मंगलवार, 28 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

महारास

 

प्राकृत देहका निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारणइन तीन देहोंके संयोगसे। जबतक कारण शरीररहता है, तबतक इस प्राकृत देहसे जीवको छुटकारा नहीं मिलता। कारण शरीरकहते हैं पूर्वकृत कर्मोंके उन संस्कारोंको, जो देह-निर्माणमें कारण होते हैं। इस कारण शरीरके आधारपर जीवको बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें पडऩा होता है और यह चक्र जीवकी मुक्ति न होनेतक अथवा कारणका सर्वथा अभाव न होनेतक चलता ही रहता है। इसी कर्मबन्धनके कारण पाञ्चभौतिक स्थूलशरीर मिलता हैजो रक्त, मांस, अस्थि आदिसे भरा और चमड़ेसे ढका होता है। प्रकृतिके राज्यमें जितने शरीर होते हैं, सभी वस्तुत: योनि और बिन्दुके संयोगसे ही बनते हैं; फिर चाहे कोई कामजनित निकृष्ट मैथुनसे उत्पन्न हो या ऊध्र्वरेता महापुरुषके संकल्पसे, बिन्दुके अधोगामी होनेपर कर्तव्यरूप श्रेष्ठ मैथुनसे हो, अथवा बिना ही मैथुनके नाभि, हृदय, कण्ठ, कर्ण, नेत्र, सिर, मस्तक आदिके स्पर्शसे, बिना ही स्पर्शके केवल दृष्टिमात्रसे अथवा बिना देखे केवल संकल्पसे ही उत्पन्न हो । ये मैथुनी-अमैथुनी (अथवा कभी-कभी स्त्री या पुरुष-शरीरके बिना भी उत्पन्न होनेवाले) सभी शरीर हैं योनि और बिन्दुके संयोगजनित ही। ये सभी प्राकृत शरीर हैं। इसी प्रकार योगियोंके द्वारा निर्मित निर्माणकाययद्यपि अपेक्षाकृत शुद्ध हैं, परंतु वे भी हैं प्राकृत ही। पितर या देवोंके दिव्य कहलानेवाले शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण हैं, जो महाप्रलयमें भी नष्ट नहीं होते। और भगवद्देह तो साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है। देव-शरीर प्राय: रक्त-मांस-मेद-अस्थिवाले नहीं होते। अप्राकृत शरीर भी नहीं होते। फिर भगवान्‌ श्रीकृष्णका भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त-मांस-अस्थिमय होता ही कैसे। वह तो सर्वथा चिदानन्दमय है। उसमें देह-देही, गुण-गुणी, रूप-रूपी, नाम-नामी और लीला तथा लीलापुरुषोत्तमका भेद नहीं है। श्रीकृष्णका एक-एक अङ्ग पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्णका मुखमण्डल जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्णका पदनख भी पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्णकी सभी इन्द्रियोंसे सभी काम हो सकते हैं। उनके कान देख सकते हैं, उनकी आँखें सुन सकती हैं, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनकी त्वचा स्वाद ले सकती है। वे हाथोंसे देख सकते हैं, आँखोंसे चल सकते हैं। श्रीकृष्णका सब कुछ श्रीकृष्ण होनेके कारण वह सर्वथा पूर्णतम है। इसीसे उनकी रूपमाधुरी नित्यवद्र्धनशील, नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि वह स्वयं अपनेको ही आकर्षित कर लेती है। फिर उनके सौन्दर्य-माधुर्यसे गौ-हरिन और वृक्ष-बेल पुलकित हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है। भगवान्‌के ऐसे स्वरूपभूत शरीरसे गंदा मैथुनकर्म सम्भव नहीं। मनुष्य जो कुछ खाता है, उससे क्रमश: रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा और अस्थि बनकर अन्तमें शुक्र बनता है; इसी शुक्रके आधारपर शरीर रहता है और मैथुनक्रियामें इसी शुक्रका क्षरण हुआ करता है। भगवान्‌ का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी सृष्टिका है और न दैवी ही है वह तो इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है। उसमें रक्त, मांस अस्थि आदि नहीं हैं; अतएव उसमें शुक्र भी नहीं है। इसलिये उससे प्राकृत पाञ्चभौतिक शरीरोंवाले स्त्री-पुरुषोंके रमण या मैथुनकी कल्पना भी नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान्‌को उपनिषद्में अखण्ड ब्रह्मचारीबतलाया गया है और इसीसे भागवतमें उनके लिये अवरुद्धसौरतआदि शब्द आये हैं। फिर कोई शङ्का करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियोंके इतने पुत्र कैसे हुए तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भागवती सृष्टि थी, भगवान्‌के संकल्पसे हुई थी। भगवान्‌ के शरीरमें जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान्‌ की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचनसे भी यही सिद्ध होता है कि गोपियोंके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवत्-राज्यकी लीला है, लौकिक काम-क्रीडा नहीं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

महारास

 

यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान्‌ का शरीर जीव-शरीरकी भाँति जड नहीं होता। जडकी सत्ता केवल जीवकी दृष्टिमें होती है, भगवान्‌ की दृष्टिमें नहीं। यह देह है और यह देही है, इस प्रकारका भेदभाव केवल प्रकृतिके राज्यमें होता है। अप्राकृत लोकमेंजहाँकी प्रकृति भी चिन्मय हैसब कुछ चिन्मय ही होता है; वहाँ अचित् की प्रतीति तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान्‌ की लीलाकी सिद्धिके लिये होती है। इसलिये स्थूलतामेंया यों कहिये कि जडराज्यमें रहनेवाला मस्तिष्क जब भगवान्‌की अप्राकृत लीलाओंके सम्बन्धमें विचार करने लगता है, तब वह अपनी पूर्व वासनाओंके अनुसार जडराज्यकी धारणाओं, कल्पनाओं और क्रियाओंका ही आरोप उस दिव्य राज्यके विषयमें भी करता है, इसलिये दिव्यलीलाके रहस्यको समझनेमें असमर्थ हो जाता है। यह रास वस्तुत: परम उज्ज्वल रसका एक दिव्य प्रकाश है। जड जगत्की बात तो दूर रही, ज्ञानरूप या विज्ञानरूप जगत्में भी यह प्रकट नहीं होता। अधिक क्या, साक्षात् चिन्मय तत्त्वमें भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रसका लेशाभास नहीं देखा जाता। इस परम रसकी स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्णप्रेमस्वरूपा गोपीजनोंके मधुर हृदयमें ही होती है। इस रासलीलाके यथार्थस्वरूप और परम माधुर्यका आस्वाद उन्हींको मिलता है, दूसरे लोग तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

भगवान्‌ के समान ही गोपियाँ भी परमरसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। साधनाकी दृष्टिसे भी उन्होंने न केवल जड शरीरका ही त्याग कर दिया है, बल्कि सूक्ष्म शरीरसे प्राप्त होनेवाले स्वर्ग, कैवल्यसे अनुभव होनेवाले मोक्षऔर तो क्या, जडताकी दृष्टिका ही त्याग कर दिया है। उनकी दृष्टिमें केवल चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं, उनके हृदयमें श्रीकृष्णको तृप्त करनेवाला प्रेमामृत है। उनकी इस अलौकिक स्थितिमें स्थूलशरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्धसे होनेवाले अङ्ग- सङ्गकी कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। ऐसी कल्पना तो केवल देहात्मबुद्धिसे जकड़े हुए जीवोंकी ही होती है। जिन्होंने गोपियोंको पहचाना है, उन्होंने गोपियोंकी चरणधूलिका स्पर्श प्राप्त करके अपनी कृतकृत्यता चाही है। ब्रह्मा, शङ्कर, उद्धव और अर्जुनने गोपियोंकी उपासना करके भगवान्‌के चरणोंमें वैसे प्रेमका वरदान प्राप्त किया है या प्राप्त करनेकी अभिलाषा की है। उन गोपियोंके दिव्य भावको साधारण स्त्री-पुरुषके भाव-जैसा मानना गोपियोंके प्रति, भगवान्‌ के प्रति और वास्तवमें सत्यके प्रति महान् अन्याय एवं अपराध है। इस अपराधसे बचनेके लिये भगवान्‌ की दिव्य लीलाओंपर विचार करते समय उनकी अप्राकृत दिव्यताका स्मरण रखना परमावश्यक है।

भगवान्‌ का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है। वह अजन्मा और अविनाशी है, हानोपादानरहित है। वह नित्य सनातन शुद्ध भगवत्स्वरूप ही है। इसी प्रकार गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान्‌ की स्वरूपभूता अन्तरङ्गशक्तियाँ हैं। इन दोनोंका सम्बन्ध भी दिव्य ही है। यह उच्चतम भावराज्यकी लीला स्थूल शरीर और स्थूल मनसे परे है। आवरण-भङ्गके अनन्तर अर्थात् चीरहरण करके जब भगवान्‌ स्वीकृति देते हैं, तब इसमें प्रवेश होता है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 27 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

महारास

 

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः

श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद्यः ।

भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं

हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! जो धीर पुरुष व्रजयुवतियोंके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णके इस चिन्मय रास-विलासका श्रद्धाके साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान्‌ के चरणोंमें परा भक्तिकी प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदयके रोगकामविकारसे छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदाके लिये नष्ट हो जाता है[*] ॥ ४० ॥

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[*] श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के पाँच अध्याय उसके पाँच प्राण माने जाते हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण की परम अन्तरङ्गलीला, निजस्वरूपभूता गोपिकाओं और ह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी के साथ होनेवाली भगवान्‌ की दिव्यातिदिव्य क्रीडा, इन अध्यायोंमें कही गयी है। रासशब्दका मूल रस है और रस स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं—‘रसो वै स:। जिस दिव्य क्रीडामें एक ही रस अनेक रसोंके रूपमें होकर अनन्त-अनन्त रसका समास्वादन करे; एक रस ही रस-समूहके रूपमें प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद्य-आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपनके रूपमें क्रीडा करेउसका नाम रास है। भगवान्‌ की यह दिव्य लीला भगवान्‌के दिव्य धाममें दिव्य रूपसे निरन्तर हुआ करती है। यह भगवान्‌ की विशेष कृपासे प्रेमी साधकोंके हितार्थ कभी-कभी अपने दिव्य धामके साथ ही भूमण्डलपर भी अवतीर्ण हुआ करती है, जिसको देख-सुन एवं गाकर तथा स्मरण-चिन्तन करके अधिकारी पुरुष रसस्वरूप भगवान्‌की इस परम रसमयी लीलाका आनन्द ले सकें और स्वयं भी भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित होकर अपनेको कृतकृत्य कर सकें। इस पञ्चाध्यायीमें वंशीध्वनि, गोपियोंके अभिसार, श्रीकृष्णके साथ उनकी बातचीत, रमण, श्रीराधाजीके साथ अन्तर्धान, पुन: प्राकट्य, गोपियोंके द्वारा दिये हुए वसनासनपर विराजना, गोपियोंके कूट प्रश्रका उत्तर, रासनृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वनविहारका वर्णन हैजो मानवी भाषामें होनेपर भी वस्तुत: परम दिव्य है।

समयके साथ ही मानव-मस्तिष्क भी पलटता रहता है। कभी अन्तर्दृष्टिकी प्रधानता हो जाती है और कभी बहिर्दृष्टिकी। आजका युग ही ऐसा है, जिसमें भगवान्‌की दिव्य-लीलाओंकी तो बात ही क्या, स्वयं भगवान्‌के अस्तित्वपर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है। ऐसी स्थितिमें इस दिव्य लीलाका रहस्य न समझकर लोग तरह-तरहकी आशङ्का प्रकट करें, इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। यह लीला अन्तर्दृष्टिसे और मुख्यत: भगवत्कृपासे ही समझमें आती है। जिन भाग्यवान् और भगवत्कृपाप्राप्त महात्माओंने इसका अनुभव किया है, वे धन्य हैं और उनकी चरण-धूलिके प्रतापसे ही त्रिलोकी धन्य है। उन्हींकी उक्तियोंका आश्रय लेकर यहाँ रासलीलाके सम्बन्धमें यत्किञ्चित् लिखनेकी धृष्टता की जाती है।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

महारास

 

यत्पादपङ्‌कजपरागनिषेवतृप्ता

योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः ।

स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमानाः

तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः ॥ ३५ ॥

गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम् ।

योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक् ॥ ३६ ॥

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः ।

भजते तादृशीः क्रीड याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥ ३७ ॥

नासूयन् खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया ।

मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः ॥ ३८ ॥

ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः ।

अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः ॥ ३९ ॥

 

जिनके चरणकमलोंके रजका सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभावसे योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्वका विचार करके तत्स्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्मबन्धनोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे ही भगवान्‌ अपने भक्तोंकी इच्छासे अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मष्ठ बन्धनकी कल्पना ही कैसे हो सकती है ॥ ३५ ॥ गोपियोंके, उनके पतियोंके और सम्पूर्ण शरीरधारियोंके अन्त:करणोंमें जो आत्मारूपसे विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ ॥ ३७ ॥ व्रजवासी गोपोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णमें तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमायासे मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं ॥ ३८ ॥ ब्रह्माकी रात्रिके बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्राह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियोंकी इच्छा अपने घर लौटनेकी नहीं थी, फिर भी भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आज्ञासे वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टासे, प्रत्येक संकल्पसे केवल भगवान्‌ को ही प्रसन्न करना चाहती थीं ॥ ३९ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 26 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

महारास

 

श्रीपरीक्षिदुवाच -

संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च ।

अवतीर्णो हि भगवानंन् अंशेन जगदीश्वरः ॥ २७ ॥

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।

प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥ २८ ॥

आप्तकामो यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम् ।

किमभिप्राय एतन्नः संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ २९ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।

तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ॥ ३० ॥

नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः ।

विनश्यत्याचरन्मौढ्याद् यथारुद्रोऽब्धिजं विषम् ॥ ३१ ॥

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् ।

तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥ ३२ ॥

कुशलाचरितेनैषां इह स्वार्थो न विद्यते ।

विपर्ययेण वानर्थो निरहङ्‌कारिणां प्रभो ॥ ३३ ॥

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्‌ मर्त्यदिवौकसाम् ।

ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः ॥ ३४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजीके सहित पूर्णरूपमें अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतारका उद्देश्य ही यह था कि धर्मकी स्थापना हो और अधर्मका नाश ॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! वे धर्ममर्यादा के बनानेवाले, उपदेश करनेवाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्मके विपरीत परस्त्रियोंका स्पर्श कैसे किया ॥ २८ ॥ मैं मानता हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्रायसे यह निन्दनीय कर्म किया ? परम ब्रह्मचारी मुनीश्वर ! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिटाइये ॥ २९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंसूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्मका उल्लङ्घन और साहसका काम करते देखे जाते हैं। परंतु उन कामोंसे उन तेजस्वी पुरुषोंको कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्रि सब कुछ खा जाता है, परंतु उन पदार्थोंके दोषसे लिप्त नहीं होता ॥ ३० ॥ जिन लोगोंमें ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मनसे भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीरसे करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान्‌ शङ्करने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ३१ ॥ इसलिये इस प्रकारके जो शङ्कर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकारके अनुसार उनके वचनको ही सत्य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरणका अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेशके अनुकूल हो, उसीको जीवनमें उतारे ॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! वे सामथ्र्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म करनेमें उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करनेमें अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थसे ऊपर उठे होते हैं ॥ ३३ ॥ जब उन्हींके सम्बन्धमें ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवोंके एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान्‌ हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभका सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ॥ ३४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

महारास

 

गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम् ।

गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्यां गायन्त्यस्तं विजह्रिरे ॥ १५ ॥

कर्णोत्पलालकविटङ्‌ककपोलघर्म

वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाद्यैः ।

गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेश

स्रस्तस्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम् ॥ १६ ॥

एवं परिष्वङ्‌गकराभिमर्श

स्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः ।

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिः

यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः ॥ १७ ॥

तदङ्‌गसङ्‌गप्रमुदाकुलेन्द्रियाः

केशान् दूकूलं कुचपट्टिकां वा ।

नाञ्जः प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो

विस्रस्तमालाभरणाः कुरूद्वह ॥ १८ ॥

कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः ।

कामार्दिताः शशाङ्‌कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १९ ॥

कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः ।

रेमे स भगवान् ताभिः आत्मारामोऽपि लीलया ॥ २० ॥

तासां अतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः ।

प्रामृजत् करुणः प्रेम्णा शन्तमेनाङ्‌ग पाणिना ॥ २१ ॥

गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्

गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन ।

मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि

पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः ॥ २२ ॥

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमङ्‌गसङ्‌ग

घृष्टस्रजः स कुचकुङ्‌कुमरञ्जितायाः ।

गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वा

श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः ॥ २३ ॥

सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः

प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरितस्ततोऽङ्‌ग ।

वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो

रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः ॥ २४ ॥

ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल

प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे ।

चचार भृङ्‌गप्रमदागणावृतो

यथा मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः ॥ २५ ॥

एवं शशाङ्‌कांशुविराजिता निशाः

स सत्यकामोऽनुरताबलागणः ।

सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः

सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! गोपियोंका सौभाग्य लक्ष्मीजीसे भी बढक़र है। लक्ष्मीजीके परम प्रियतम एकान्तवल्लभ भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने परम प्रियतमके रूपमें पाकर गोपियाँ गान करती हुई उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनके गलोंको अपने भुजपाशमें बाँध रखा था, उस समय गोपियोंकी बड़ी अपूर्व शोभा थी ॥ १५ ॥ उनके कानोंमें कमलके कुण्डल शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं। पसीनेकी बूँदें झलकनेसे उनके मुखकी छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबोंके बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुरमें अपना सुर मिलाकर गा रहे थे और उनके जूडों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछार्ईं के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदयसे लगा लेते, कभी हाथसे उनका अङ्गस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते, तो कभी लीलासे उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियोंके साथ क्रीडा की, विहार किया ॥ १७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के अङ्गोंका संस्पर्श प्राप्त करके गोपियोंकी इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्दसे विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलोंके हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकीको भी पूर्णतया सँभालनेमें असमर्थ हो गयीं ॥ १८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह रासक्रीडा देखकर स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ भी मिलनकी कामनासे मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहोंके साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌ आत्माराम हैंउन्हें अपने अतिरिक्त और किसीकी भी आवश्यकता नहीं हैफिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल- खेलमें उनके साथ इस प्रकार विहार किया ॥ २० ॥ जब बहुत देरतक गान और नृत्य आदि विहार करनेके कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे स्वयं अपने सुखद करकमलोंके द्वारा उनके मुँह पोंछे ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के करकमल और नखस्पर्शसे गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलोंके सौन्दर्यसे, जिनपर सोनेके कुण्डल झिलमिला रहे थे और घुँघराली अलकें लटक रही थीं तथा उस प्रेमभरी चितवनसे, जो सुधासे भी मीठी मुसकानसे उज्ज्वल हो रही थी, भगवान्‌ श्रीकृष्णका सम्मान किया और प्रभुकी परम पवित्र लीलाओंका गान करने लगीं ॥ २२ ॥ इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारोंको तोड़ता हुआ हथिनियोंके साथ जलमें घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेदकी मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले भगवान्‌ने अपनी थकान दूर करनेके लिये गोपियोंके साथ जलक्रीडा करनेके उद्देश्यसे यमुनाके जलमें प्रवेश किया। उस समय भगवान्‌की वनमाला गोपियोंके अङ्गकी रगड़से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्ष:स्थलकी केसरसे वह रँग भी गयी थी। उसके चारों ओर गुन- गुनाते हुए भौंरे उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे मानो गन्धर्वराज उनकी कीर्तिका गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों ॥ २३ ॥ परीक्षित्‌ ! यमुनाजल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवनसे भगवान्‌की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उनपर इधर-उधरसे जलकी खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानोंपर चढ़े हुए देवता पुष्पोंकी वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार यमुनाजलमें स्वयं आत्माराम भगवान्‌ श्रीकृष्णने गजराजके समान जलविहार किया ॥ २४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरोंकी भीड़से घिरे हुए यमुनातटके उपवनमें गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थलमें बड़ी सुन्दर सुगन्धवाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान्‌ इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियोंके झुंडके साथ घूम रहा हो ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌! शरद्की वह रात्रि जिसके रूपमें अनेक रात्रियाँ पुञ्जीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर चन्द्रमाकी बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्यों में शरद् ऋतुकी जिन रस- सामग्रियों का वर्णन मिलता है, उन सभीसे वह युक्त थी। उसमें भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसी गोपियोंके साथ यमुनाके पुलिन, यमुनाजी और उनके उपवनमें विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान्‌ सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मयी लीला है। और उन्होंने इस लीलामें कामभाव को, उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रियाको सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आपमें कैद कर रखा था ॥ २६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 25 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

महारास

 

श्रीशुक उवाच -

इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः ।

जहुर्विरहजं तापं तदङ्‌गोपचिताशिषः ॥ १ ॥

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः ।

स्त्रीरत्‍नैरन्वितः प्रीतैः अन्योन्याबद्धबाहुभिः ॥ २ ॥

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः ।

योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥

प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः ।

यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसङ्‌कुलम् ॥ ४ ॥

दिवौकसां सदाराणां औत्सुक्यापहृतात्मनाम् ।

ततो दुन्दुभयो नेदुः निपेतुः पुष्पवृष्टयः ।

जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद् यशोऽमलम् ॥ ५ ॥

वलयानां नूपुराणां किङ्‌किणीनां च योषिताम् ।

सप्रियाणामभूत् शब्दः तुमुलो रासमण्डले ॥ ६ ॥

तत्रातिशुशुभे ताभिः भगवान् देवकीसुतः ।

मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा ॥ ७ ॥

पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः

सस्मितैर्भ्रूविलासैः ।

भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः

कुण्डलैर्गण्डलोलैः ।

स्विद्यन्मुख्यः कवररसना

ग्रन्थयः कृष्णवध्वो ।

गायन्त्यस्तं तडित इव ता

मेघचक्रे विरेजुः ॥ ८ ॥

उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः ।

कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्‍गीतेनेदमावृतम् ॥ ९ ॥

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रिताः ।

उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति ।

तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात् ॥ १० ॥

काचिद् रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः ।

जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका ॥ ११ ॥

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम् ।

चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह ॥ १२ ॥

कस्याश्चित् नाट्यविक्षिप्त कुण्डलत्विषमण्डितम् ।

गण्डं गण्डे सन्दधत्याः अदात्ताम्बूलचर्वितम् ॥ १३ ॥

नृत्यती गायती काचित् कूजन् नूपुरमेखला ।

पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम् ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन्। गोपियाँ भगवान्‌ की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राणप्यारे के अङ्ग- सङ्ग से सफल-मनोरथ हो गयीं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिनपर भगवान्‌ ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की ॥ २ ॥ सम्पूर्ण योगोंके स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण दो-दो गोपियोंके बीचमें प्रकट हो गये और उनके गलेमें अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियोंसे शोभायमान भगवान्‌ श्रीकृष्णका दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाशमें शत-शत विमानोंकी भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शनकी लालसासे, उत्सुकतासे उनका मन उनके वशमें नहीं था ॥ ३-४ ॥ स्वर्गकी दिव्य दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ भगवान्‌के निर्मल यशका गान करने लगे ॥ ५ ॥ रासमण्डलमें सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयोंके कंगन, पैरोंके पायजेब और करधनीके छोटे-छोटे घुँघरू एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोरकी हो रही थी ॥ ६ ॥ यमुनाजीकी रमणरेतीपर व्रजसुन्दरियोंके बीचमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियोंके बीचमें ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो ॥ ७ ॥ नृत्यके समय गोपियाँ तरह-तरहसे ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गतिके अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेगसे; कभी चाककी तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकारसे उन्हें चमकातीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंगसे मुसकरातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलनेकी फुर्तीसे उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल-हिलकर कपोलोंपर आ जाते थे। नाचनेके परिश्रमसे उनके मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलकने लगी थीं। केशोंकी चोटियाँ कुछ ढीली पड़ गयी थीं। नीवीकी गाँठें खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलालकी परम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थीं। परीक्षित्‌ ! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीचमें चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी ॥ ८ ॥ गोपियोंका जीवन भगवान्‌ की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्णसे सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वरसे मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्णका संस्पर्श पा- पाकर और भी आनन्दमग्र हो रही थीं। उनके राग-रागिनियोंसे पूर्ण गानसे यह सारा जगत् अब भी गूँज रहा है ॥ ९ ॥ कोई गोपी भगवान्‌ के साथउनके स्वरमें स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्णके स्वरकी अपेक्षा और भी ऊँचे स्वरसे राग अलापने लगी। उसके विलक्षण और उत्तम स्वरको सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी रागको एक दूसरी सखीने ध्रुपद में गाया। उसका भी भगवान्‌ ने बहुत सम्मान किया ॥ १० ॥ एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेलाके फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगलमें ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके कंधेको अपनी बाँहसे कसकर पकड़ लिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपना एक हाथ दूसरी गोपीके कंधेपर रख रखा था। वह स्वभावसे तो कमलके समान सुगन्धसे युक्त था ही, उसपर बड़ा सुगन्धित चन्दनका लेप भी था। उसकी सुगन्धसे वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया ॥ १२ ॥ एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटासे उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णके कपोलसे सटा दिया और भगवान्‌ने उसके मुँहमें अपना चबाया हुआ पान दे दिया ॥ १३ ॥ कोई गोपी नूपुर और करधनीके घुँघरुओंको झनकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगलमें ही खड़े श्यामसुन्दरके शीतल करकमलको अपने दोनों स्तनोंपर रख लिया ॥ १४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...