बुधवार, 5 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना

 

श्री शुक उवाच -

अथ तर्ह्यागतो गोष्ठं अरिष्टो वृषभासुरः ।

महीं महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम् ॥ १ ॥

रम्भमाणः खरतरं पदा च विलिखन् महीम् ।

उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन् ॥ २ ॥

किञ्चित्किञ्चित् शकृन् मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः ।

यस्य निर्ह्रादितेनाङ्‌ग निष्ठुरेण गवां नृणाम् ॥ ३ ॥

पतन्त्यकालतो गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै ।

निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशङ्‌कया ॥ ४ ॥

तं तीक्ष्णशृङ्‌गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः ।

पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम् ॥ ५ ॥

कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः ।

भगवानपि तद्वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम् ॥ ६ ॥

मा भैष्टेति गिराश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत् ।

गोपालैः पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम ॥ ७ ॥

बलदर्पहाहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम् ।

इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन् ॥ ८ ॥

सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः ।

सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन् ।

उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत् ॥ ९ ॥

अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृग् लोचनोऽच्युतम् ।

कटाक्षिप्याद्रवत् तूर्ण् इन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा ॥ १० ॥

गृहीत्वा शृङ्‌गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः ।

प्रत्यपोवाह भगवान् गजः प्रतिगजं यथा ॥ ११ ॥

सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरम् ।

आपतत् स्विन्नसर्वाङ्‌गो निःश्वसन् क्रोधमूर्च्छितः ॥ १२ ॥

तं आपतन्तं स निगृह्य शृङ्‌गयोः

पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले ।

निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमम्बरं

कृत्वा विषाणेन जघान सोऽपतत् ॥ १३ ॥

असृग् वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्

क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः ।

जगाम कृच्छ्रं निर्‌ऋतेरथ क्षयं

पुष्पैः किरन्तो हरिमीडिरे सुराः ॥ १४ ॥

एवं कुकुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः द्विजातिभिः ।

विवेश गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी ॥ १ ॥ वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था ॥ २ ॥ बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाडक़र इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित्‌ ! उसके जोरसे हँकडऩेसेनिष्ठुर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओंके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच छ:-महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुद्को पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ॥ ३-४ ॥ परीक्षित्‌ ! उस तीखे सींगवाले बैलको देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहनेका स्थान छोडक़र भाग ही गये ॥ ५ ॥ उस समय सभी व्रजवासी श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण ! हमें इस भयसे बचाओइस प्रकार पुकारते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान्‌ ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ॥ ६ ॥ तब उन्होंने डरनेकी कोई बात नहीं है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख ! महादुष्ट ! तू इन गौओं और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है ? इससे क्या होगा ॥ ७ ॥ देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।इस प्रकार ललकारकर भगवान्‌ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे ॥ ८-९ ॥ उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिडऩेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ॥ ११ ॥ भगवान्‌ के इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी- लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ॥ १२ ॥ भगवान्‌ ने जब देखा कि वह अब मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका सींग उखाडक़र उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान्‌पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १४ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आनेवाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 4 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

युगलगीत

 

कुन्ददामकृतकौतुकवेषो

गोपगोधनवृतो यमुनायाम् ।

नन्दसूनुरनघे तव वत्सो

नर्मदः प्रणयिणां विजहार ॥ २० ॥

मन्दवायुरुपवात्यनकूलं

मानयन् मलयजस्पर्शेन ।

वन्दिनस्तमुपदेवगणा ये

वाद्यगीतबलिभिः परिवव्रुः ॥ २१ ॥

वत्सलो व्रजगवां यदगध्रो

वन्द्यमानचरणः पथि वृद्धैः ।

कृत्स्नगोधनमुपोह्य दिनान्ते

गीतवेणुरनुगेडितकीर्तिः ॥ २२ ॥

उत्सवं श्रमरुचापि दृशीनां

उन्नय खुररजश्छुरितस्रक् ।

दित्सयैति सुहृदासिष एष

देवकीजठरभूरुडुराजः ॥ २३ ॥

मदविघूर्णितलोचन ईषन्

मानदः स्वसुहृदां वनमाली ।

बदरपाण्डुवदनो मृदुगण्डं

मण्डयन् कनककुण्डललक्ष्म्या ॥ २४ ॥

यदुपतिर्द्विरदराजविहारो

यामिनीपतिरिवैष दिनान्ते ।

मुदितवक्त्र उपयाति दुरन्तं

मोचयन् व्रजगवां दिनतापम् ॥ २५ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीलानुगायतीः ।

रेमिरेऽहःसु तच्चित्ताः तन्मनस्का महोदयाः ॥ २६ ॥

 

नन्दरानी यशोदाजी ! वास्तवमें तुम बड़ी पुण्यवती हो। तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं। तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा कोमल है। वे प्रेमी सखाओंको तरह-तरहसे हास- परिहासके द्वारा सुख पहुँचाते हैं। कुन्दकलीका हार पहनकर जब वे अपनेको विचित्र वेषमें सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा गौओंके साथ यमुनाजीके तटपर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज चन्दनके समान शीतल और सुगन्धित स्पर्शसे मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लालकी सेवा करती है और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनोंके समान गा-बजाकर उन्हें सन्तुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकारकी भेंटें देते हुए सब ओरसे घेरकर उनकी सेवा करते हैं ॥ २०-२१ ॥

 

अरी सखी ! श्यामसुन्दर व्रजकी गौओंसे बड़ा प्रेम करते हैं। इसीलिये तो उन्होंने गोवर्धन धारण किया था। अब वे सब गौओंको लौटाकर आते ही होंगे; देखो, सायंकाल हो चला है। तब इतनी देर क्यों होती है, सखी ? रास्तेमें बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि वयोवृद्ध और शङ्कर आदि ज्ञानवृद्ध उनके चरणोंकी वन्दना जो करने लगते हैं। अब गौओंके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए वे आते ही होंगे। ग्वालबाल उनकी कीर्तिका गान कर रहे होंगे। देखो न, यह क्या आ रहे हैं। गौओंके खुरोंसे उड़-उडक़र बहुत-सी धूल वनमालापर पड़ गयी है। वे दिनभर जंगलोंमें घूमते-घूमते थक गये हैं। फिर भी अपनी इस शोभासे हमारी आँखोंको कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं। देखो, ये यशोदाकी कोखसे प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हम प्रेमीजनोंकी भलाईके लिये, हमारी आशा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेके लिये ही हमारे पास चले आ रहे हैं ॥२२-२३ ॥

 

सखी ! देखो कैसा सौन्दर्य है ! मदभरी आँखें कुछ चढ़ी हुई हैं। कुछ-कुछ ललाई लिये हुए कैसी भली जान पड़ती हैं। गलेमें वनमाला लहरा रही है। सोनेके कुण्डलोंकी कान्तिसे वे अपने कोमल कपोलोंको अलंकृत कर रहे हैं। इसीसे मुँहपर अधपके बेरके समान कुछ पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोमसे विशेष करके मुखकमलसे प्रसन्नता फूटी पड़ती है। देखो, अब वे अपने सखा ग्वालबालोंका सम्मान करके उन्हें विदा कर रहे हैं। देखो, देखो सखी ! व्रजविभूषण श्रीकृष्ण गजराजके समान मदभरी चालसे इस सन्ध्या-वेलामें हमारी ओर आ रहे हैं। अब व्रजमें रहनेवाली गौओंका, हमलोगोंका दिनभरका असह्य विरह-ताप मिटानेके लिये उदित होनेवाले चन्द्रमाकी भाँति ये हमारे प्यारे श्यामसुन्दर समीप चले आ रहे हैं ॥ २४-२५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! बड़भागिनी गोपियोंका मन श्रीकृष्णमें ही लगा रहता था। वे श्रीकृष्णमय हो गयी थीं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण दिनमें गौओंको चरानेके लिये वनमें चले जाते, तब वे उन्हींका चिन्तन करती रहतीं और अपनी-अपनी सखियोंके साथ अलग-अलग उन्हींकी लीलाओंका गान करके उसीमें रम जातीं। इस प्रकार उनके दिन बीत जाते ॥ २६ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गोपिकायुगलगीतं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

युगलगीत

 

विविधगोपचरणेषु विदग्धो

वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षाः ।

तव सुतः सति यदाधरबिम्बे

दत्तवेणुरनयत् स्वरजातीः ॥ १४ ॥

सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः

शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः ।

कवय आनतकन्धरचित्ताः

कश्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः ॥ १५ ॥

निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्र

नीरजाङ्‌कुशविचित्रललामैः ।

व्रजभुवः शमयन् खुरतोदं

वर्ष्मधुर्यगतिरीडितवेणुः ॥ १६ ॥

व्रजति तेन वयं सविलास

वीक्षणार्पितमनोभववेगाः ।

कुजगतिं गमिता न विदामः

कश्मलेन कवरं वसनं वा ॥ १७ ॥

मणिधरः क्वचिदागणयन् गा

मालया दयितगन्धतुलस्याः ।

प्रणयिनोऽनुचरस्य कदांसे

प्रक्षिपन् भुजमगायत यत्र ॥ १८ ॥

क्वणितवेणुरववञ्चितचित्ताः

कृष्णमन्वसत कृष्णगृहिण्यः ।

गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्यो

गोपिका इव विमुक्तगृहाशाः ॥ १९ ॥

 

सतीशिरोमणि यशोदाजी ! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालोंके साथ खेल खेलनेमें बड़े निपुण हैं। रानीजी ! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसीसे सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकारकी राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब वे अपने बिम्बा-फल सदृश लाल-लाल अधरोंपर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरोंकी अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशीकी परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता भीजो सर्वज्ञ हैंउसे नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकनेपर भी उनके हाथसे निकलकर वंशीध्वनिमें तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसीमें तन्मय हो जाते हैं ॥ १४-१५ ॥

 

अरी वीर ! उनके चरणकमलोंमें ध्वजा, वज्र, कमल, अङ्कुश आदिके विचित्र और सुन्दर- सुन्दर चिह्न हैं। जब व्रजभूमि गौओंके खुरसे खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणोंसे उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराजके समान मन्दगतिसे आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं। उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन हमारे हृदयमें प्रेमके मिलनकी आकांक्षाका आवेग बढ़ा देती है। हम उस समय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल- डोलतक नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों ! हमें तो इस बातका भी पता नहीं चलता कि हमारा जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीरपरका वस्त्र उतर गया है या है ॥ १६-१७ ॥

 

अरी वीर ! उनके गलेमें मणियोंकी माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसीकी मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है। इसीसे तुलसीकी मालाको तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियोंकी मालासे गौओंकी गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखाके गलेमें बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरीके मधुर स्वरसे मोहित होकर कृष्णसार मृगोंकी पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थीकी आशा-अभिलाषा छोडक़र गुणसागर नागर नन्दनन्दनको घेरे रहतीं हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीं एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं, लौटनेका नाम भी नहीं लेतीं ॥ १८-१९ ॥

 

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सोमवार, 3 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

युगलगीत

 

अनुचरैः समनुवर्णितवीर्य

आदिपूरुष इवाचलभूतिः ।

वनचरो गिरितटेषु चरन्तीः

वेणुनाह्वयति गाः स यदा हि ॥ ८ ॥

वनलतास्तरव आत्मनि विष्णुं

व्यञ्जयन्त्य इव पुष्पफलाढ्याः ।

प्रणतभारविटपा मधुधाराः

प्रेमहृष्टतनवः ससृजुः स्म ॥ ९ ॥

दर्शनीयतिलको वनमाला

दिव्यगन्धतुलसीमधुमत्तैः ।

अलिकुलैरलघु गीतामभीष्टं

आद्रियन् यर्हि सन्धितवेणुः ॥ १० ॥

सरसि सारसहंसविहङ्‌गाः

चारुगीतहृतचेतस एत्य ।

हरिमुपासत ते यतचित्ता

हन्त मीलितदृशो धृतमौनाः ॥ ११ ॥

सहबलः स्रगवतंसविलासः

सानुषु क्षितिभृतो व्रजदेव्यः ।

हर्षयन् यर्हि वेणुरवेण

जातहर्ष उपरम्भति विश्वम् ॥ १२ ॥

महदतिक्रमणशङ्‌कितचेता

मन्दमन्दमनुगर्जति मेघः ।

सुहृदमभ्यवर्षत् सुमनोभिः

छायया च विदधत्प्रतपत्रम् ॥ १३ ॥

 

अरी वीर ! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्योंके स्वामी भगवान्‌ नारायणकी शक्तियोंका गान करते हैं, वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्णकी लीलाओंका गान करते रहते हैं। वे अचिन्त्य-ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावनमें विहार करते रहते हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धनकी तराईमें चरती हुई गौओंको नाम ले-लेकर पुकारते हैं, उस समय वनके वृक्ष और लताएँ फूल और फलोंसे लद जाती हैं, उनके भारसे डालियाँ झुककर धरती छूने लगती हैं, मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ अपने भीतर भगवान्‌ विष्णुकी अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेमसे फूल उठती हैं, उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधुधाराएँ उँड़ेलने लगती हैं ॥ ८-९ ॥

 

अरी सखी ! जितनी भी वस्तुएँ संसारमें या उसके बाहर देखनेयोग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैंये हमारे मनमोहन। उनके साँवले ललाटपर केसरकी खौर कितनी फबती हैबस, देखती ही जाओ ! गलेमें घुटनोंतक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी हुई तुलसी की दिव्य गन्ध और मधुर मधु से मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौंरे बड़े मनोहर एवं उच्च स्वर से गुंजार करते रहते हैं। हमारे नटनागर श्यामसुन्दर भौंरों की उस गुनगुनाहट का आदर करते हैं और उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं। उस समय सखि ! उस मुनिजन मोहन संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथ से निकल जाता है, छिन जाता है। वे विवश होकर प्यारे श्यामसुन्दर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैंमानो कोई विहङ्गम वृत्ति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है ! ॥ १०-११॥

 

अरी व्रजदेवियो ! हमारे श्यामसुन्दर जब पुष्पोंके कुण्डल बनाकर अपने कानोंमें धारण कर लेते हैं और बलरामजीके साथ गिरिराजके शिखरोंपर खड़े होकर सारे जगत्को हर्षित करते हुए बाँसुरी बजाने लगते हैंबाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्दमें भरकर उसकी ध्वनिके द्वारा सारे विश्वका आलिङ्गन करने लगते हैंउस समय श्याम मेघ बाँसुरीकी तानके साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है। उसके चित्तमें इस बातकी शङ्का बनी रहती है कि कहीं मैं जोरसे गर्जना कर उठूँ और वह कहीं बाँसुरीकी तान के विपरीत पड़ जाय, उसमें बेसुरापन ले आये, तो मुझसे महात्मा श्रीकृष्णका अपराध हो जायगा। सखी ! वह इतना ही नहीं करता; वह जब देखता है कि हमारे सखा घनश्यामको घाम लग रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर लेता है, उनका छत्र बन जाता है। अरी वीर ! वह तो प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उनके ऊपर अपना जीवन ही निछावर कर देता हैनन्हीं-नन्हीं फुहियोंके रूपमें ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर रहा हो। कभी-कभी बादलोंकी ओटमें छिपकर देवतालोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं ॥ १२-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

युगलगीत

 

श्रीशुक उवाच -

गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः ।

कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान् ॥ १ ॥

 

श्रीगोप्य ऊचुः -

वामबाहुकृतवामकपोलो

वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम् ।

कोमलाङ्‌गुलिभिराश्रितमार्गं

गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः ॥ २ ॥

व्योमयानवनिताः सह सिद्धैः

विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः ।

काममार्गणसमर्पितचित्ताः

कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्यः ॥ ३ ॥

हन्त चित्रमबलाः श्रृणुतेदं

हारहास उरसि स्थिरविद्युत् ।

नन्दसूनुरयमार्तजनानां

नर्मदो यर्हि कूजितवेणुः ॥ ४ ॥

वृन्दशो व्रजवृषा मृगगावो

वेणुवाद्यहृतचेतस आरात् ।

दन्तदष्टकवला धृतकर्णा

निद्रिता लिखितचित्रमिवासन् ॥ ५ ॥

बर्हिणस्तबकधातुपलाशैः

बद्धमल्लपरिबर्हविडम्बः ।

कर्हिचित्सबल आलि स गोपैः

गाः समाह्वयति यत्र मुकुन्दः ॥ ६ ॥

तर्हि भग्नगतयः सरितो वै

तत्पदाम्बुजरजोऽनिलनीतम् ।

स्पृहयतीर्वयमिवाबहुपुण्याः

प्रेमवेपितभुजाः स्तिमितापः ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके गौओंको चरानेके लिये प्रतिदिन वनमें चले जानेपर उनके साथ गोपियोंका चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्णका चिन्तन करता रहता और वे वाणीसे उनकी लीलाओंका गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाईसे अपना दिन बितातीं ॥ १ ॥

 

गोपियाँ आपसमें कहतींअरी सखी ! अपने प्रेमीजनोंको प्रेम वितरण करनेवाले और द्वेष करनेवालोंतकको मोक्ष दे देनेवाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोलको बायीं बाँहकी ओर लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरीको अधरोंसे लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अँगुलियोंको उसके छेदोंपर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धपत्नियाँ आकाशमें अपने पति सिद्धगणोंके साथ विमानोंपर चढक़र आ जाती हैं और उस तानको सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं। पहले तो उन्हें अपने पतियोंके साथ रहनेपर भी चित्तकी यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परंतु क्षणभरमें ही उनका चित्त कामबाणसे ङ्क्षबध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं। उन्हें इस बातकी भी सुधि नहीं रहती कि उनकी नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं ॥ २-३ ॥

 

अरी गोपियो ! तुम यह आश्चर्यकी बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हारका रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर ! उनके वक्ष:स्थलपर लहराते हुए हारमें हास्यकी किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्ष:स्थलपर जो श्रीवत्सकी सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघपर बिजली ही स्थिररूपसे बैठ गयी है। वे जब दु:खीजनोंको सुख देनेके लिये, विरहियोंके मृतक शरीरमें प्राणोंका सञ्चार करनेके लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रजके झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं। केवल आते ही नहीं, सखी ! दाँतोंसे चबाया हुआ घासका ग्रास उनके मुँहमें ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही पाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभावसे खड़े हो जाते हैं, मानो सो गये हैं, या केवल भीतपर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरीकी तान उनके चित्तको चुरा लेती है ॥ ४-५ ॥

 

हे सखि ! जब वे नन्दके लाड़ले लाल अपने सिर पर मोरपंखका मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकोंमें फूलके गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन धातुओंसे अपना अङ्ग-अङ्ग रँग लेते हैं और नये-नये पल्लवोंसे ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलरामजी तथा ग्वालबलोंके साथ बाँसुरीमें गौओंका नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते हैं; उस समय प्यारी सखियो ! नदियोंकी गति भी रुक जाती है। वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे प्रियतमके चरणोंकी धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ, परंतु सखियो ! वे भी हमारे ही-जैसी मन्दभागिनी हैं। जैसे नन्दनन्दन श्रीकृष्णका आलिङ्गन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती हैं और जड़तारूप सञ्चारीभाव का उदय हो जानेसे हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही वे भी प्रेमके कारण काँपने लगती हैं। दो चार बार अपनी तरङ्गरूप भुजाओंको काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परंतु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेशसे स्तम्भित हो जाती हैं ॥ ६-७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 2 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुदर्शन और शङ्खचूड का उद्धार

 

कदाचिदथ गोविन्दो रामश्चाद्भुतविक्रमः

विजह्रतुर्वने रात्र्यां मध्यगौ व्रजयोषिताम् ॥२०॥

उपगीयमानौ ललितं स्त्रीजनैर्बद्धसौहृदैः

स्वलङ्कृतानुलिप्ताङ्गौ स्रग्विनौ विरजोऽम्बरौ ॥२१॥

निशामुखं मानयन्तावुदितोडुपतारकम्

मल्लिकागन्धमत्तालि जुष्टं कुमुदवायुना ॥२२॥

जगतुः सर्वभूतानां मनःश्रवणमङ्गलम्

तौ कल्पयन्तौ युगपत्स्वरमण्डलमूर्च्छितम् ॥२३॥

गोप्यस्तद्गीतमाकर्ण्य मूर्च्छिता नाविदन्नृप

स्रंसद्दुकूलमात्मानं स्रस्तकेशस्रजं ततः ॥२४॥

एवं विक्रीडतोः स्वैरं गायतोः सम्प्रमत्तवत्

शङ्खचूड इति ख्यातो धनदानुचरोऽभ्यगात् ॥२५॥

तयोर्निरीक्षतो राजंस्तन्नाथं प्रमदाजनम्

क्रोशन्तं कालयामास दिश्युदीच्यामशङ्कितः ॥२६॥

क्रोशन्तं कृष्ण रामेति विलोक्य स्वपरिग्रहम्

यथा गा दस्युना ग्रस्ता भ्रातरावन्वधावताम् ॥२७॥

मा भैष्टेत्यभयारावौ शालहस्तौ तरस्विनौ

आसेदतुस्तं तरसा त्वरितं गुह्यकाधमम् ॥२८॥

स वीक्ष्य तावनुप्राप्तौ कालमृत्यू इवोद्विजन्

विसृज्य स्त्रीजनं मूढः प्राद्रवज्जीवितेच्छया ॥२९॥

तमन्वधावद्गोविन्दो यत्र यत्र स धावति

जिहीर्षुस्तच्छिरोरत्नं तस्थौ रक्षन्स्त्रियो बलः ॥३०॥

अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मनः

जहार मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभुः ॥३१॥

शङ्खचूडं निहत्यैवं मणिमादाय भास्वरम्

अग्रजायाददात्प्रीत्या पश्यन्तीनां च योषिताम् ॥३२॥

 

एक दिनकी बात है, अलौकिक कर्म करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रिके समय वनमें गोपियोंके साथ विहार कर रहे थे ॥ २० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनोंके गलेमें फूलोंके सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीरमें अङ्गराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्दसे ललित स्वरमें उन्हींके गुणोंका गान कर रही थीं ॥ २१ ॥ अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाशमें तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी। बेलाके सुन्दर गन्धसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशयमें खिली हुई कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने एक ही साथ मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरोंके चढ़ाव-उतारसे बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत्के समस्त प्राणियोंके मन और कानोंको आनन्दसे भर देनेवाला था ॥ २२-२३ ॥ उनका वह गान सुनकर गोपियाँ मोहित हो गयीं। परीक्षित्‌ ! उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि नहीं रही कि वे उसपरसे खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियोंसे बिखरते हुए पुष्पोंको सँभाल सकें ॥ २४ ॥

जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्तकी भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शङ्खचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेरका अनुचर था ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! दोनों भाइयोंके देखते-देखते वह उन गोपियोंको लेकर बेखटके उत्तरकी ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ॥ २६ ॥ दोनों भाइयोंने देखा कि जैसे कोई डाकू गौओंको लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियोंको लिये जा रहा है और वे हा कृष्ण ! हा राम !पुकारकर रो पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े ॥ २७ ॥ डरो मत, डरो मतइस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथमें शालका वृक्ष लेकर बड़े वेगसे क्षणभरमें ही उस नीच यक्षके पास पहुँच गये ॥ २८ ॥ यक्षने देखा कि काल और मृत्युके समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियोंको वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचानेके लिये भागा ॥ २९ ॥ तब स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे चाहते थे कि उसके सिरकी चूड़ामणि निकाल लें ॥ ३० ॥ कुछ ही दूर जानेपर भगवान्‌ ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्टके सिरपर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ामणिके साथ उसका सिर भी धड़से अलग कर दिया ॥ ३१ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण शङ्खचूड को मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियोंके सामने ही उन्होंने बड़े प्रेमसे वह मणि बड़े भाई बलरामजीको दे दी ॥ ३२ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे शङ्खचूडवधो नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 







श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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