॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
नन्दबाबा
से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत
श्रीनन्द
उवाच -
श्रूयतां
मे वचो गोपा व्येतु शङ्का च वोऽर्भके ।
एनं
कुमारमुद्दिश्य गर्गो मे यदुवाच ह ॥ १५ ॥
वर्णास्त्रयः
किलास्यासन् गृह्णतोऽनुयुगं तनूः ।
शुक्लो
रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ १६ ॥
प्रागयं
वसुदेवस्य क्वचित् जातः तवात्मजः ।
वासुदेव
इति श्रीमान् अभिज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ १७ ॥
बहूनि
सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।
गुण
कर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ १८ ॥
एष
वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः ।
अनेन
सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥ १९ ॥
पुरानेन
व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः ।
अराजके
रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिताः ॥ २० ॥
य
एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः ।
नारयोऽभिभवन्त्येतान्
विष्णुपक्षानिवासुराः ॥ २१ ॥
तस्मान्
नन्द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः ।
श्रिया
कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः ॥ २२ ॥
इत्यद्धा
मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।
मन्ये
नारायणस्यांशं कृष्णं अक्लिष्टकारिणम् ॥ २३ ॥
इति
नन्दवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः ।
दृष्टश्रुतानुभावास्ते
कृष्णस्यामिततेजसः ।
मुदिता
नन्दमानर्चुः कृष्णं च गतविस्मयाः ॥ २४ ॥
देवे
वर्षति यज्ञविप्लवरुषा
वज्रास्मवर्षानिलैः
।
सीदत्पालपशुस्त्रि
आत्मशरणं
दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन्
।
उत्पाट्यैककरेण
शैलमबलो
लीलोच्छिलीन्ध्रं
यथा ।
बिभ्रद्
गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्
प्रीयान्न
इन्द्रो गवाम् ॥ २५ ॥
नन्दबाबा
ने कहा—गोपो ! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालक के विषय में तुम्हारी
शङ्का दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्ग ने इस बालक को देखकर इसके विषय में ऐसा ही
कहा था ॥ १५ ॥ ‘तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युग में शरीर
ग्रहण करता है। विभिन्न युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीत—ये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है ॥ १६ ॥
नन्दजी ! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेव के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जाननेवाले लोग ‘इसका नाम
श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं ॥ १७ ॥ तुम्हारे पुत्रके
गुण और कर्मोंके अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामोंको
जानता हूँ, परंतु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ॥ १८ ॥ यह
तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओंको यह बहुत
ही आनन्दित करेगा । इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे
पार कर लोगे ॥ १९ ॥ व्रजराज ! पूर्वकालमें एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया
था । डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी । तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन
पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की ॥ २० ॥
नन्दबाबा ! जो तुम्हारे इस साँवले शिशुसे प्रेम करते हैं, वे
बड़े भाग्यवान् हैं । जैसे विष्णुभगवान् के करकमलों- की छत्र-छायामें रहनेवाले
देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम
करनेवालोंको भीतरी या बाहरी—किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत
सकते ॥ २१ ॥ नन्दजी ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें—गुणसे,
ऐश्वर्य और सौन्दर्यसे, कीर्ति और प्रभावसे
तुम्हारा बालक स्वयं भगवान् नारायणके ही समान है । अत: इस बालकके अलौकिक
कार्योंको देखकर आश्चर्य न करना चाहिये ॥ २२ ॥ गोपो ! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह
आदेश देकर अपने घर चले गये । तबसे मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करनेवाले इस बालकको
भगवान् नारायणका ही अंश मानता हूँ ॥ २३ ॥ जब व्रजवासियोंने नन्दबाबाके मुखसे
गर्गजीकी यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा । क्योंकि अब
वे अमित-तेजस्वी श्रीकृष्णके प्रभावको पूर्णरूपसे देख और सुन चुके थे । आनन्दमें
भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ २४ ॥
जिस
समय अपना यज्ञ भङ्ग हो जानेके कारण इन्द्र क्रोधके मारे आग-बबूला हो गये थे और
मूसलधार वर्षा करने लगे थे,
उस समय वज्रपात, ओलोंकी बौछार और प्रचण्ड
आँधीसे स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीडि़त हो गये थे ।
अपनी शरणमें रहनेवाले व्रजवासियों की यह दशा देखकर भगवान् का हृदय करुणासे भर आया
। परंतु फिर एक नयी लीला करनेके विचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे । जैसे कोई
नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेलमें ही बरसाती छत्तेका पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्धन को उखाडक़र धारण कर लिया और
सारे व्रजकी रक्षा की । इन्द्रका मद चूर करनेवाले वे ही भगवान् गोविन्द हम पर
प्रसन्न हों ॥ २५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से