शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीशुक उवाच

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव

मन्यमानामविश्लेषात्तद्दर्पघ्न उपारमत् २१

इति त्रिलोकेशपतेस्तदात्मनः

प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्

आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-

श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह २२

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया

भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः

आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ

तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक् २३

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धेर्

हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात

देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्

रम्भेव वायुविहतो प्रविकीर्य केशान् २४

तद्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्

हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत २५

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः

केशान्समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत्पद्मपाणिना २६

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा

आश्लिष्य बाहुना राजननन्यविषयां सतीम् २७

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः

हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः २८

 

श्रीभगवानुवाच

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्

त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याचरितमङ्गने २९

मुखं च प्रेमसंरम्भ स्फुरिताधरमीक्षितुम्

कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम् ३०

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्

यन्नर्मैरीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि ३१

 

श्रीशुक उवाच

सैवं भगवता राजन्वैदर्भी परिसान्त्विता

ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ ३२

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्

सव्रीडहासरुचिर स्निग्धापाङ्गेन भारत ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके क्षणभरके लिये भी अलग न होनेके कारण रुक्मिणीजीको यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान्‌ चुप हो गये ।। २१ ।। परीक्षित्‌ ! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान्‌ की यह अप्रिय वाणी सुनीजो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धडक़ने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ।। २२ ।। वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं। अञ्जनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्ष:स्थलको धोने लगे। मुँह नीचेको लटक गया। अत्यन्त दु:खके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं ।। २३ ।। अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पडीं ।। २४ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान्‌ श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया ।। २५ ।। चार भुजाओंवाले वे भगवान्‌ उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया ।। २६ ।। भगवान्‌ ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसुओं से भींगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया ।। २७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया ।। २८ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाविदर्भनन्दिनी ! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी ! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी ।। २९ ।। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फडक़ने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है ।। ३० ।। मेरी परमप्रिये ! सुन्दरी ! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धाङ्गिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ाँ सुखसे बिता ली जाती हैं ।। ३१ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे ।। ३२ ।। परीक्षित्‌ ! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं।। ३३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीबादरायणिरुवाच

कर्हिचित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम्

पतिं पर्यचरद्भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः १

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः

स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः २

तस्मिनन्तर्गृहे भ्राजन् मुक्तादामविलम्बिना

विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि ३

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादिते

जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः ४

पारिजातवनामोद वायुनोद्यानशालिना

धूपैरगुरुजै राजन्जालरन्ध्रविनिर्गतैः ५

पयःफेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे

उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम् ६

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्

तेन वीजयती देवी उपासांचक्र ईश्वरम् ७

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां

रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता

वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार

भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्च्या ८

तां रूपिणीं श्रीयमनन्यगतिं निरीक्ष्य

या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा

प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ

वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे ९

 

श्रीभगवानुवाच

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः

महानुभावैः श्रीमद्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः १०

तान्प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन्स्मरदुर्मदान्

दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान् ११

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रु समुद्रं शरणं गतान्

बलवद्भिः कृतद्वेषान्प्रायस्त्यक्तनृपासनान् १२

अस्पष्टवर्त्मनाम्पुंसामलोकपथमीयुषाम्

आस्थिताः पदवीं सुभ्रु प्रायः सीदन्ति योषितः १३

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः

तस्मात्प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे १४

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः

तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित् १५

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वया दीर्घसमीक्षया

वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा १६

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्

येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे १७

चैद्यशाल्वजरासन्ध दन्तवक्त्रादयो नृपाः

मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः १८

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये

आनितासि मया भद्रे तेजोपहरता सताम् १९

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः

आत्मलब्ध्यास्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं ।। १ ।। परीक्षित्‌ ! जो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ खेल-खेल में ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैंवही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करनेके लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं ।। २ ।। रुक्मिणी जी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिन में मोतियों की लडिय़ों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे ।।३।। बेला-चमेली के फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्र माकी शुभ्र किरणें महल के भीतर छिटक रही थीं ।। ४ ।। उद्यान में पारिजात के उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरुके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था ।। ५ ।। ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं ।। ६ ।। रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान्‌की सेवा करने लगीं ।। ७ ।। उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अञ्चलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान्‌के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्र थीं ।। ८ ।। रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलाव- ण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान्‌ ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा ।। ९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजकुमारी ! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं, तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे ।। १० ।। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे- जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया ? ।। ११ ।। सुन्दरी ! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्राय: राजङ्क्षसहासनके अधिकारसे भी हम वञ्चित ही हैं ।। १२ ।। सुन्दरी ! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्राय: कलेश-ही-कलेश भोगना पड़ता है ।। १३ ।। सुन्दरी ! हम तो सदाके अकिञ्चन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिञ्चन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं, और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्राय: हमसे प्रेम नहीं करते हमारी सेवा नहीं करते ।। १४ ।। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती हैउन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये ।। १५ ।। विदर्भराजकुमारी ! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया ।। १६ ।। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा- अभिलाषाएँ पूरी हो सकें ।। १७ ।। सुन्दरी ! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझसे द्वेष करते थे ।। १८ ।। कल्याणी ! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था। और कोई कारण नहीं था ।। १९ ।। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



गुरुवार, 10 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

श्रीशुक उवाच -

इति भूम्यर्थितो वाग्भिः भगवान् भक्तिनम्रया ।

 दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत् सकलर्द्धिमत् ॥ ३२ ॥

 तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम् ।

 भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः ॥ ३३ ॥

 तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवर्यं विमोहिताः ।

 मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम् ॥ ३४ ॥

 भूयात् पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम् ।

 इति सर्वाः पृथक् कृष्णे भावेन हृदयं दधुः ॥ ३५ ॥

 ताः प्राहिणोद् द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः ।

 नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत् ॥ ३६ ॥

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दन्तांस्तरस्विनः ।

 पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेरयामास केशवः ॥ ३७ ॥

 गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले ।

 पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्र्याण्या च सप्रियः ॥ ३८ ॥

 चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारीजातं गरुत्मति ।

 आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत् पुरम् ॥ ३९ ॥

 स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः ।

 अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात् तद् गन्धासवलम्पटाः ॥ ४० ॥

ययाच आनम्य किरीटकोटिभिः

     पादौ स्पृशन् अच्युतमर्थसाधनम् ।

 सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महान्

     अहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम् ॥ ४१ ॥

अथो मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः ।

 यथोपयेमे भगवान् तावद् रूपधरोऽव्ययः ॥ ४२ ॥

गृहेषु तासामनपाय्यतर्ककृत्

     निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः ।

 रेमे रमाभिर्निजकामसम्प्लुतो

     यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन् ॥ ४३ ॥

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता

     ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम् ।

 भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग

     हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः ॥ ४४ ॥

 प्रत्युद्‌गमासनवरार्हणपदशौच

     ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।

 केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः

     दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ॥ ४५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब पृथ्वीने भक्तिभावसे विनम्र होकर इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्तको अभयदान दिया और भौमासुरके समस्त सम्पत्तियोंसे सम्पन्न महलमें प्रवेश किया ।। ३२ ।। वहाँ जाकर भगवान्‌ ने देखा कि भौमासुरने बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ।। ३३ ।। जब उन राजकुमारियों ने अन्त:पुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान्‌ को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया ।। ३४ ।। उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान्‌के प्रति निछावर कर दिया ।। ३५ ।। तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियोंको सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों- से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी ।। ३६ ।। ऐरावतके वंशमें उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंगके चौंसठ हाथी भी भगवान्‌ ने वहाँसे द्वारका भेजे ।। ३७ ।।

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें  गये। वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी इन्द्राणीके साथ सत्यभामा जी और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान्‌ ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे दिये ।। ३८ ।। वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान्‌ श्रीकृष्णने कल्पवृक्ष उखाडक़र गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे द्वारकामें ले आये ।। ३९ ।। भगवान्‌ ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया। इससे उस बगीचेकी शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्षके साथ उसके गन्ध और मकरन्दके लोभी भौंरे स्वर्गसे द्वारकामें चले आये थे ।। ४० ।। परीक्षित्‌ ! देखो तो सही, जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परंतु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यताको ।। ४१ ।।

तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान्‌ के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ।। ४२ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की पत्नियोंके अलग-अलग महलोंमें ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिककी तो बात ही क्या है। उन महलोंमें रहकर मति- गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें मग्र रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो ।। ४३ ।। परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्‌के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने-वाली लज्जासे युक्त होकर सब प्रकारसे भगवान्‌की सेवा करती रहती थीं ।। ४४ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान्‌ पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान्‌ की सेवा करतीं ।। ४५ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह ।

 हरिस्तान्यच्छिनत् तीक्ष्णैः शरैरेकैक शस्त्रीभिः ॥ १७ ॥

 उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान् ।

 गुरुत्मता हन्यमानाः तुण्डपक्षनखैर्गजाः ॥ १८ ॥

 पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत ।

 दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकं ॥ १९ ॥

 तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः ।

 नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः ॥ २० ॥

 शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुं आददे वितथोद्यमः ।

 तद्विसर्गात् पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः ।

 अपाहरद् गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना ॥ २१ ॥

सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं

     बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलम् ।

 हा हेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा

     माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे ॥ २२ ॥

 ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले ।

     प्रतप्तजाम्बूनदरत्‍नभास्वरे ।

 सवैजयन्त्या वनमालयार्पयत्

     प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम् ॥ २३ ॥

अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम् ।

 प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया ॥ २४ ॥

 

 भूमिरुवाच

 नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर ।

 भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥

 नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने ।

 नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥ २६ ॥

 नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे ।

 पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः ॥ २७ ॥

 अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

 परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोऽस्तु ते ॥ २८ ॥

त्वं वै सिसृक्षुरज उत्कटं प्रभो

     तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः ।

 स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते

     कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः ॥ २९ ॥

 अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो

     मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि ।

 कर्ता महानित्यखिलं चराचरं

     त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः ॥ ३० ॥

 तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं

     भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः ।

 तत् पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं

     शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम् ॥ ३१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भौमासुरके सैनिकोंने भगवान्‌ पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान्‌ ने तीन-तीन तीखे बाणोंसे काट गिराया ।। १७ ।। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण गरुडज़ीपर सवार थे और गरुडज़ी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजोंकी मारसे हाथियोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमिसे भागकर नगरमें घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुडज़ीकी मारसे पीडि़त होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था। परंतु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो ।। १८२० ।। अब भौमासुरने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्णको मार डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया। परंतु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट डाला ।। २१ ।। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग साधु साधुकहने लगे और देवतालोग भगवान्‌ पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।। २२ ।।

अब पृथ्वी भगवान्‌के पास आयी। उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णके गले में वैजयन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान्‌को दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी ।। २३ ।। राजन् ! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम करके हाथ जोडक़र भक्तिभावभरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं ।। २४ ।।

पृथ्वीदेवीने कहाशङ्खचक्रगदाधारी देवदेवेश्वर ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन् ! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ ।। २५ ।। प्रभो ! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। आप कमलकी माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल-से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके हृदयको शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ।। २६ ।। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।। २७ ।। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परंतु इस जगत्के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय ब्रह्म हैं। जगत्का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैंसब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन् ! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार ।। २८ ।। प्रभो ! जब आप जगत्की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं। परंतु यह सब करनेपर भी आप इन गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते ! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं, तथा उन तीनोंसे परे भी हैं ।। २९ ।। भगवन् ! मैं (पृथ्वी), जल, अग्रि, वायु, आकाश, पञ्चतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्वकहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।। ३० ।। शरणागत-भय-भञ्जन प्रभो ! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ। प्रभो ! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत् के समस्त पाप-तापोंको नष्ट करनेवाला है ।। ३१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

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