॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ययाति चरित्र
श्रीशुक उवाच ।
यतिर्ययातिः संयातिः आयतिर्वियतिः कृतिः ।
षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १ ॥
राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।
यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २ ॥
पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद् द्विजैः ।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३ ॥
चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।
कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४ ॥
श्रीराजोवाच ।
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।
राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जैसे शरीरधारियों के छ: इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छ: पुत्र थे। उनके नाम थे—यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ॥ १ ॥ नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे। परंतु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझ सकता ॥ २ ॥ जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करनेकी चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे ॥ ३ ॥ ययातिने अपने चार छोटे भाइयोंको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा ॥ ४ ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! भगवान् शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? ॥ ५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से