सोमवार, 23 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभिः ।

अनन्ताखिलकोषाढ्यं मनर्घ्योरुपरिच्छदम् ॥ ३१ ॥

विद्रुमोदुम्बरद्वारैः वैदूर्य स्तंभपङ्‌क्तिभिः ।

स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैः भाजत्स्फटिकभित्तिभिः ॥ ३२ ॥

चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिः वासोमणिगणांशुकैः ।

मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कान्तकामोपपत्तिभिः ॥ ३३ ॥

धूपदीपैः सुरभिभिः मण्डितं पुष्पमण्डनैः ।

स्त्रीपुम्भिः सुरसङ्‌काशैः जुष्टं भूषणभूषणैः ॥ ३४ ॥

तस्मिन् स भगवान् रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया ।

रेमे स्वारामधीराणां ऋषभः सीतया किल ॥ ३५ ॥

बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन् ।

वर्षपूगान् बहून् नृणां अभिध्यातांघ्रिपल्लवः ॥ ३६ ॥


इस प्रकार प्रजाका निरीक्षण करके भगवान्‌ फिर अपने महलोंमें आ जाते । उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओं के द्वारा सेवित थे। उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकारके खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियोंसे सुसज्जित थे ॥ ३१ ॥ महलोंके द्वार तथा देहलियाँ मूँगेकी बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्यमणिके थे। मरकतमणिके बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिकमणिकी दीवारें चमकती रहती थीं ॥ ३२ ॥ रगं-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियोंकी चमक, शुद्ध चेतनके समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग- सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलोंके गहनोंसे वे महल खूब सजाये हुए थे। आभूषणोंको भी भूषित करनेवाले देवताओंके समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवामें लगे रहते थे ॥ ३३-३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीरामजी आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषोंके शिरोमणि थे। उसी महल में वे अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीताजीके साथ विहार करते थे ॥ ३५ ॥ सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान्‌ श्रीराम बहुत वर्षोंतक धर्मकी मर्यादाका पालन करते हुए समयानुसार भोगोंका उपभोग करते रहे ॥ ३६ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


श्रीराजोवाच ।

कथं स भगवान् रामो भ्रातॄन् वा स्वयमात्मनः ।

तस्मिन् वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे ॥ २४ ॥



श्रीशुक उवाच ।

अथादिशद् दिग्विजये भ्रातॄन् त्रिभुवनेश्वरः ।

आत्मानं दर्शयन् स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः ॥ २५ ॥

आसिक्तमार्गां गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः ।

स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव ॥ २६ ॥

प्रासादगोपुरसभा चैत्यदेवगृहादिषु ।

विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मण्डिताम् ॥ २७ ॥

पूगैः सवृन्तै रम्भाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम् ।

आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम् ॥ २८ ॥

तं उपेयुस्तत्र तत्र पौरा अर्हणपाणयः ।

आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्‌धृताम् ॥ २९ ॥

ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं

दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः ।

आरुह्य हर्म्याण्यरविन्दलोचनं

अतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन् ॥ ३० ॥


राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवान्‌ श्रीराम स्वयं अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारका व्यवहार करते थे ? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान्‌ श्रीरामके प्रति कैसा बर्ताव करते थे ? ॥ २४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंत्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरोंके साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे ॥ २५ ॥ उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है ॥ २६ ॥ उसके महल,फाटक,सभाभवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रखे हुऐ थे और स्थान-स्थानपर पताकाएँ फहरा रही थीं ॥ २७ ॥ वह डंठलसमेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओंसे तथा माङ्गलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी ॥ २८ ॥ नगरवासी अपने हाथोंमें तरह-तरहकी भेंटें लेकर भगवान्‌ के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि देव ! पहले आपने ही वराहरूप से पृथ्वीका उद्धार किया था; अब आप ही इसका पालन कीजिये ॥ २९ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनोंके बाद भगवान्‌ श्रीराम जी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोडक़र दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रोंसे कमलनयन भगवान्‌को देखते हुए उनपर पुष्पोंकी वर्षा करते ॥ ३० ॥



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रविवार, 22 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


यस्यामलं नृपसस्सु यशोऽधुनापि ।

गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम् ॥

तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्ट ।

पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये ॥ २१ ॥

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा ।

कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः ॥ २२ ॥

पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन् ।

आनृशंस्यपरो राजन् कर्मबन्धैः विमुच्यते ॥ २३ ॥


भगवान्‌ श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देनेवाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि- महर्षि राजाओं की सभामें उसका गान करते रहते हैं। स्वर्गके देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २१ ॥ जिन्होंने भगवान्‌ श्रीरामका दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन कियावे सब-के-सब तथा कोसलदेश के निवासी भी उसी लोकमें गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योगसाधनाके द्वारा जाते हैं ॥ २२ ॥ जो पुरुष अपने कानोंसे भगवान्‌ श्रीरामका चरित्र सुनता हैउसे सरलता, कोमलता आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है। परीक्षित्‌ ! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २३ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता ।

ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह ॥ १५ ॥

तर् श्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः ।

स्मरंस्तस्या गुणान् तान् तान् नाशक्नोत् रोद्धुमीश्वरः ॥ १६ ॥

स्त्रीपुंप्रसङ्‌ग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः ।

अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः ॥ १७ ॥

तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन् अजुहोत् प्रभुः ।

त्रयोदशाब्दसाहस्रं अग्निहोत्रं अखण्डितम् ॥ १८ ॥

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः ।

स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः ॥ १९ ॥

नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त ।

लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः ॥

रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्र पूगैः ।

किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः ॥ २० ॥



भगवान्‌ श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीताजी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकि जी के हाथों में सौंप दिया और भगवान्‌ श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोकमें चली गयीं ॥ १५ ॥ यह समाचार सुनकर भगवान्‌ श्रीरामने अपने शोकावेश को बुद्धिके द्वारा रोकना चाहा, परंतु परम समर्थ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकी जी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दु:खका कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ १७ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीरामने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अखण्डरूपसे अग्निहोत्र किया ॥ १८ ॥ तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंके हृदयमें अपने उन चरणकमलोंको स्थापित करके, जो दण्डकवनके काँटोंसे बिंध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाम में चले गये ॥ १९ ॥
परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढक़र तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र- शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ २० ॥



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शनिवार, 21 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



इक्ष्वाकुवंश के शेष राजाओं का वर्णन

एते हि ईक्ष्वाकुभूपाला अतीताः श्रृण्वनागतान् ।

बृहद्‍बलस्य भविता पुत्रो नाम्ना बृहद्रणः ॥ ९ ॥

ऊरुक्रियः सुतस्तस्य वत्सवृद्धो भविष्यति ।

प्रतिव्योमस्ततो भानुः दिवाको वाहिनीपतिः ॥ १० ॥

सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्वोऽथ भानुमान् ।

प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोऽथ तत्सुतः ॥ ११ ॥

भविता मरुदेवोऽथ सुनक्षत्रोऽथ पुष्करः ।

तस्यान्तरिक्षः तत्पुत्रः सुतपास्तद् अमित्रजित् ॥ १२ ॥

बृहद्राजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात् कृतञ्जयः ।

रणञ्जयस्तस्य सुतः सञ्जयो भविता ततः ॥ १३ ॥

तस्माच्छाक्योऽथ शुद्धोदो लांगलस्तत्सुतः स्मृतः ।

ततः प्रसेनजित् तस्मात् क्षुद्रको भविता ततः ॥ १४ ॥

रणको भविता तस्मात् सुरथस्तनयस्ततः ।

सुमित्रो नाम निष्ठान्त एते बार्हद्‍बलान्वयाः ॥ १५ ॥

इक्ष्वाकूणां अयं वंशः सुमित्रान्तो भविष्यति ।

यतस्तं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ॥ १६ ॥


परीक्षित्‌ ! इक्ष्वाकुवंश के इतने नरपति हो चुके हैं। अब आनेवालोंके विषयमें सुनो। बृहद्वलका पुत्र होगा बृहद्रण ॥ ९ ॥ बृहद्रणका उरुक्रिय, उसका वत्सवृद्ध, वत्सवृद्धका प्रतिव्योम, प्रतिव्योमका भानु और भानुका पुत्र होगा सेनापति दिवाक ॥ १० ॥ दिवाक का वीर सहदेव, सहदेवका बृहदश्व, बृहदश्व का भानुमान्, भानुमान् का प्रतीकाश्व और प्रतीकाश्व का पुत्र होगा सुप्रतीक ॥ ११ ॥ सुप्रतीकका मरुदेव, मरुदेवका सुनक्षत्र, सुनक्षत्रका पुष्कर, पुष्करका अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षका सुतपा और उसका पुत्र होगा अमित्रजित् ॥ १२ ॥ अमित्रजित्से बृहद्राज, बृहद्राजसे बर्हि, बर्हिसे कृतञ्जय, कृतञ्जयसे रणञ्जय और उससे सञ्जय होगा ॥ १३ ॥ सञ्जयका शाक्य, उसका शुद्धोद और शुद्धोद का लाङ्गल, लाङ्गल का प्रसेनजित् और प्रसेनजित् का पुत्र क्षुद्रक होगा ॥ १४ ॥ क्षुद्रक से रणक, रणक से सुरथ और सुरथ से इस वंशके अन्तिम राजा सुमित्रका जन्म होगा। ये सब बृहद्वल के वंशधर होंगे ॥ १५ ॥ इक्ष्वाकु का यह वंश सुमित्र तक ही रहेगा। क्योंकि सुमित्र के राजा होने पर कलियुग में यह वंश समाप्त हो जायगा ॥ १६ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


कदाचित् लोकजिज्ञासुः गूढो रात्र्यामलक्षितः ।

चरन् वाचोऽश्रृणोद् रामो भार्यां उद्दिश्य कस्यचित् ॥ ८ ॥

नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टां असतीं परवेश्मगाम् ।

स्त्रैणो हि बिभृयात् सीतां रामो नाहं भजे पुनः ॥ ९ ॥

इति लोकाद् बहुमुखाद् दुराराध्यादसंविदः ।

पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम् ॥ १० ॥

अन्तर्वत्‍न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ ।

कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः ॥ ॥

अङ्‌गदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ ।

तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते ॥ १२ ॥

सुबाहुः श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः ।

गन्धर्वान् कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम् ॥ १३ ॥

तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत् ।

शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम् ।

हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम् ॥ १४ ॥


परीक्षित्‌ ! एक बार अपनी प्रजाकी स्थिति जानने के लिये भगवान्‌ श्रीराम जी रात के समय छिपकर बिना किसी को बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी। वह अपनी पत्नीसे कह रहा था ॥ ८ ॥ अरी ! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घरमें रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीताको रख लें, परंतु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता॥ ९ ॥ सचमुच सब लोगोंको प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खों की तो कमी नहीं है। जब भगवान्‌ श्रीराम ने बहुतोंके मुँहसे ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने श्रीसीताजी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकिमुनि के आश्रममें रहने लगीं ॥ १० ॥ सीताजी उस समय गर्भवती थीं। समय आनेपर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुएकुश और लव। वाल्मीकि मुनि ने उनके जातकर्मादि संस्कार किये ॥ ११ ॥ लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुएअंगद और चित्रकेतु। परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार भरतजीके भी दो ही पुत्र थेतक्ष और पुष्कल ॥ १२ ॥ तथा शत्रुघ्न के भी दो पुत्र हुएसुबाहु और श्रुतसेन। भरतजी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया ॥ १३ ॥ उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान्‌ श्रीरामकी सेवामें निवेदन किया। शत्रुघ्नजी ने मधुवनमें मधु के पुत्र लवण नामक राक्षसको मारकर वहाँ मथुरा नामकी पुरी बसायी ॥ १४ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



भगवान्‌ श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

भगवान् आत्मनात्मानं राम उत्तमकल्पकैः ।

सर्वदेवमयं देवं ईजे आचार्यवान् मखैः ॥ १ ॥

होत्रेऽददाद् दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः ।

अध्वर्यवे प्रतीचीं वा उत्तरां सामगाय सः ॥ २ ॥

आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा ।

मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोऽर्हति निःस्पृहः ॥ ३ ॥

इत्ययं तदलङ्‌कार वासोभ्यामवशेषितः ।

तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमङ्‌गल्या अवशेषिता ॥ ४ ॥

ते तु ब्राह्मणदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम् ।

प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे ॥ ५ ॥

अप्रत्तं नस्त्वया किं नु भगवन् भुवनेश्वर ।

यन्नोऽन्तर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा ॥ ६ ॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे ।

उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्‌घ्रये ॥ ७ ॥



श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीराम ने गुरु वसिष्ठजी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञोंके द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्माका यजन किया ॥ १ ॥ उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्माको दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी ॥ २ ॥ उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्य को दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी नि:स्पृह ब्राह्मण ही है ॥ ३ ॥ इस प्रकार सारे भूमण्डल का दान करके उन्होंने अपने शरीरके वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीताजी के पास भी केवल माङ्गलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे ॥ ४ ॥ जब आचार्य आदि ब्राह्मणोंने देखा कि भगवान्‌ श्रीराम तो ब्राह्मणोंको ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदयमें ब्राह्मणोंके प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेमसे द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान्‌ को लौटा दी और कहा ॥ ५ ॥ प्रभो ! आप सब लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदयके भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है ॥ ६ ॥ आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्तिवाले पुरुषोंमें आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओंको, जो किसीको किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन् ! आपके इस रामरूप को हम नमस्कार करते हैं॥ ७ ॥



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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

भ्रात्राभिर्नन्दितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत् पुरीम् ।
प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्‍नीः स्वमातरम् ॥ ४६ ॥
गुरून् वयस्यावरजान् पूजितः प्रत्यपूजयत् ।
वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत् समुपेयतुः ॥ ४७ ॥
पुत्रान् स्वमातरस्तास्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः ।
आरोप्याङ्‌केऽभिषिञ्चन्त्यो बाष्पौघैर्विजहुः शुचः ॥ ४८ ॥
जटा निर्मुच्य विधिवत् कुलवृद्धैः समं गुरुः ।
अभ्यषिञ्चद् यथैवेन्द्रं चतुःसिन्धुजलादिभिः ॥ ४९ ॥
एवं कृतशिरःस्नानः सुवासाः स्रग्व्यलंकृतः ।
स्वलंकृतैः सुवासोभिः भ्रातृभिर्भार्यया बभौ ॥ ५० ॥
अग्रहीदासनं भ्रात्रा प्रणिपत्य प्रसादितः ।
प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः ।
जुगोप पितृवद् रामो मेनिरे पितरं च तम् ॥ ५१ ॥
त्रेतायां वर्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत् ।
रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूतसुखावहे ॥ ५२ ॥
वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिन्धवः ।
सर्वे कामदुघा आसन् प्रजानां भरतर्षभ ॥ ५३ ॥
नाधिव्याधिजराग्लानि दुःखशोकभयक्लमाः ।
मृत्युश्च अनिच्छतां नासीद् रामे राजन्यधोक्षजे ॥ ५४ ॥
एकपत्‍नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः ।
स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्षयन् स्वयमाचरत् ॥ ५५ ॥
प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ।
भिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताहरन्मनः ॥ ५६ ॥

इस प्रकार भगवान्‌ ने भाइयों का अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सवसे परिपूर्ण हो रही थी। राजमहलमें प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबरके मित्रों और छोटोंका यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीने भी भगवान्‌के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया ॥ ४६-४७ ॥ उस समय जैसे मृतक शरीरमें प्राणोंका सञ्चार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रोंके आगमनसे हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोदमें बैठा लिया और अपने आँसुओंसे उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया ॥ ४८ ॥ इसके बाद वसिष्ठजीने दूसरे गुरुजनोंके साथ विधिपूर्वक भगवान्‌ की जटा उतरवायी और बृहस्पतिने जैसे इन्द्रका अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रोंके जल आदिसे उनका अभिषेक किया ॥ ४९ ॥ इस प्रकार सिरसे स्नान करके भगवान्‌ श्रीरामने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकीजीने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान्‌ श्रीरामजी अत्यन्त शोभायमान हुए ॥ ५० ॥ भरतजीने उनके चरणोंमें गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करनेपर भगवान्‌ श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्ममें तत्पर तथा वर्णाश्रमके आचारको निभानेवाली प्रजाका पिताके समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी ॥ ५१ ॥ परीक्षित्‌ ! जब समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाले परम धर्मज्ञ भगवान्‌ श्रीराम राजा हुए तब था तो त्रेतायुग, परंतु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्रसब-के-सब प्रजाके लिये कामधेनुके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले बन रहे थे ॥ ५३ ॥ इन्द्रियातीत भगवान्‌ श्रीरामके राज्य करते समय किसीको मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दु:ख, शोक, भय और थकावट नाममात्रके लिये भी नहीं थे। यहाँतक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ॥ ५४ ॥ भगवान्‌ श्रीराम ने एकपत्नी का व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अत्यन्त पवित्र एवं राजर्षियोंके-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्मकी शिक्षा देनेके लिये स्वयं उस धर्मका आचरण करते थे ॥ ५५ ॥ सतीशिरोमणि सीताजी अपने पतिके हृदयका भाव जानती रहतीं। वे प्रेमसे, सेवासे, शीलसे, अत्यन्त विनय से तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणों से अपने पति भगवान्‌ श्रीरामजी का चित्त चुराती रहती थीं ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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