गुरुवार, 23 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

गोपिकागीत

 

अटति यद् भवानह्नि काननं

त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते

जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥ १५ ॥

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान्

अतिविलङ्‌घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गतिविदस्तवोद्‍गीतमोहिताः

कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६ ॥

रहसि संविदं हृच्छयोदयं

प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।

बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते

मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७ ॥

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्‌ग ते

वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्‌गलम् ।

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां

स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८ ॥

 

प्यारे ! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकोंसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती हैं, उस समय पलकोंका गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है ॥ १५ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति- पुत्र, भाई-बन्धु और कुल-परिवार का त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी ! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है ॥ १६ ॥ प्यारे ! एकान्तमें तुम मिलनकी आकाङ्क्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे। ठिठोली करके हमें छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल, जिसपर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ॥ १७ ॥ प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दु:ख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मङ्गल करनेके लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोग को सर्वथा निर्मूल कर दे ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 


  




बुधवार, 22 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

गोपिकागीत

 

चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्

नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिलतृणाङ्‌कुरैः सीदतीति नः

कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११ ॥

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैः

वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।

घनरजस्वलं दर्शयन् मुहु

र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२ ॥

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं

धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।

चरणपङ्‌कजं शन्तमं च ते

रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३ ॥

सुरतवर्धनं शोकनाशनं

स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां

वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४ ॥

 

हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दु:ख होता है ॥ ११ ॥ दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उडक़र घनी धूल पड़ी हुई है। हमारे वीर प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकाङ्क्षाप्रेम उत्पन्न करते हो ॥ १२ ॥ प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दु:खोंको मिटानेवाले हो। तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं। आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुञ्जविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:स्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणे ! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुखको, आकाङ्क्षाको बढ़ानेवाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्तापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली बाँसुरी भलीभाँति उसे चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता। हमारे वीर ! अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

गोपिकागीत

 

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया

बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

विधिकरीरिमा वीर मुह्यती

रधरसीधुनाप्याययस्व नः ॥ ८ ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं

कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्‌गलं श्रीमदाततं

भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥ ९ ॥

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं

विहरणं च ते ध्यानमङ्‌गलम् ।

रहसि संविदो या हृदि स्पृशः

कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १० ॥

 

कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं। उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ॥ ८ ॥ प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओंभक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मङ्गलपरम कल्याणका दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ॥ ९ ॥ प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्र हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मङ्गलदायक है, उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 21 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गोपिकागीत

 

विरचिताभयं वृष्णिधूर्य ते

चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।

करसरोरुहं कान्त कामदं

शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५ ॥

व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां

निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।

भज सखे भवत् किङ्‌करीः स्म नो

जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६ ॥

प्रणतदेहिनां पापकर्षणं

तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं

कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७ ॥

 

अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे ! जो लोग जन्म- मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ॥ ५ ॥ व्रजवासियोंके दु:ख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मन्द-मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मान-मदको चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ ॥ ६ ॥ तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँप के फणोंतक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से जल रहा है। तुम्हारी मिलने की आकाङ्क्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदयकी ज्वाला को शान्त कर दो ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोपिकागीत

 

गोप्य ऊचुः -

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका

स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १ ॥

शरदुदाशये साधुजातसत्

सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका

वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २ ॥

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्

वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद् विश्वतो भयाद्

ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥

न खलु गोपीकानन्दनो भवान्

अखिलदेहिनां अन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये

सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ ४ ॥

 

गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं—‘प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोडक़र यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परंतु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन- वन में भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥ हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिका के सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ? ॥ २ ॥ पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजी के विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगर के रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥ ३ ॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 20 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः ।

यां गोपीमनयत्कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने ॥ ३६ ॥

सा च मेने तदात्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम् ।

हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः ॥ ३७ ॥

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत् ।

न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः ॥ ३८ ॥

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति ।

ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत ॥ ३९ ॥

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज ।

दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय सन्निधिम् ॥ ४० ॥

 

श्रीशुक उवाच

अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्गं गोप्योऽविदूरितः ।

ददृशुः प्रियविश्लेषान्मोहितां दुःखितां सखीम् ॥ ४१ ॥

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात् ।

अवमानं च दौरात्म्याद्विस्मयं परमं ययुः ॥ ४२ ॥

ततोऽविशन् वनं चन्द्र ज्योत्स्ना यावद्विभाव्यते ।

तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः ॥ ४३ ॥

तन्मनस्कास्तदलापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः ।

तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मगाराणि सस्मरुः ॥ ४४ ॥

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः ।

समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकाङ्क्षिताः ॥ ४५ ॥

 

 

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकरअपनी सुधबुध खोकर एक-दूसरेको भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं। इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको वनमें छोडक़र जिस भाग्यवती गोपीको एकान्तमें ले गये थे, उसने समझा कि मैं ही समस्त गोपियोंमें श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियोंको छोडक़र, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं ॥ ३६-३७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शङ्करके भी शासक हैं। वह गोपी वनमें जाकर अपने प्रेम और सौभाग्यके मदसे मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्णसे कहने लगीं—‘प्यारे ! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधेपर चढ़ाकर ले चलो॥ ३८ ॥ अपनी प्रियतमाकी यह बात सुनकर श्यामसुन्दरने कहा—‘अच्छा प्यारी ! तुम अब मेरे कंधेपर चढ़ लो।यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधेपर चढऩे चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी ॥ ३९ ॥ हा नाथ ! हा रमण ! हा प्रेष्ठ ! हा महाभुज ! तुम कहाँ हो ! कहाँ हो !! मेरे सखा ! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियाँ भगवान्‌ के चरणचिह्नोंके सहारे उनके जानेका मार्ग ढूँढ़ती-ढूँढ़ती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूरसे ही उन्हेंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुखी होकर अचेत हो गयी है ॥ ४१ ॥ जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसीसे वे अन्तर्धान हो गये।उसकी बात सुनकर गोपियोंके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥

इसके बाद वनमें जहाँतक चन्द्रदेवकी चाँदनी छिटक रही थी, वहाँतक वे उन्हें ढूँढ़ती हुई गयीं। परंतु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार हैघोर जंगल हैहम ढूँढ़ती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अंदर घुस जायँगे, तब वे उधरसे लौट आयीं ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता ? ॥ ४४ ॥ गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकाङ्क्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावना में डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजी के पावन पुलिन पररमणरेती में लौट आयीं और एक साथ मिल कर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां कृष्णान्वेषणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

एवं कृष्णं पृच्छमाना व्र्ण्दावनलतास्तरून् ।

व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः ॥ २४ ॥

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।

लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोज वज्राङ्कुशयवादिभिः ॥ २५ ॥

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः ।

वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन् ॥ २६ ॥

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।

अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥ २७ ॥

अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।

यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ २८ ॥

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।

यान् ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ २९ ॥

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्-

यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ॥ ३० ॥

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः

खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः ॥ ३१ ॥

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम् ।

गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः ॥ ३२ ॥

अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना  

अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः ।

प्रपदाक्रमण एते पश्यतासकले पदे ॥ ३३ ॥

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम् ।

तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम् ॥ ३४ ॥

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।

कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावनके वृक्ष और लता आदिसे फिर भी श्रीकृष्णका पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्‌के चरणचिह्न देखे ॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अङ्कुश और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नोंके द्वारा व्रजवल्लभ भगवान्‌को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं, तब उन्हें श्रीकृष्णके साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपसमें कहने लगीं॥ २६ ॥ जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाली किस बड़भागिनीके ये चरणचिह्न हैं ? ॥ २७ ॥ अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह आराधिकाहोगी। इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दरने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्तमें ले गये हैं ॥ २८ ॥ प्यारी सखियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं; क्योंकि ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं॥ २९ ॥ अरी सखी ! चाहे कुछ भी होयह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्णको एकान्तमें ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधाका रस पी रही है, इस गोपीके उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदयमें बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं॥ ३० ॥ यहाँ उस गोपीके पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दरने देखा होगा कि मेरी प्रेयसीके सुकुमार चरणकमलोंमें घासकी नोक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधेपर चढ़ा लिया होगा ॥ ३१ ॥ सखियो ! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्णके चरणचिह्न अधिक गहरेबालूमें धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तुको उठाकर चले हैं, उसीके बोझसे उनके पैर जमीनमें धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामीने अपनी प्रियतमाको अवश्य कंधेपर चढ़ाया होगा ॥ ३२ ॥ देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी व्रजवल्लभने फूल चुननेके लिये अपनी प्रेयसीको नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसीके लिये फूल चुने हैं। उचक-उचककर फूल तोडऩेके कारण यहाँ उनके पंजे तो धरतीमें गड़े हुए हैं और एड़ीका पता ही नहीं है ॥ ३३ ॥ परम प्रेमी श्रीकृष्णने कामी पुरुषके समान यहाँ अपनी प्रेयसीके केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलोंको प्रेयसीकी चोटीमें गूँथनेके लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें कामकी कल्पना कैसे हो सकती है ? फिर भी उन्होंने कामियोंकी दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियोंकी कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपीके साथ एकान्तमें क्रीडा की थीएक खेल रचा था ॥ ३५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 19 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

 

इत्युन्मत्तवचो गोप्यः कृष्णान्वेषणकातराः ।

लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिकाः ॥ १४ ॥

कस्याचित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम् ।

तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहन् शकटायतीम् ॥ १५ ॥

दैत्यायित्वा जहारान्यामेको कृष्णार्भभावनाम् ।

रिङ्गयामास काप्यङ्घ्री कर्षन्ती घोषनिःस्वनैः ॥ १६ ॥

कृष्णरामायिते द्वे तु गोपायन्त्यश्च काश्चन ।

वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम् ॥ १७ ॥

आहूय दूरगा यद्वत्कृष्णस्तमनुवर्ततीम् ।

वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्याः शंसन्ति साध्विति ॥ १८ ॥

कस्याञ्चित्स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु ।

कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मनाः ॥ १९ ॥

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मय ।

इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निदधेऽम्बरम् ॥ २० ॥

आरुह्यैका पदाक्रम्य शिरस्याहापरां नृप ।

दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक् ॥ २१ ॥

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम् ।

चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा ॥ २२ ॥

बद्धान्यया स्रजा काचित्तन्वी तत्र उलूखले ।

भीता सुदृक्पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम् ॥ २३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान्‌ श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान्‌की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगीं ॥ १४ ॥ एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयी, तो किसीने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैरकी ठोकर मारकर उलट दिया ॥ १५ ॥ कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्यका रूप धारण करके उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे ॥ १६ ॥ एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूपमें हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियोंने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियोंको मारनेकी लीला की ॥ १७ ॥ जैसे श्रीकृष्ण वनमें करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओंको बुलानेका खेल खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ वाह-वाहकरके उसकी प्रशंसा करने लगीं ॥ १८ ॥ एक गोपी अपनेको श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखीके गलेमें बाँह डालकर चलती और गोपियोंसे कहने लगती—‘मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो॥ १९ ॥ कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती— ‘अरे व्रजवासियो ! तुम आँधी-पानीसे मत डरो। मैंने उससे बचनेका उपाय निकाल लिया है।ऐसा कहकर गोवर्धन-धारणका अनुकरण करती हुई वह अपनी ओढऩी उठाकर ऊपर तान लेती ॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिरपर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी—‘रे दुष्ट साँप ! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ ॥ २१ ॥ इतनेमें ही एक गोपी बोली—‘अरे ग्वालो ! देखो, वनमें बड़ी भयङ्कर आग लगी है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखे मूँद लो, मैं अनायास ही तुमलोगोंकी रक्षा कर लूँगा॥ २२ ॥ एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलोंकी मालासे श्रीकृष्ण को ऊखलमें बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथोंसे मुँह ढाँककर भयकी नकल करने लगी ॥ २३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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