॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अक्रूरजी
की व्रज-यात्रा
अथावरूढः
सपदीशयो रथात्
प्रधानपुंसोश्चरणं
स्वलब्धये ।
धिया
धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं
नमस्य
आभ्यां च सखीन् वनौकसः ॥ १५ ॥
अप्यङ्घ्रिमूले
पतितस्य मे विभुः
शिरस्यधास्यन्
निजहस्तपङ्कजम् ।
दत्ताभयं
कालभुजाङ्गरंहसा
प्रोद्वेजितानां
शरणैषिणां णृनाम् ॥ १६ ॥
समर्हणं
यत्र निधाय कौशिकः
तथा
बलिश्चाप जगत्त्रयेन्द्रताम् ।
यद्वा
विहारे व्रजयोषितां श्रमं
स्पर्शेन
सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत् ॥ १७ ॥
न
मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः
कंसस्य
दूतः प्रहितोऽपि विश्वदृक् ।
योऽन्तर्बहिश्चेतस
एतदीहितं
क्षेत्रज्ञ
ईक्षत्यमलेन चक्षुषा ॥ १८ ॥
अप्यङ्घ्रिमूलेऽवहितं
कृताञ्जलिं
मामीक्षिता
सस्मितमार्द्रया दृशा ।
सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो
वोढा
मुदं वीतविशङ्क ऊर्जिताम् ॥ १९ ॥
सुहृत्तमं
ज्ञातिमनन्यदैवतं
दोर्भ्यां
बृहद्भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम् ।
आत्मा
हि तीर्थीक्रियते तदैव मे
बन्धश्च
कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः ॥ २० ॥
लब्ध्वाङ्गसङ्गं
प्रणतं कृताञ्जलिं
मां
वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः ।
तदा
वयं जन्मभृतो महीयसा
नैवादृतो
यो धिगमुष्य जन्म तत् ॥ २१ ॥
न
तस्य कश्चिद् दयितः सुहृत्तमो
न
चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा ।
तथापि
भक्तान् भजते यथा तथा
सुरद्रुमो
यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः ॥ २२ ॥
किं
चाग्रजो मावनतं यदूत्तमः
स्मयन्
परिष्वज्य गृहीतमञ्जलौ ।
गृहं
प्रवेष्याप्तसमस्तसत्कृतं
सम्प्रक्ष्यते
कंसकृतं स्वबन्धुषु ॥ २३ ॥
जब
मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार
करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पडूंगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह ! उनके चरण कितने
दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें
उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा
उनपर। उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना
करूँगा ॥ १५ ॥ मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे ? उनके
वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो
कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं ॥ १६ ॥
इन्द्र तथा दैत्यराज बलिने भगवान् के उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके
तीनों लोकोंका प्रभुत्व—इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान् के
उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती
है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय व्रजयुवतियोंकी सारी थकान
मिटा दी थी ॥ १७ ॥ मैं कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे
मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम ! वे ऐसा कदापि
नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी।
वे क्षेत्रज्ञरूप से स्थित होकर अन्त:करणकी एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल
ज्ञानदृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं ॥ १८ ॥ तब मेरी शङ्का व्यर्थ है। अवश्य ही
मैं उनके चरणोंमें हाथ जोडक़र विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी
स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार
उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं नि:शङ्क होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्र हो
जाऊँगा ॥ १९ ॥ मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा
और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे
पकडक़र मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे। अहा ! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही,
वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय— उनका आलिङ्गन प्राप्त होते ही—मेरे कर्ममय बन्धन,
जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट
जायँगे ॥ २० ॥ जब वे मेरा आलिङ्गन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे ‘चाचा
अक्रूर !’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे ! क्यों न हो,
इसी पवित्र और मधुर यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे
हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान् श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया—उसके उस जन्मको, जीवनको धिक्कार है ॥ २१ ॥ न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो
उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है।
फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता
है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो
उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैं—वे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं ॥ २२ ॥ मैं उनके सामने
विनीत भावसे सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदयसे
लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकडक़र मुझे घरके भीतर ले जायँगे। वहाँ सब
प्रकारसे मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस
हमारे घरवालोंके साथ कैसा व्यवहार करता है ?’ ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से