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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
पूतना-उद्धार
विबुध्य
तां बालक मारिकाग्रहं
चराचरात्मा
स निमीलितेक्षणः ।
अनन्तमारोपयदङ्कमन्तकं
यथोरगं
सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः ॥ ८ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियों के आत्मा हैं । इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया
कि यह बच्चों को मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये । [*] जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान् श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया
॥ ८ ॥
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[*] पूतना को देखकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने नेत्र बंद कर लिये, इसपर भक्त कवियों और टीकाकारों ने अनेकों प्रकार की उत्प्रेक्षाएँ की हैं,
जिनमें कुछ ये हैं---
१.
श्रीमद्वल्लभाचार्यने सुबोधिनीमें कहा है—अविद्या ही पूतना है
। भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि मेरी दृष्टिके सामने अविद्या टिक नहीं सकती,
फिर लीला कैसे होगी, इसलिये नेत्र बन्द कर
लिये ।
२.
यह पूतना बाल-घातिनी है ‘पूतानपि नयति’ । यह पवित्र बालकोंको भी ले जाती है ।
ऐसा जघन्य कृत्य करनेवालीका मुँह नहीं देखना चाहिये, इसलिये
नेत्र बंद कर लिये ।
३.
इस जन्ममें तो इसने कुछ साधन किया नहीं है । संभव है मुझसे मिलनेके लिये पूर्व
जन्ममें कुछ किया हो । मानो पूतनाके पूर्व-पूर्व जन्मोंके साधन देखनेके लिये ही
श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये ।
४.
भगवान् ने अपने मनमें विचार किया कि मैंने पापिनीका दूध कभी नहीं पिया है । अब
जैसे लोग आँख बंद करके चिरायतेका काढ़ा पी जाते हैं, वैसे ही
इसका दूध भी पी जाऊँ । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
५.
भगवान्के उदरमें निवास करनेवाले असंख्य कोटि ब्रह्माण्डोंके जीव यह जानकर घबरा
गये कि श्यामसुन्दर पूतनाके स्तनमें लगा हलाहल विष पीने जा रहे हैं । अत: उन्हें
समझानेके लिये ही श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये ।
६.
श्रीकृष्णशिशुने विचार किया कि मैं गोकुलमें यह सोचकर आया था कि माखन-मिश्री
खाऊँगा । सो छठीके दिन ही विष पीनेका अवसर आ गया । इसलिये आँख बंद करके मानो
शङ्करजीका ध्यान किया कि आप आकर अपना अभ्यस्त विष-पान कीजिये, मैं दूध पीऊँगा ।
७.
श्रीकृष्णके नेत्रोंने विचार किया कि परम स्वतन्त्र ईश्वर इस दुष्टाको अच्छी-बुरी
चाहे जो गति दे दें,
परंतु हम दोनों इसे चन्द्रमार्ग अथवा सूर्यमार्ग दोनोंमेंसे एक भी
नहीं देंगे । इसलिये उन्होंने अपने द्वार बंद कर लिये ।
८.
नेत्रोंने सोचा पूतनाके नेत्र हैं तो हमारी जातिके; परंतु ये इस
क्रूर राक्षसीकी शोभा बढ़ा रहे हैं । इसलिये अपने होनेपर भी ये दर्शनके योग्य नहीं
हैं । इसलिये उन्होंने अपनेको पलकोंसे ढक लिया ।
९.
श्रीकृष्णके नेत्रोंमें स्थित धर्मात्मा निमिने उस दुष्टाको देखना उचित न समझकर
नेत्र बंद कर लिये ।
१०.
श्रीकृष्णके नेत्र राज-हंस हैं । उन्हें बकी पूतनाके दर्शन करनेकी कोई उत्कण्ठा
नहीं थी । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
११.
श्रीकृष्ण ने विचार किया कि बाहर से तो इसने माताका-सा रूप धारण कर रखा है, परंतु हृदय में अत्यन्त क्रूरता भरे हुए हैं । ऐसी स्त्रीका मुँह न देखना
ही उचित है । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१२.
उन्होंने सोचा कि मुझे निडर देखकर कहीं यह ऐसा न समझ जाय कि इसके ऊपर मेरा प्रभाव
नहीं चला और फिर कहीं लौट न जाय । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१३.
बाल-लीला के प्रारम्भमें पहले-पहल स्त्री से ही मुठभेड़ हो गयी, इस विचारसे विरक्तिपूर्वक नेत्र बंद कर लिये ।
१४.
श्रीकृष्णके मनमें यह बात आयी कि करुणा-दृष्टिसे देखूँगा तो इसे मारूँगा कैसे, और उग्र दृष्टिसे देखूँगा तो यह अभी भस्म हो जायगी । लीलाकी सिद्धिके लिये
नेत्र बंद कर लेना ही उत्तम है । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१५.
यह धात्री का वेष धारण करके आयी है, मारना उचित नहीं है
। परंतु यह और ग्वालबालोंको मारेगी । इसलिये इसका यह वेष देखे बिना ही मार डालना
चाहिये । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१६.
बड़े-से-बड़ा अनिष्ट योग से निवृत्त हो जाता है । उन्होंने नेत्र बंद करके मानो
योगदृष्टि सम्पादित की ।
१७.
पूतना यह निश्चय करके आयी थी कि मैं व्रजके सारे शिशुओंको मार डालूँगी, परंतु भक्तरक्षापरायण भगवान् की कृपासे व्रज का एक भी शिशु उसे दिखायी
नहीं दिया और बालकोंको खोजती हुई वह लीलाशक्तिकी प्रेरणासे सीधी नन्दालयमें आ
पहुँची, तब भगवान्ने सोचा कि मेरे भक्तका बुरा करनेकी बात
तो दूर रही, जो मेरे भक्तका बुरा सोचता है, उस दुष्टका मैं मुँह नहीं देखता; व्रज-बालक सभी
श्रीकृष्णके सखा हैं, परम भक्त हैं, पूतना
उनको मारनेका सङ्कल्प करके आयी है, इसलिये उन्होंने नेत्र
बंद कर लिये ।
१८.
पूतना अपनी भीषण आकृतिको छिपाकर राक्षसी मायासे दिव्य रमणी रूप बनाकर आयी है ।
भगवान्की दृष्टि पडऩेपर माया रहेगी नहीं और इसका असली भयानकरूप प्रकट हो जायगा ।
उसे सामने देखकर यशोदा मैया डर जायँ और पुत्रकी अनिष्टाशङ्कासे कहीं उनके हठात्
प्राण निकल जायँ,
इस आशङ्कासे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
१९.
पूतना हिंसापूर्ण हृदयसे आयी है, परंतु भगवान् उसकी हिंसाके
लिये उपयुक्त दण्ड न देकर उसका प्राण-वधमात्र करके परम कल्याण करना चाहते हैं ।
भगवान् समस्त सद्गुणोंके भण्डार हैं । उनमें धृष्टता आदि दोषोंका लेश भी नहीं है,
इसीलिये पूतनाके कल्याणार्थ भी उसका प्राण-वध करनेमें उन्हें लज्जा
आती है । इस लज्जासे ही उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
२०.
भगवान् जगत्पिता हैं—असुर-राक्षसादि भी उनकी सन्तान ही हैं । पर वे सर्वथा उच्छृङ्खल और
उद्दण्ड हो गये हैं, इसलिये उन्हें दण्ड देना आवश्यक है ।
स्नेहमय माता-पिता जब अपने उच्छृङ्खल पुत्रको दण्ड देते हैं, तब उसके मनमें दु:ख होता है । परंतु वे उसे भय दिखलानेके लिये उसे बाहर
प्रकट नहीं करते । इसी प्रकार भगवान् भी जब असुरोंको मारते हैं, तब पिताके नाते उनको भी दु:ख होता है; पर दूसरे
असुरोंको भय दिखलानेके लिये वे उसे प्रकट नहीं करते । भगवान् अब पूतनाको
मारनेवाले हैं, परंतु उसकी मृत्युकालीन पीड़ाको अपनी आँखों
देखना नहीं चाहते, इसीसे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
२१.
छोटे बालकोंका स्वभाव है कि वे अपनी मा के सामने खूब खेलते हैं, पर किसी अपरिचितको देखकर डर जाते हैं और नेत्र मूँद लेते हैं । अपरिचित
पूतनाको देखकर इसीलिये बाल-लीला-विहारी भगवान् ने नेत्र बंद कर लिये । यह उनकी
बाललीलाका माधुर्य है ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से