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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
गोपिकागीत
अटति
यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते
त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं
श्रीमुखं च ते
जड
उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥ १५ ॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान्
अतिविलङ्घ्य
तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव
योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६ ॥
रहसि
संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं
प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः
श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा
मुह्यते मनः ॥ १७ ॥
व्रजवनौकसां
व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं
विश्वमङ्गलम् ।
त्यज
मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां
यन्निषूदनम् ॥ १८ ॥
प्यारे
! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब
तुम सन्ध्याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकोंसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द
हम देखती हैं, उस समय पलकोंका गिरना हमारे लिये भार हो जाता
है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥
प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति- पुत्र, भाई-बन्धु और
कुल-परिवार का त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लङ्घन
करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे
मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी ! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको
तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है ॥ १६ ॥ प्यारे ! एकान्तमें तुम मिलनकी
आकाङ्क्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे। ठिठोली
करके हमें छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम
देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल, जिसपर लक्ष्मीजी
नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है
और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ॥ १७ ॥ प्यारे ! तुम्हारी यह
अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दु:ख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण
मङ्गल करनेके लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी
ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोग को सर्वथा
निर्मूल कर दे ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से