गुरुवार, 21 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

क्षुण्णाभ्यां करकुड्मलेन विगलद्वाष्पाम्बुदृग्भ्यां रुदन्
हुं हुं हूमिति रुद्धकण्ठकुहरादस्पष्टवाग्विभ्रम: ।।
मात्रासौ नवनीतचौर्यकुतुके प्राग्भॢत्सत: स्वाञ्चले-
नामृज्यास्य मुखं तवैतदखिलं वत्सेति कण्ठे कृत: ।।

एक दिन माताने माखनचोरी करनेपर श्यामसुन्दरको धमकाया, डाँटा-फटकारा । बस, दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी । कर-कमलसे आँखें मलने लगे । ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे । गला रुँध गया । मुँहसे बोला नहीं जाता था । बस, माता यशोदाका धैर्य टूट गया । अपने आँचलसे अपने लाला कन्हैयाका मुँह पोंछा और बड़े प्यारसे गले लगाकर बोलीं—‘लाला ! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है ।

एक दिनकी बात हैपूर्णचन्द्रकी चाँदनीसे मणिमय आँगन धुल गया था । यशोदा मैयाके साथ गोपियोंकी गोष्ठी जुड़ रही थी । वहीं खेलते-खेलते कृष्णचन्द्रकी दृष्टि चन्द्रमापर पड़ी । उन्होंने पीछेसे आकर यशोदा मैयाका घूँघट उतार लिया । और अपने कोमल करोंसे उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे । मैं लूँगा, मैं लूँगा’—तोतली बोलीसे इतना ही कहते । जब मैयाकी समझमें बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहाद्र्र दृष्टिसे पास बैठी ग्वालिनोंकी ओर देखा । अब वे विनयसे, प्यारसे फुसलाकर श्रीकृष्णको अपने पास ले आयीं और बोलीं—‘लालन ! तुम क्या चाहते हो, दूध !श्रीकृष्ण-नाक्या बढिय़ा दही ?’ ‘नाक्या खुरचन ?’ ‘नामलाई ?’ ‘नाताजा माखन ?’ ‘नाग्वालिनोंने कहा-बेटा ! रूठो मत, रोओ मत । जो माँगोगे सो देंगी ।श्रीकृष्णने धीरेसे कहा—‘घरकी वस्तु नहीं चाहियेऔर अँगुली उठाकर चन्द्रमाकी ओर संकेत कर दिया । गोपियाँ बोलीं-ओ मेरे बाप ! यह कोई माखनका लौंदा थोड़े ही है ? हाय ! हाय ! हम यह कैसे देंगी ? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाश के सरोवरमें तैर रहा है ।श्रीकृष्णने कहा—‘मैं भी तो खेलनेके लिये इस हंस को ही माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो । पार जानेके पूर्व ही मुझे ला दो ।

अब और भी मचल गये । धरतीपर पाँव पीट-पीटकर और हाथोंसे गला पकड़-पकड़ कर दो-दोकहने लगे और पहलेसे भी अधिक रोने लगे । दूसरी गोपियोंने कहा—‘बेटा ! राम-राम । इन्होंने तुमको बहला दिया है । यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाशमें ही रहनेवाला चन्द्रमा है ।श्रीकृष्ण हठ कर बैठे—‘मुझे तो यही दो; मेरे मनमें इसके साथ खेलनेकी बड़ी लालसा है । अभी दो, अभी दो । जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माताने गोदमें उठा लिया और प्यार करके बोलीं—‘मेरे प्राण ! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा । है यह माखन ही, परंतु तुमको देनेयोग्य नहीं है । देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है । इससे बढिय़ा होनेपर भी इसे कोई नहीं खाता है ।श्रीकृष्णने कहा—‘मैया ! मैया ! इसमें विष कैसे लग गया ।बात बदल गयी । मैयाने गोदमें लेकर मधुर-मधुर स्वरसे कथा सुनाना प्रारम्भ किया । मा-बेटेमें प्रश्रोत्तर होने लगे ।

यशोदा—‘लाला ! एक क्षीरसागर है ।

श्रीकृष्ण—‘मैया ! वह कैसा है ।

यशोदा—‘बेटा ! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसीका एक समुद्र है ।

श्रीकृष्ण—‘मैया ! कितनी गायोंने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा ।

यशोदा—‘कन्हैया ! वह गायका दूध नहीं है ।

श्रीकृष्ण—‘अरी मैया ! तू मुझे बहला रही है भला बिना गायके दूध कैसे ?’

यशोदा—‘वत्स! जिसने गायोंमें दूध बनाया है, वह गायके बिना भी दूध बना सकता है।

श्रीकृष्ण—‘मैया! वह कौन है?’

यशोदा—‘वह भगवान्‌ हैं; परंतु अग (उनके पास कोई जा नहीं सकता। अथवा कार रहित) हैं।

श्रीकृष्ण—‘अच्छा ठीक है, आगे कहो ।

यशोदा—‘एक बार देवता और दैत्योंमें लड़ाई हुई । असुरोंको मोहित करनेके लिये भगवान्‌ने क्षीरसागरको मथा ।   मंदराचल की रई बनी ।    वासुकि- नागकी रस्सी । एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव ।

श्रीकृष्ण—‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया ?’

यशोदा—‘हाँ बेटा ! उसीसे कालकूट नामका विष पैदा हुआ ।

श्रीकृष्ण—‘मैया ! विष तो साँपोंमें होता है, दूधमें कैसे निकला ?’

यशोदा—‘बेटा ! जब शङ्कर भगवान्‌ ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरतीपर गिर पड़ीं, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये । सो बेटा ! भगवान्‌ की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूध में से विष निकला ।

श्रीकृष्ण—‘अच्छा मैया ! यह तो ठीक है ।

यशोदा—‘बेटा ! (चन्द्रमाकी ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसीसे निकला है । इसलिये थोड़ा-सा विष इसमें भी लग गया । देखो, देखो, इसीको लोग कलङ्क कहते हैं । सो मेरे प्राण ! तुम घरका ही मक्खन खाओ ।

कथा सुनते-सुनते श्यामसुन्दरकी आँखोंमें नींद आ गयी और मैया ने उन्हें पलङ्ग पर सुला दिया।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले ।
अघृष्टजानुभिः पद्‌भिः विचक्रमतुरञ्जसा ॥ २६ ॥

राजर्षे ! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे [*] ॥ २६ ॥
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[1*] जब श्यामसुन्दर घुटनोंका सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घरमें अनेकों प्रकारकी कौतुकमयी लीला करने लगे
शून्ये चोरयत: स्वयं निजगृहे हैयङ्गवीनं मणि-
स्तम्भे स्वप्रतिविम्बमीक्षितवतस्तेनैव साद्र्धं भिया ।।
भ्रातर्मा वद मातरं मम समो भागस्तवापीहितो
भुङ्क्ष्वेत्यालपतो हरे: कलवचो मात्रा रह: श्रूयते ।।

एक दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्रीकन्हैयालालजी अपने सूने घरमें स्वयं ही माखन चुरा रहे थे । उनकी दृष्टि मणिके खम्भेमें पड़े हुए अपने प्रतिविम्बपर पड़ी । अब तो वे डर गये । अपने प्रतिविम्बसे बोले—‘अरे भैया ! मेरी मैया से कहियो मत । तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा । खा ले, भैया !यशोदा माता अपने लालाकी तोतली बोली सुन रही थीं ।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घरमें भीतर घुस आयीं । माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी

मात: क एष नवनीतमिदं त्वदीयं लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्ट: ।।
मद्वारणं न मनुते मयि रोषभाजि रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभ: ।।

मैया ! मैया ! यह कौन है ? लोभवश तुम्हारा माखन चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है । मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है । मैया ! तुम कुछ और मत सोचना । मेरे मनमें माखनका तनिक भी लोभ नहीं है ।

अपने दुध-मुँहे शिशुकी प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेह के आनन्द में मग्न हो गयीं ।
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एक दिन श्यामसुन्दर माता के बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे । इतनेमें ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं

कृष्ण ! क्वासि करोषि किं पितरिति श्रुत्वैव मातुर्वच:
साशङ्कं नवनीतचौर्यविरतो विश्रभ्य तामब्रवीत् ।।
मात: कङ्कणपद्मरागमहसा पाणिर्ममातप्यते
तेनायं नवनीतभाण्डविवरे विन्यस्य निर्वापित:।।

कन्हैया ! कन्हैया ! अरे ओ मेरे बाप ! कहाँ है, क्या कर रहा है ?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये । फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया ! यह जो तुमने मेरे कङ्कणमें पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था । इसीसे मैंने इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था ।
माता यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और आओ बेटा !ऐसा कहकर लालाको गोद में उठा लिया और प्यारसे चूमने लगीं ।
                                            

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 20 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

कालेन व्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ ।
जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिङ्‌गमाणौ विजह्रतुः ॥ २१ ॥
तावङ्‌घ्रियुग्ममनुकृष्य सरीसृपन्तौ
घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु ।
तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं
मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरन्ति मात्रोः ॥ २२ ॥
तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौ
पङ्‌काङ्‌गरागरुचिरौ उपगृह्य दोर्भ्याम् ।
दत्त्वा स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य
मुग्धस्मिताल्पदशनं ययतुः प्रमोदम् ॥ २३ ॥
यर्ह्यङ्‌गनादर्शनीय-कुमारलीलौ ।
अन्तर्व्रजे तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः ।
वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौ
प्रेक्षन्त्य उज्झितगृहा जहृषुर्हसन्त्यः ॥ २४ ॥
शृङ्‌ग्यग्निदंष्ट्र्यसिजल द्विजकण्टकेभ्यः
क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम् ।
गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ
शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम् ॥ २५ ॥

परीक्षित्‌ ! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे ॥ २१ ॥ दोनों भाई अपने नन्हें-नन्हें पाँवों को गोकुल की कीचड़ में  घसीटते हुए चलते । उस समय उनके पाँव और कमर के घुँघरू रुनझुन बजने लगते । वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता । वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते । कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्तिके पीछे हो लेते । फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओंरोहिणीजी और यशोदाजीके पास लौट आते ॥ २२ ॥ माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेहसे भर जातीं । उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी । जब उनके दोनों नन्हें-नन्हें-से शिशु अपने शरीर में कीचडक़ा अङ्गराग लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी । माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद में लेकर हृदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीचमें मुसकरा-मुसकराकर अपनी माताओं की ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दँतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्दके समुद्र में डूबने-उतराने लगतीं ॥ २३ ॥ जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब व्रजमें घरके बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं । जब वे किसी बैठे हुए बछड़ेकी पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी जोरसे पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौडऩे लगते । गोपियाँ अपने घरका काम-धंधा छोडक़र यही सब देखती रहतीं और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आनन्दमें मग्र हो जातीं ॥ २४ ॥ कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चञ्चल और बड़े खिलाड़ी थे । वे कहीं हरिन, गाय आदि सींगवाले पशुओंके पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आगसे खेलनेके लिये कूद पड़ते । कभी दाँतसे काटनेवाले कुत्तोंके पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते । कभी कूएँ या गड्ढेके पास जलमें गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के निकट चले जाते और कभी काँटोंकी ओर बढ़ जाते थे । माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परंतु उनकी एक न चलती । ऐसी स्थिति में वे घरका काम-धंधा भी नहीं सँभाल पातीं । उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त चञ्चल रहता था ॥२५॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

श्रीशुक उवाच ।
एवं संप्रार्थितो विप्रः स्वचिकीर्षितमेव तत् ।
चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः ॥ ११ ॥

श्रीगर्ग उवाच ।
अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन् सुहृदो गुणैः ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदुः ।
यदूनामपृथग्भावात् सङ्‌कर्षणमुशन्त्युत ॥ १२ ॥
आसन् वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः ।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ १३ ॥
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचित् जातस्तवात्मजः ।
वासुदेव इति श्रीमान् अभिज्ञाः संप्रचक्षते ॥ १४ ॥
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ १५ ॥
एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुल-नन्दनः ।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयं अञ्जस्तरिष्यथ ॥ १६ ॥
पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः ।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः ॥ १७ ॥
य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः ।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः ॥ १८ ॥
तस्मात् नन्दात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः ।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहितः ॥ १९ ॥

श्रीशुक उवाच ।
इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।
नन्दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम् ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंगर्गाचार्यजी तो संस्कार करना चाहते ही थे । जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्तरूप से दोनों बालकोंका नामकरण-संस्कार कर दिया ॥ ११ ॥
गर्गाचार्यजीने कहा—‘यह रोहिणीका पुत्र है । इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय । यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रोंको अपने गुणोंसे अत्यन्त आनन्दित करेगा । इसलिये इसका दूसरा नाम होगा राम। इसके बलकी कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम बलभी है । यह यादवोंमें और तुमलोगोंमें कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगोंमें फूट पडऩेपर मेल करावेगा, इसलिये इसका एक नाम सङ्कर्षणभी है ॥ १२ ॥ और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है । पिछले युगोंमें इसने क्रमश: श्वेत, रक्त और पीतये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे । अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है । इसलिये इसका नाम कृष्णहोगा ॥ १३ ॥ नन्दजी ! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजीके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग इसे श्रीमान् वासुदेवभी कहते हैं ॥ १४ ॥ तुम्हारे पुत्रके और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं । इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं । मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परंतु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ॥ १५ ॥ यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा । समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा । इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ॥ १६ ॥ व्रजराज ! पहले युगकी बात है । एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था । डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी । तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की ॥ १७ ॥ जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशुसे प्रेम करते हैं । वे बड़े भाग्यवान् हैं । जैसे विष्णुभगवान्‌के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतर या बाहर किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते ॥ १८ ॥ नन्दजी ! चाहे जिस दृष्टिसे देखेंगुणमें, सम्पत्ति और सौन्दर्यमें, कीर्ति और प्रभावमें तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान्‌ नारायणके समान है । तुम बड़ी सावधानी और तत्परतासे इसकी रक्षा करो॥ १९ ॥ इस प्रकार नन्दबाबाको भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्यजी अपने आश्रमको लौट गये । उनकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ा ही आनन्द हुआ । उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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मंगलवार, 19 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

श्रीशुक उवाच ।
गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः ।
व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेव प्रचोदितः ॥ १ ॥
तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ।
आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम् ॥ २ ॥
सूपविष्टं कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम् ।
नन्दयित्वाब्रवीद् ब्रह्मन् पूर्णस्य करवाम किम् ॥ ३ ॥
महद्विचलनं नॄणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।
निःश्रेयसाय भगवन् कल्पते नान्यथा क्वचित् ॥ ४ ॥
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तज्ज्ञानं अतीन्द्रियम् ।
प्रणीतं भवता येन पुमान्वेद परावरम् ॥ ५ ॥
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान् कर्तुमर्हसि ।
बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः ॥ ६ ॥

श्रीगर्ग उवाच ।
यदूनां अहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वतः ।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥ ७ ॥
कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः ।
देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति ॥ ८ ॥
इति सञ्चिन्तयन् श्रुत्वा देवक्या दारिकावचः ।
अपि हन्ता आगताशङ्‌कः तर्हि तन्नोऽनयो भवेत् ॥ ९ ॥

श्रीनन्द उवाच ।
अलक्षितोऽस्मिन् रहसि मामकैरपि गोव्रजे ।
कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यदुवंशियों के कुल-पुरोहित थे श्रीगर्गाचार्य जी । वे बड़े तपस्वी थे । वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये ॥ १ ॥ उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे हाथ जोडक़र उठ खड़े हुए । उनके चरणोंमें प्रणाम किया । इसके बाद ये स्वयं भगवान्‌ ही हैं’—इस भाव से उनकी पूजा की ॥ २ ॥ जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और कहा—‘भगवन् ! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ ३ ॥ आप-जैसे महात्माओंका हमारे-जैसे गृहस्थोंके घर आ जाना ही हमारे परम कल्याणका कारण है । हम तो घरोंमें इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपञ्चोंमें हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रमतक जा भी नहीं सकते । हमारे कल्याणके सिवा आपके आगमनका और कोई हेतु नहीं है ॥ ४ ॥ प्रभो ! जो बात साधारणत: इन्द्रियोंकी पहुँचके बाहर है अथवा भूत और भविष्यके गर्भमें निहित है, वह भी ज्यौतिष-शास्त्रके द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है । आपने उसी ज्यौतिष-शास्त्रकी रचना की है ॥ ५ ॥ आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये मेरे इन दोनों बालकों के नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्यमात्रका गुरु है॥ ६ ॥
गर्गाचार्यजीने कहानन्दजी ! मैं सब जगह यदुवंशियोंके आचार्यके रूपमें प्रसिद्ध हूँ । यदि मैं तुम्हारे पुत्रके संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकीका पुत्र है ॥ ७ ॥ कंसकी बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है । वसुदेवजीके साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है । जबसे देवकीकी कन्यासे उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकीके आठवें गर्भसे कन्याका जन्म नहीं होना चाहिये । यदि मैं तुम्हारे पुत्रका संस्कार कर दूँ और वह इस बालकको वसुदेवजीका लडक़ा समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा ॥ ८-९ ॥

नन्दबाबाने कहाआचार्यजी ! आप चुपचाप इस एकान्त गोशालामें केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालकका द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र कर दीजिये । औरोंकी कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बातको न जानने पावें ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

एकदार्भकमादाय स्वाङ्कमारोप्य भामिनी
प्रस्नुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता ॥ ३४ ॥
पीतप्रायस्य जननी सुतस्य रुचिरस्मितम्
मुखं लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम् ॥ ३५ ॥
खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः
सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च
द्वीपान्नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि
भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि ॥ ३६ ॥
सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन्सञ्जातवेपथुः
सम्मील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥ ३७ ॥

एक दिनकी बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशुको अपनी गोदमें लेकर बड़े प्रेमसे स्तन-पान करा रही थीं । वे वात्सल्य-स्नेहसे इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनोंसे अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था ॥ ३४ ॥ जब वे प्राय: दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुसकानसे युक्त मुखको चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्णको जँभाई आ गयी और माताने उनके मुखमें यह देखा [*] ॥ ३५ ॥ उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! अपने पुत्रके मुँहमें इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा । उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं[$] । वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३७ ॥
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[*] स्नेहमयी जननी और स्नेहके सदा भूखे भगवान्‌ ! उन्हें दूध पीनेसे तृप्ति ही नहीं होती थी । माँ के मनमें शङ्का हुईकहीं अधिक पीनेसे अपच न हो जाय । प्रेम सर्वदा अनिष्टकी आशङ्का उत्पन्न करता है । श्रीकृष्णने अपने मुखमें विश्वरूप दिखाकर कहा—‘अरी मैया ! तेरा दूध मैं अकेले ही नहीं पीता हूँ । मेरे मुखमें बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है । तू घबरावे मत’—

“स्तन्यं कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति वॢतष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य ।।
विश्वं विभागि पयसोऽस्य न केवलोऽहमस्माददॢश हरिणा किमु विश्वमास्ये ।।“

[$] वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लाला के मुखमें विश्व देखकर डर गयीं, परंतु वात्सल्य-प्रेमरस-भावित हृदय होनेसे उन्हें विश्वास नहीं हुआ । उन्होंनेयहविचार किया कि यह विश्वका बखेड़ा लालाके मुँहमें कहाँसे आया ? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखोंकी ही गड़बड़ी है । मानो इसीसे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 18 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

तृणावर्तः शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन्
कृष्णं नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद्भूरिभारभृत् ॥ २६ ॥
तमश्मानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया
गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद्भुतार्भकम् ॥ २७ ॥
गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलोचनः
अव्यक्तरावो न्यपतत्सहबालो व्यसुर्व्रजे ॥ २८ ॥
तमन्तरिक्षात्पतितं शिलायां
विशीर्णसर्वावयवं करालम्
पुरं यथा रुद्र शरेण विद्धं
स्त्रियो रुदत्यो ददृशुः समेताः ॥ २९ ॥
प्रादाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः
कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम्
तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं
विहायसा मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्
गोप्यश्च गोपाः किल नन्दमुख्या
लब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम् ॥ ३० ॥
अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसा
बालो निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात्पुनः
हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः
साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते ॥ ३१ ॥
किं नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं
पूर्तेष्टदत्तमुत भूतसौहृदम्
यत्सम्परेतः पुनरेव बालको
दिष्ट्या स्वबन्धून्प्रणयन्नुपस्थितः ॥ ३२ ॥
दृष्ट्वाद्भुतानि बहुशो नन्दगोपो बृहद्वने
वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः ॥ ३३ ॥

इधर तृणावर्त बवंडररूपसे जब भगवान्‌ श्रीकृष्णको आकाशमें उठा ले गया, तब उनके भारी बोझको न सँभाल सकनेके कारण उसका वेग शान्त हो गया । वह अधिक चल न सका ॥ २६ ॥ तृणावर्त अपनेसे भी भारी होनेके कारण श्रीकृष्णको नीलगिरिकी चट्टान समझने लगा । उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशुको अपनेसे अलग नहीं कर सका ॥ २७ ॥ भगवान्‌ ने इतने जोरसे उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया । उसकी आँखें बाहर निकल आयीं। बोलती बंद हो गयी । प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्णके साथ वह व्रजमें गिर पड़ा [*] ॥ २८ ॥ वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाशसे एक चट्टानपर गिर पड़ा और उसका एक-एक अङ्ग चकनाचूर हो गयाठीक वैसे ही, जैसे भगवान्‌ शङ्करके बाणोंसे आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था ॥ २९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके वक्ष:स्थलपर लटक रहे थे । यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं । उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्णको गोदमें ले लिया और लाकर उन्हें माताको दे दिया । बालक मृत्युके मुखसे सकुशल लौट आया । यद्यपि उसे राक्षस आकाशमें उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया । इस प्रकार बालक श्रीकृष्णको फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपोंको अत्यन्त आनन्द हुआ ॥ ३० ॥ वे कहने लगे—‘अहो ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है । देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी ! यह बालक राक्षसके द्वारा मृत्युके मुखमें डाल दिया गया था, परंतु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्टको उसके पाप ही खा गये ! सच है, साधुपुरुष अपनी समतासे ही सम्पूर्ण भयोंसे बच जाता है ॥ ३१ ॥ हमने ऐसा कौन-सा तप, भगवान्‌ की पूजा, प्याऊ-पौसला, कूआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवोंकी भलाई की थी, जिसके फलसे हमारा यह बालक मरकर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिये फिर लौट आया ? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात है॥ ३२ ॥ जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेवजीकी बातका बार-बार समर्थन किया ॥ ३३ ॥
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[*] पाण्डुदेशमें सहस्राक्ष नामके एक राजा थे । वे नर्मदा-तटपर अपनी रानियोंके साथ विहार कर रहे थे । उधरसे दुर्वासा ऋषि निकले, परंतु उन्होंने प्रणाम नहीं किया । ऋषिने शाप दिया—‘तू राक्षस हो जा ।जब वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजीने कह दिया—‘भगवान्‌ श्रीकृष्णके श्रीविग्रहका स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा ।वही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्णका संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया ।

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