रविवार, 12 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत

 

श्रीनन्द उवाच -

श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शङ्‌का च वोऽर्भके ।

एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गो मे यदुवाच ह ॥ १५ ॥

वर्णास्त्रयः किलास्यासन् गृह्णतोऽनुयुगं तनूः ।

शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ १६ ॥

प्रागयं वसुदेवस्य क्वचित् जातः तवात्मजः ।

वासुदेव इति श्रीमान् अभिज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ १७ ॥

बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।

गुण कर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ १८ ॥

एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः ।

अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥ १९ ॥

पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः ।

अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः ॥ २० ॥

य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः ।

नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः ॥ २१ ॥

तस्मान् नन्द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः ।

श्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः ॥ २२ ॥

इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।

मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णं अक्लिष्टकारिणम् ॥ २३ ॥

इति नन्दवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः ।

दृष्टश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः ।

मुदिता नन्दमानर्चुः कृष्णं च गतविस्मयाः ॥ २४ ॥

देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा

वज्रास्मवर्षानिलैः ।

सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं

दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन् ।

उत्पाट्यैककरेण शैलमबलो

लीलोच्छिलीन्ध्रं यथा ।

बिभ्रद् गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्

प्रीयान्न इन्द्रो गवाम् ॥ २५ ॥

 

नन्दबाबा ने कहागोपो ! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालक के विषय में तुम्हारी शङ्का दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्ग ने इस बालक को देखकर इसके विषय में ऐसा ही कहा था ॥ १५ ॥ तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। विभिन्न युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीतये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है ॥ १६ ॥ नन्दजी ! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेव के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जाननेवाले लोग इसका नाम श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं ॥ १७ ॥ तुम्हारे पुत्रके गुण और कर्मोंके अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परंतु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ॥ १८ ॥ यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा । इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ॥ १९ ॥ व्रजराज ! पूर्वकालमें एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था । डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी । तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की ॥ २० ॥ नन्दबाबा ! जो तुम्हारे इस साँवले शिशुसे प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान् हैं । जैसे विष्णुभगवान्‌ के करकमलों- की छत्र-छायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतरी या बाहरीकिसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते ॥ २१ ॥ नन्दजी ! चाहे जिस दृष्टिसे देखेंगुणसे, ऐश्वर्य और सौन्दर्यसे, कीर्ति और प्रभावसे तुम्हारा बालक स्वयं भगवान्‌ नारायणके ही समान है । अत: इस बालकके अलौकिक कार्योंको देखकर आश्चर्य न करना चाहिये ॥ २२ ॥ गोपो ! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह आदेश देकर अपने घर चले गये । तबसे मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करनेवाले इस बालकको भगवान्‌ नारायणका ही अंश मानता हूँ ॥ २३ ॥ जब व्रजवासियोंने नन्दबाबाके मुखसे गर्गजीकी यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा । क्योंकि अब वे अमित-तेजस्वी श्रीकृष्णके प्रभावको पूर्णरूपसे देख और सुन चुके थे । आनन्दमें भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ २४ ॥

जिस समय अपना यज्ञ भङ्ग हो जानेके कारण इन्द्र क्रोधके मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलोंकी बौछार और प्रचण्ड आँधीसे स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीडि़त हो गये थे । अपनी शरणमें रहनेवाले व्रजवासियों की यह दशा देखकर भगवान्‌ का हृदय करुणासे भर आया । परंतु फिर एक नयी लीला करनेके विचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे । जैसे कोई नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेलमें ही बरसाती छत्तेका पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्धन को उखाडक़र धारण कर लिया और सारे व्रजकी रक्षा की । इन्द्रका मद चूर करनेवाले वे ही भगवान्‌ गोविन्द हम पर प्रसन्न हों ॥ २५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत

 

श्रीशुक उवाच -

एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते ।

अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः ॥ १ ॥

बालकस्य यदेतानि कर्माणि अति अद्‍भुतानि वै ।

कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम् ॥ २ ॥

यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया ।

कथं बिभ्रद् गिरिवरं पुष्करं गजराडिव ॥ ३ ॥

तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः ।

पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः ॥ ४ ॥

हिन्वतोऽधः शयानस्य मास्यस्य चरणावुदक् ।

अनोऽपतद् विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम् ॥ ५ ॥

एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा ।

दैत्येन यस्तृणावर्त महन् कण्ठग्रहातुरम् ॥ ६ ॥

क्वचिद् हैयङ्‌गवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उलूखले ।

गच्छन् अर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत् ॥ ७ ॥

वने सञ्चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्वृतः ।

हन्तुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत् ॥ ८ ॥

वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया ।

हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया ॥ ९ ॥

हत्वा रासभदैतेयं तद्‍बन्धूंश्च बलान्वितः ।

चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्व फलान्वितम् ॥ १० ॥

प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना ।

अमोचयद् व्रजपशून् गोपांश्चारण्यवह्नितः ॥ ११ ॥

आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं ह्रदात् ।

प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रेऽसौ निर्विषोदकाम् ॥ १२ ॥

दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन् सर्वेषां नो व्रजौकसाम् ।

नन्द ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम् ॥ १३ ॥

क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम् ।

ततो नो जायते शङ्‌का व्रजनाथ तवात्मजे ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! व्रजके गोप भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्हें भगवान्‌ की अनन्त शक्तिका तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपसमें इस प्रकार कहने लगे॥ १ ॥ इस बालकके ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे-जैसे गँवार ग्रामीणों में जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दाकी बात है। यह भला कैसे उचित हो सकता है ॥ २ ॥ जैसे गजराज कोई कमल उखाडक़र उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्षके बालकने एक ही हाथसे गिरिराज गोवद्र्धनको उखाड़ लिया और खेल- खेलमें सात दिनोंतक उठाये रखा ॥ ३ ॥ यह साधारण मनुष्यके लिये भला, कैसे सम्भव है ? जब यह नन्हा-सा बच्चा था, उस समय बड़ी भयङ्कर राक्षसी पूतना आयी और इसने आँख बंद किये- किये ही उसका स्तन तो पिया ही, प्राण भी पी डालेठीक वैसे ही, जैसे काल शरीरकी आयुको निगल जाता है ॥ ४ ॥ जिस समय यह केवल तीन महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा ॥ ५ ॥ उस समय तो यह एक ही वर्षका था, जब दैत्य बवंडरके रूपमें इसे बैठे-बैठे आकाशमें उड़ा ले गया था। तुम सब जानते ही हो कि इसने उस तृणावर्त दैत्यको गला घोंटकर मार डाला ॥ ६ ॥ उस दिनकी बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध दिया था। यह घुटनोंके बल बकैंया खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला ॥ ७ ॥ जब यह ग्वालबाल और बलरामजीके साथ बछड़ोंको चरानेके लिये वनमें गया हुआ था, उस समय इसको मार डालनेके लिये एक दैत्य बगुलेके रूपमें आया और इसने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकडक़र उसे तिनकेकी तरह चीर डाला ॥ ८ ॥ जिस समय इसको मार डालनेकी इच्छासे एक दैत्य बछड़ेके रूपमें बछड़ों के झुंडमें घुस गया था, उस समय इसने उस दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला और उसे कैथके पेड़ोंपर पटककर उन पेड़ोंको भी गिरा दिया ॥ ९ ॥ इसने बलरामजी के साथ मिलकर गधे के रूपमें रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बन्धुओं को मार डाला और पके हुए फलोंसे पूर्ण तालवन को सबके लिये उपयोगी और मङ्गलमय बना दिया ॥ १० ॥ इसीने बलशाली बलरामजीके द्वारा क्रूर प्रलम्बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौओं और ग्वालबालोंको उबार लिया ॥ ११ ॥ यमुनाजलमें रहनेवाला कालियनाग कितना विषैला था ? परंतु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दहसे निकाल दिया और यमुनाजीका जल सदाके लिये विषरहितअमृतमय बना दिया ॥ १२ ॥ नन्दजी ! हम यह भी देखते हैं कि तुम्हारे इस साँवले बालकपर हम सभी व्रजवासियोंका अनन्त प्रेम है और इसका भी हमपर स्वाभाविक ही स्नेह है। क्या आप बतला सकते हैं कि इसका क्या कारण है ॥ १३ ॥ भला, कहाँ तो यह सात वर्षका नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराजको सात दिनोंतक उठाये रखना ! व्रजराज ! इसीसे तो तुम्हारे पुत्रके सम्बन्धमें हमें बड़ी शङ्का हो रही है ॥ १४ ॥

 

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शनिवार, 11 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

गोवर्धनधारण

 

तं प्रेमवेगान् निभृता व्रजौकसो

यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः ।

गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन् मुदा

दध्यक्षताद्‌भिर्युयुजुः सदाशिषः ॥ २९ ॥

यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः ।

कृष्णमालिङ्‌ग्य युयुजुः आशिषः स्नेहकातराः ॥ ३० ॥

दिवि देवगणाः सिद्धाः साध्या गन्धर्वचारणाः ।

तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव ॥ ३१ ॥

शङ्‌खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रचोदिताः ।

जगुर्गन्धर्वपतयः तुंबुरुप्रमुखा नृप ॥ ३२ ॥

ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो

राजन् स्वगोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः ।

तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका

गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः ॥ ३३ ॥

 

व्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था। पर्वत को रखते ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेहसे दही, चावल, जल आदि से उनका मङ्गल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदयसे शुभ आशीर्वाद दिये ॥ २९ ॥ यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानोंमें श्रेष्ठ बलरामजीने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय आकाशमें स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति करते हुए उनपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ३१ ॥ राजन् ! स्वर्गमें देवतालोग शङ्ख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान्‌ की मधुर लीला का गान करने लगे ॥ ३२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा की। उनके बगल में बलराम जी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे । उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करनेवाले, उसमें प्रेम जगाने वाले भगवान्‌ की गोवर्धनधारण आदि लीलाओंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे व्रजमें लौट आयीं ॥ ३३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

गोवर्धनधारण

 

इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् ।

दधार लीलया कृष्णः छत्राकमिव बालकः ॥ १९ ॥

अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः ।

यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः ॥ २० ॥

न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने ।

वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः ॥ २१ ॥

तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसः ।

यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः ॥ २२ ॥

क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः ।

वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात् ॥ २३ ॥

कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः ।

निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्‌कल्पः स्वान् मेघान् संन्यवारयत् ॥ २४ ॥

खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम् ।

निशम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत् ॥ ॥

निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।

उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः ॥ २६ ॥

ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम् ।

शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः ॥ २७ ॥

भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः ।

पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥ २८ ॥

 

इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाडक़र हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ॥ १९ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने गोपों से कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियो ! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियोंके साथ इस पर्वतके गड्ढेमें आकर आरामसे बैठ जाओ ॥ २० ॥ देखो, तुमलोग ऐसी शङ्का न करना कि मेरे हाथसे यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुमलोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे तुम्हें बचानेके लिये ही मैंने यह युक्ति रची है॥ २१ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सबको आश्वासन दियाढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्योंको अपने-अपने साथ लेकर सुभीते के अनुसार गोवद्र्धनके गड्ढेमें आ घुसे ॥ २२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा, आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए ॥ २३ ॥ श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौचक्के-से रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया ॥ २४ ॥ जब गोवर्धनधारी भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयङ्कर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाशसे बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपोंसे कहा॥ २५ ॥ मेरे प्यारे गोपो ! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी- पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया॥ २६ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ॥ २७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थानपर रख दिया ॥ २८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः ।

नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा ॥ ८ ॥

विद्योतमाना विद्युद्‌भिः स्तनन्तः स्तनयित्‍नुभिः ।

तीव्रैर्मरुद्‍गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः ॥ ९ ॥

स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्व-भीक्ष्णशः ।

जलौघैः प्लाव्यमाना भूः नादृश्यत नतोन्नतम् ॥ १० ॥

अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः ।

गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः ॥ ११ ॥

शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्या सारपीडिताः ।

वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः ॥ १२ ॥

कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो ।

त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल ॥ १३ ॥

शिलावर्षानिपातेन हन्यमानमचेतनम् ।

निरीक्ष्य भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः ॥ १४ ॥

अपर्त्त्वत्युल्बणं वर्षं अतिवातं शिलामयम् ।

स्वयागे विहतेऽस्माभिः इन्द्रो नाशाय वर्षति ॥ १५ ॥

तत्र प्रतिविधिं सम्यग् आत्मयोगेन साधये ।

लोकेशमानिनां मौढ्याद् हनिष्ये श्रीमदं तमः ॥ १६ ॥

न हि सद्‍भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः ।

मत्तोऽसतां मानभङ्‌गः प्रशमायोपकल्पते ॥ १७ ॥

तस्मात् मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम् ।

गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रजपर चढ़ आये और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीडि़त करने लगे ॥ ८ ॥ चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कडक़ने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ॥९॥ इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचाइसका पता चलना कठिन हो गया ॥ १० ॥ इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावातके झपाटेसे जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठंडके मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरण में आये ॥ ११ ॥ मूसलधार वर्षासे सताये जानेके कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चोंको निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा लिया था और वे काँपते- काँपते भगवान्‌ की चरणशरणमें पहुँचे ॥ १२ ॥ और बोले—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण ! केवल तुम्हारे ही भाग्यसे हमारी रक्षा होगी। प्रभो ! इस सारे गोकुलके एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्ही हो। भक्तवत्सल ! इन्द्रके क्रोधसे अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो॥ १३ ॥ भगवान्‌ ने देखा कि वर्षा और ओलोंकी मारसे पीडि़त होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्रकी है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है ॥ १४ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्रका यज्ञ-भङ्ग कर दिया है, इसीसे वे व्रजका नाश करनेके लिये बिना ऋतुके ही यह प्रचण्ड वायु और ओलोंके साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं ॥ १५ ॥ अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इसका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धनका घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥१६॥ देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पदका अभिमान न होना चाहिये। अत: यह उचित ही है कि इन सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भङ्ग कर दूँ। इससे अन्तमें उन्हें शान्ति ही मिलेगी ॥ १७ ॥ यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ। अत: मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालनका अवसर आ पहुँचा है’[*] ॥ १८ ॥

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[*] भगवान्‌ कहते हैं

 

“सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।

अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ।।“

 

जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और मैं तुम्हारा हूँइस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँयह मेरा व्रत है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ।

गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह ॥ १ ॥

गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम् ।

इन्द्रः प्रचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥ २ ॥

अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम् ॥ ३ ॥

यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः ।

विद्यां आन्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥ ४ ॥

वाचालं बालिशं स्तब्धं अज्ञं पण्डितमानिनम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ॥ ५ ॥

एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम् ।

धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत सङ्‌क्षयम् ॥ ६ ॥

अहं चैरावतं नागं आरुह्यानुव्रजे व्रजम् ।

मरुद्‍गणैर्महावेगैः नन्दगोष्ठजिघांसया ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परंतु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण थे ॥ १ ॥ इन्द्रको अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सांवतर्क नामक गण को व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी और कहा॥ २ ॥ ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धनका ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बलपर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला ॥ ३ ॥ जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव सेकर्ममय यज्ञोंसे इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होनेपर भी अपनेको बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्युका ग्रास है। फिर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है ॥ ५ ॥ एक तो ये यों ही धनके नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो ॥ ६ ॥ मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथीपर चढक़र नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरुद्गणों के साथ आता हूँ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 9 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता ।

प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः ॥ ३१ ॥

तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः ।

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान् ॥ ३२ ॥

उपहृत्य बलीन् सम्यग् सर्वान् आदृता यवसं गवाम् ।

गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम् ॥ ३३ ॥

अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्‌कृताः ।

गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः ॥ ३४ ॥

कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।

शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः ॥ ३५ ॥

तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने ।

अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात् ॥ ३६ ॥

एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः ।

हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम् ॥ ३७ ॥

इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिताः ।

यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा व्रजं ययुः ॥ ३८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कालात्मा भगवान्‌की इच्छा थी कि इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्रीसे गिरिराज और ब्राह्मणोंको सादर भेंटें दीं, तथा गौओंको हरी-हरी घास खिलायी। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपोंने गौओंको आगे करके गिरिराजकी प्रदक्षिणा की ॥ ३२-३३ ॥ ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति शृङ्गार करके और बैलोंसे जुती गाडिय़ोंपर सवार होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओं- का गान करती हुई गिरिराजकी परिक्रमा करने लगीं ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण गोपोंको विश्वास दिलानेके लिये गिरिराजके ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा मैं गिरिराज हूँइस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने उस स्वरूपको दूसरे व्रज-वासियोंके साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे—‘देखो, कैसा आश्चर्य है ! गिरिराजने साक्षात् प्रकट होकर हमपर कृपा की है ॥ ३६ ॥ ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओंका कल्याण करनेके लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें॥ ३७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्णके साथ सब व्रजमें लौट आये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...