सोमवार, 31 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितो

निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाददत्

पुनश्च भूयासमहं स्वराडिति

प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ५३

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-

ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः

सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ

परावरेशे त्वयि जायते मतिः ५४

मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो

राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया

यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया

वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः ५५

न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-

दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो

आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृ

णीत आर्यो वरमात्मबन्धनम् ५६

तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो

रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः

निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं

त्वां ज्ञाप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ५७

चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-

रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्

शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्

अभयमृतमशोकं पाहि मापन्नमीश ५८

 

श्रीभगवानुवाच

सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता

वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ५९

प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्

न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित् ६०

युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः

अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरुत्थितम् ६१

विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः

अस्त्वेवं नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी ६२

क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून्न्यवधीर्मृगयादिभिः

समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः ६३

जन्मन्यनन्तरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः

भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ६४

 

बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की इच्छा से दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट होऊँ’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भलीभाँति स्थित हो शुभ कर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता। अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहने वाले भगवन! जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटक रहा है। जब उस चक्कर से छूटने का समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत के एकमात्र स्वामी आप में जीव की बुद्धि अत्यन्त दृढ़ता से लग जाती है।

भगवन! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के, अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया। साधु-स्वभाव के चक्रवर्ती राजा भी अब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम से आपसे प्रार्थन किया करते हैं। अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसी के लिये प्रार्थना करते हैं। भगवन! भला, बतलाइये तो सही- मोक्ष देने वाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बाँधने वाले सांसारिक विषयों का वर माँगे।

 इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सम्बन्ध रखने वाली समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल माया के लेशमात्र सम्बन्ध से रहित, गुणातीत, एक- अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। भगवन! मैं अनादिकाल से अपने कर्मफलों को भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी। मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी किसी प्रकार एक क्षण के लिये भी मुझे शान्ति न मिली। शरणदाता! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ। सारे जगत के एकमात्र स्वामी! परमात्मन! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटि का है। यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देने का प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओं के अधीन न हुई। मैंने तुम्हें जो वर देने का प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानी की परीक्षा के लिये। मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती। जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदि के द्वारा अपने मन को वश में करने का कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन! उनका मन फिर से विषयों के लिये मचल पड़ता है। तुम अपने मन और सारे मनोभावों को मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वछन्द रूप से पृथ्वी पर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी। तुमने क्षत्रिय धर्म का आचरण करते समय शिकार आदि के अवसरों पर बहुत-से पशुओं का वध किया है। अब एकाग्रचित्त से मेरी उपासना करते हुए तपस्या के द्वारा उस पाप को धो डालो।

 राजन! अगले जन्म में तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियों के सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्मा को प्राप्त करोगे।' ।।५३-६४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 30 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

श्रीमुचुकुन्द उवाच

विमोहितोऽयं जन ईश मायया त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्

सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते गृहेषु योषित्पुरुषश्च वञ्चितः ४६

लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं

कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ

पादारविन्दं न भजत्यसन्मतिर्

गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः ४७

ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो

राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः

मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभू-

ष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया ४८

कलेवरेऽस्मिन्घटकुड्यसन्निभे

निरूढमानो नरदेव इत्यहम्

वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपैर्

गां पर्यटंस्त्वागणयन्सुदुर्मदः ४९

प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया

प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्

त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे

क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः ५०

पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्

मतंगजैर्वा नरदेवसंज्ञितः

स एव कालेन दुरत्ययेन ते

कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः ५१

निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो

वरासनस्थः समराजवन्दितः

गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां

क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते ५२

         

मुचुकुन्द ने कहा- ‘प्रभो! जगत के सभी प्राणी आपकी माया से अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थ में ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुख के लिये घर-गृहस्थी के उन झंझटों में फँस जाते हैं, जो सारे दुःखों के मूल स्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं। इस पापरूप संसार से सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्य का जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान की अहैतुक कृपा से उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसार में ही लगा देते हैं और तुच्छ विषय सुख के लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में पड़े रहते हैं- भगवान के चरणकमलों की उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशु के समान हैं, जो तुच्छ तृण के लोभ से अँधेरे कूएँ में गिर जाता है।

 भगवन! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था। इस मरने वाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओं की चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल-व्यर्थ चला गया। जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता। मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है।

 संसार में बाँध रखने वाले विषयों के लिये उनकी लालसा दिन दूनी, रात चौगिनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहने वाले आप एकाएक उस प्रसादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं। जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है।

 प्रभो! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़ने वाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिए, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु है, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है ।।४६-५२ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा


शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव

स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते ३१

वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः

मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो ३२

चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयापहतेन्द्रियः

शयेऽस्मिन्विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना ३३

सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना

अनन्तरं भवान्श्रीमांल्लक्षितोऽमित्रशासनः ३४

तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः५

एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान्भूतभावनः

प्रत्याह प्रहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ३६

 

श्रीभगवानुवाच

जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः

न शक्यन्तेऽनुसङ्ख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि ३७

क्वचिद्रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः

गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित् ३८

कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप

अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः ३९

तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम

विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये ४०

भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च

अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः

वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम् ४१

कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः

अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा ४२

सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः

प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः ४३

वरान्वृणीष्व राजर्षे सर्वान्कामान्ददामि ते

मां प्रसन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम् ४४

 

श्रीशुक उवाच

इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः

ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन् ४५

         

पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदय से उसे सुनने के इच्छुक हैं। और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारे में पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराजा मान्धाता का पुत्र हूँ। बहुत दिनों तक जागते रहने के कारण मैं थक गया था। निद्रा ने मेरी समस्त इन्द्रियों की शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसी से मैं इस निर्जन स्थान में निर्द्वन्द सो रहा था। अभी-अभी किसी ने मुझे जगा दिया। अवश्य उसके पापों ने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद शत्रुओं के नाश करने वाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया। महाभाग! आप समस्त प्राणियों के माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेज से मेरी शक्ति खो गयी है। मैं आपको बहुत देर तक देख भी नहीं सकता।'

 

जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हज़ारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उसकी गिनती करके नहीं बतला सकता। यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता।

 

राजन! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते। प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने के लिये प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं। अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ।

 

राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया। वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफ़ा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है, उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।

 

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की ।।३१-४५ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 29 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे

असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् १५

लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्

राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् १६

नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्

अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः १७

सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः

प्रजाश्च तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिताः १८

कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः

प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून् १९

वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः

एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः २०

एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः

अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया २१

स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतन:

स त्वयादृष्टमात्रस्तु भस्मी भवतु तत्क्षणात् २२

यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः

आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते २३

तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् २४

चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया

चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् २५

प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्

अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् २६

पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः

शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा २७

 

श्रीमुचुकुन्द उवाच

को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे

पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके २८

किं स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः

सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोऽपि वा २९

मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्

यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा ३०

 

एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।

 राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो, हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान विष्णु में ही है।

 परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफ़ा में जा सोये। उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा।'

 परीक्षित! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान राजा मुचुमुन्द को अपना दर्शन दिया। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्ती माला अलग ही घुटनों तक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था। कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठों पर प्रेम भरी मुस्कुराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल। राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये। उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान अपने तेज से दुर्द्धुर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शंकित होकर पूछा।

 राजा मुचुकुन्द ने कहा- ‘आप कौन हैं? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वत की गुफ़ा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था? क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान तेज अथवा भगवान अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर- इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्ति से इस गुफ़ा का अँधेरा भगा रहे हैं ।।१५-३० ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

श्रीशुक उवाच

तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्

दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् १

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्

पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् २

नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्

मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३

वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलाञ्छनः

चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ४

लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति

निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ५

इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्

अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ६

हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे

नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ७

पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्

इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ८

एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्

सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ९

नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्

इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् १०

स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने

दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ११

स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत

देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् १२

 

श्रीराजोवाच

को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किं वीर्य एव च

कस्माद्गुहां गतः शिष्ये किं तेजो यवनार्दनः १३

 

श्रीशुक उवाच

स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्

मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः १४

         

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुस्कान देखने वालों का मन चुराये लेती थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारद जी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे- वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमल के से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा।'

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफ़ा में ले गये। कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका। उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह- मानो इसे कुछ पता ही न हो- साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया।

 परीक्षित! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर ढेर हो गया।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! जिसके दृष्टिपात मात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंश का था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफ़ा में जाकर क्यों सो रहा था?

 श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराज मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे। ।।१-१४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

         

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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