुतानां एकविंशत्या सहस्रैः अहनद् वृतः ॥ २२ ॥
धुन्धुमार इति ख्यातः तत्सुतास्ते च जज्वलुः ।
धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः ॥ २३ ॥
दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत ।
दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भः तत्सुतः स्मृतः ॥ २४ ॥
बहुलाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित् ।
युवनाश्वोऽभवत्तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः ॥ २५ ॥
भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः ।
इष्टिं स्म वर्तयां चक्रुः ऐन्द्रीं ते सुसमाहिताः ॥ २६ ॥

पुरञ्जय का पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथु के विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्र के युवनाश्व ॥ २० ॥ युवनाश्व के पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्त के बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए ॥ २१ ॥ ये बड़े बली थे। इन्होंने उतङ्क ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया ॥ २२ ॥ इसीसे उनका नाम हुआ धुन्धुमार। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ॥ २३ ॥ परीक्षित्‌ ! बचे हुए पुत्रों के नाम थेदृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भ का जन्म हुआ ॥ २४ ॥ निकुम्भ के बहर्णाश्व, उनके कृशाश्व, कृशाश्व के सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दु:खी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वन में चला गया। वहाँ ऋषियों ने बड़ी कृपा करके युवनाश्व से पुत्रप्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रता के साथ इन्द्रदेवता का यज्ञ कराया ॥ २५-२६ ॥

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

कृतान्त आसीत् समरो देवानां सह दानवैः ।
पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः ॥ १३ ॥
वचनाद् देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभोः ।
वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृषः ॥ १४ ॥
स सन्नद्धो धनुर्दिव्यं आदाय विशिखान्छितान् ।
स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः ॥ १५ ॥
तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः ।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत् त्रिदशैः पुरम् ॥ १६ ॥
तैस्तस्य चाभूत् प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम् ।
यमाय भल्लैरनयद् दैत्यान् येऽभिययुर्मृधे ॥ १७ ॥
तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निं इवोल्बणम् ।
विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानाः स्वमालयम् ॥ १८ ॥
जित्वा परं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये ।
प्रत्ययच्छत्स राजर्षिः इति नामभिराहृतः ॥ १९ ॥

सत्ययुग के अन्त में देवताओं का दानवों के साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्यों से हार गये। तब उन्होंने वीर पुरञ्जय को सहायता के लिये अपना मित्र बनाया ॥ १३ ॥ पुरञ्जयने कहा कि यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें, तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परंतु देवताओंके आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्‌की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ॥ १४ ॥ सर्वान्तर्यामी भगवान्‌ विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरञ्जयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढक़र वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्धके लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओंको साथ लेकर उन्होंने पश्चिमकी ओरसे दैत्योंका नगर घेर लिया ॥ १५-१६ ॥ वीर पुरञ्जयका दैत्योंके साथ अत्यन्त रोमाञ्चकारी घोर संग्राम हुआ। युद्धमें जो-जो दैत्य उनके सामने आये, पुरञ्जयने बाणोंके द्वारा उन्हें यमराजके हवाले कर दिया ॥ १७ ॥ उनके बाणोंकी वर्षा क्या थी, प्रलयकालकी धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्योंका साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोडक़र अपने-अपने घरोंमें घुस गये ॥ १८ ॥ पुरञ्जयने उनका नगर, धन और ऐश्वर्यसब कुछ जीतकर इन्द्रको दे दिया। इसीसे उन राजर्षिको पुर जीतनेके कारण पुरञ्जय’, इन्द्रको वाहन बनानेके कारण इन्द्रवाहऔर बैल के ककुद् पर बैठने के कारण ककुत्स्थकहा जाता है ॥ १९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

श्रीशुक उवाच ।
विरूपः केतुमान् शंभुः अंबरीषसुतास्त्रयः ।
विरूपात्पृषदश्वोऽभूत् तत्पुत्रस्तु रथीतरः ॥ १ ॥
रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेऽर्थितः ।
अङ्‌गिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान् ॥ २ ॥
एते क्षेत्रप्रसूता वै पुनस्त्वाङ्‌गिरसाः स्मृताः ।
रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः ॥ ३ ॥
क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः ।
तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डकाः ॥ ४ ॥
तेषां पुरस्ताद् अभवन् आर्यावर्ते नृपा नृप ।
पञ्चविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्ये परेऽन्यतः ॥ ५ ॥
स एकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत् ।
मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम् ॥ ६ ॥
तथेति स वनं गत्वा मृगान् हत्वा क्रियार्हणान् ।
श्रान्तो बुभुक्षितो वीरः शशं चाददपस्मृतिः ॥ ७ ॥
शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्‍गुरुः ।
चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतद् अकर्मकम् ॥ ८ ॥
ज्ञात्वा पुत्रस्य तत्कर्म गुरुणाभिहितं नृपः ।
देशान्निःसारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा ॥ ९ ॥
स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन् ।
त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत् परम् ॥ १० ॥
पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम् ।
शासदीजे हरिं यज्ञैः शशाद इति विश्रुतः ॥ ११ ॥
पुरञ्जयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः ।
ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अम्बरीषके तीन पुत्र थेविरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूपसे पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ ॥ १ ॥ रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्पराकी रक्षाके लिये उसने अङ्गिरा ऋषिसे प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नीसे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ यद्यपि ये सब रथीतरकी भार्यासे उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतर का था, फिर भी वे आङ्गिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियोंके प्रवर (कुलमें सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थेक्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था ॥ ३ ॥
परीक्षित्‌ ! एक बार मनुजी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थेविकुक्षि, निमि और दण्डक ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्तके पूर्वभागके और पचीस पश्चिमभागके तथा उपर्युक्त तीन मध्यभागके अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तोंके अधिपति हुए ॥ ५ ॥ एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्रको आज्ञा दी—‘विकुक्षे ! शीघ्र ही जाकर श्राद्धके योग्य पवित्र पशुओंका मांस लाओ॥ ६ ॥ वीर विकुक्षिने बहुत अच्छाकहकर वनकी यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्धके योग्य बहुत-से पशुओंका शिकार किया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्धके लिये मारे हुए पशुको स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया ॥ ७ ॥ विकुक्षिने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको दिया। इक्ष्वाकुने अब अपने गुरुसे उसे प्रोक्षण करनेके लिये कहा, तब गुरुजीने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्धके अयोग्य है ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! गुरुजीके कहनेपर राजा इक्ष्वाकुको अपने पुत्रकी करतूतका पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधिका उल्लङ्घन करनेवाले पुत्रको क्रोधवश अपने देशसे निकाल दिया ॥ ९ ॥ तदनन्तर राजा इक्ष्वाकुने अपने गुरुदेव वसिष्ठसे ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योगके द्वारा शरीरका परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ॥ १० ॥ पिताका  देहान्त हो जाने पर विकुक्षि अपनी राजधानी में लौट आया और इस पृथ्वी का शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्‌ की आराधना की और संसार में शशाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ११ ॥ विकुक्षि के पुत्र का नाम था पुरञ्जय। उसी को कोई इन्द्रवाहऔर कोई ककुत्स्थकहते हैं। जिन कर्मों के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ॥ १२ ॥

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गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

संवत्सरोऽत्यगात् तावद् यावता नागतो गतः ।
मुनिस्तद्दर्शनाकांक्षो राजाऽब्भक्षो बभूव ह ॥ २३ ॥
गतेऽथ दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत् ।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम् ॥ २४ ॥
एवं विधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे ।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान् निरयांश्चकार ॥ २५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः ।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः ॥ २६ ॥
इत्येतत् पुण्यमाख्यानं अंबरीषस्य भूपतेः ।
संकीर्तयन् अनुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटने तक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकाङ्क्षा से केवल जल पीकर ही रहे ॥ २३ ॥ जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजी का दु:ख में पडऩा और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटनाइन दोनों बातों को उन्होंने अपनेद्वारा होनेपर भी भगवान्‌ की ही महिमा समझा ॥ २४ ॥ राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मोंके द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्‌ में भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा ॥ २५ ॥ तदनन्तर राजा अम्बरीष ने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान्‌ में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! महाराज अम्बरीष का यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका सङ्कीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्‌ का भक्त हो जाता है ॥ २७ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

राजा तं अकृताहारः प्रत्यागमनकांक्षया ।
चरणौ उवुपसंगृह्य प्रसाद्य समभोजयत् ॥ १८ ॥
सोऽशित्वादृतमानीतं आतिथ्यं सार्वकामिकम् ।
तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतां इति सादरम् ॥ १९ ॥
प्रीतोऽस्मि अनुगृहीतोऽस्मि तव भागवतस्य वै ।
दर्शनस्पर्शनालापैः आतिथ्येनात्ममेधसा ॥ २० ॥
कर्मावदातं एतत् ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः ।
कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम् ॥ २१ ॥

श्रीशुक उवाच ।
एवं संकीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः ।
ययौ विहायसाऽऽमंत्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम् ॥ २२ ॥

परीक्षित्‌ ! जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया ॥ १८ ॥ राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारकी भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा—‘राजन् ! अब आप भी भोजन कीजिये ॥ १९ ॥ अम्बरीष ! आप भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मनको भगवान्‌की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ॥ २० ॥ स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ बार-बार आपके इस उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंदुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्गसे उस ब्रह्मलोककी यात्रा की, जो केवल निष्काम कर्मसे ही प्राप्त होता है ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 4 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

श्रीशुक उवाच ।
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ।
अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद् राजयाच्ञया ॥ १२ ॥
स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमान् ततः ।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः ॥ १३ ॥

दुर्वासा उवाच ।
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मंगलानि समीहसे ॥ १४ ॥
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतां ऋषभो हरिः ॥ १५ ॥
यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानां अवशिष्यते ॥ १६ ॥
राजन् अनुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना ।
मद् अघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब राजा अम्बरीष ने दुर्वासाजी को सब ओर से जलानेवाले भगवान्‌ के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया ॥ १२ ॥ जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १३ ॥
दुर्वासाजीने कहाधन्य है ! आज मैंने भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन् ! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मङ्गलकामना ही कर रहे हैं ॥ १४ ॥ जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीहरिके चरणकमलोंको दृढ़ प्रेमभावसे पकड़ लिया हैउन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते ? ॥ १५ ॥ जिनके मङ्गलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता हैउन्हीं तीर्थपाद भगवान्‌के चरणकमलोंके जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ? ॥ १६ ॥ महाराज अम्बरीष ! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है ! ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...