मंगलवार, 15 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध

 

श्रीशुक उवाच -

अपश्यतां चानिरुद्धं तद्‌बन्धूनां च भारत ।

 चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम् ॥ १ ॥

 नारदात् तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च ।

 प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदैवताः ॥ २ ॥

 प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः साम्बोऽथ सारणः ।

 नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः ॥ ३ ॥

 अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतो दिशम् ।

 रुरुधुर्बाणनगरं समन्तात् सात्वतर्षभाः ॥ ४ ॥

 भज्यमानपुरोद्यान प्राकाराट्टालगोपुरम् ।

 प्रेक्षमाणो रुषाविष्टः तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ ॥ ५ ॥

 बाणार्थे भगवान् रुद्रः ससुतः प्रमथैर्वृतः ।

 आरुह्य नन्दिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः ॥ ६ ॥

 आसीत् सुतुमुलं युद्धं अद्‌भुतं रोमहर्षणम् ।

 कृष्णशङ्करयो राजन् प्रद्युम्नगुहयोरपि ॥ ७ ॥

 कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः ।

 साम्बस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः ॥ ८ ॥

 ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः ।

 गन्धर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टुमागमन् ॥ ९ ॥

 शङ्करानुचरान् शौरिः भूतप्रमथगुह्यकान् ।

 डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान् ॥ १० ॥

 प्रेतमातृपिशाचांश्च कुष्माण्डान् ब्रह्मराक्षसान् ।

 द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः ॥ ११ ॥

 पृथग्विधानि प्रायुङ्क्त पिणाक्यस्त्राणि शाङ्‌र्गिणे ।

 प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः ॥ १२ ॥

 ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम् ।

 आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च ॥ १३ ॥

 मोहयित्वा तु गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम् ।

 बाणस्य पृतनां शौरिः जघानासिगदेषुभिः ॥ १४ ॥

 स्कन्दः प्रद्युम्नबाणौघैः अर्द्यमानः समन्ततः ।

 असृग् विमुञ्चन् गात्रेभ्यः शिखिनापक्रमद् रणात् ॥ १५ ॥

 कुम्भाण्डः कूपकर्णश्च पेततुर्मुषलार्दितौ ।

 दुद्रुवुस्तदनीकनि हतनाथानि सर्वतः ॥ १६ ॥

 विशीर्यमाणं स्वबलं दृष्ट्वा बाणोऽत्यमर्षणः ।

 कृष्णं अभ्यद्रवत् संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम् ॥ १७ ॥

 धनूंष्याकृष्य युगपद् बाणः पञ्चशतानि वै ।

 एकैकस्मिन् शरौ द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मदः ॥ १८ ॥

 तानि चिच्छेद भगवान् धनूंसि युगपद्धरिः ।

 सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शङ्खमपूरयत् ॥ १९ ॥

 तन्माता कोटरा नाम नग्ना मक्तशिरोरुहा ।

 पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया ॥ २० ॥

 ततस्तिर्यङ्‌मुखो नग्नां अनिरीक्षन् गदाग्रजः ।

 बाणश्च तावद् विरथः छिन्नधन्वाविशत् पुरम् ॥ २१ ॥

 विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रीशिरास्त्रिपात् ।

 अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश ॥ २२ ॥

 अथ नारायणः देवः तं दृष्ट्वा व्यसृजज्ज्वरम् ।

 माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ ॥ २३ ॥

 माहेश्वरः समाक्रन्दन् वैष्णवेन बलार्दितः ।

 अलब्ध्वाभयमन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः ।

 शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयताञ्जलिः ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! बरसात के चार महीने बीत गये। परंतु अनिरुद्धजीका कहीं पता न चला। उनके घरके लोग, इस घटनासे बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे ।। १ ।। एक दिन नारदजीने आकर अनिरुद्धका शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुरके सैनिकोंको हराना और फिर नागपाशमें बाँधा जानायह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्णको ही अपना आराध्यदेव माननेवाले यदुवंशियोंने शोणितपुरपर चढ़ाई कर दी ।। २ ।। अब श्रीकृष्ण और बलरामजीके साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशीप्रद्युम्र, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदिने बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ व्यूह बनाकर चारों ओरसे बाणासुरकी राजधानीको घेर लिया ।। ३-४ ।। जब बाणासुरने देखा कि यदुवंशियोंकी सेना नगरके उद्यान, परकोटों, बुर्जों और सिंहद्वारों को तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगरसे निकल पड़ा ।। ५ ।। बाणासुरकी ओरसे साक्षात् भगवान्‌ शङ्कर वृषभराज नन्दीपर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणोंके साथ रणभूमिमें पधारे और उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीसे युद्ध किया ।। ६ ।। परीक्षित्‌ ! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णसे शङ्करजीका और प्रद्युम्रसे स्वामिकार्तिकका युद्ध हुआ ।। ७ ।। बलरामजीसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णका युद्ध हुआ। बाणासुरके पुत्रके साथ साम्ब और स्वयं बाणासुरके साथ सात्यकि भिड़ गये ।। ८ ।। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानोंपर चढ़-चढक़र युद्ध देखनेके लिये आ पहुँचे ।। ९ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने शार्ङ्गधनुषके तीखी नोकवाले बाणोंसे शङ्करजीके अनुचरोंभूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्म-राक्षसोंको मार-मारकर खदेड़ दिया ।। १०-११ ।। पिनाकपाणि शङ्करजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णपर भाँति-भाँतिके अगणित अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग किया, परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने बिना किसी प्रकारके विस्मयके उन्हें विरोधी शास्त्रास्त्रोंसे शान्त कर दिया ।। १२ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्रह्मास्त्रकी शान्तिके लिये ब्रह्मास्त्रका, वायव्यास्त्रके लिये पार्वतास्त्रका, आग्रेयास्त्रके लिये पर्जन्यास्त्रका और पाशुपतास्त्रके लिये नारायणास्त्रका प्रयोग किया ।। १३ ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने जृम्भणास्त्रसे (जिससे मनुष्यको जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेवजीको मोहित कर दिया। वे युद्धसे विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण शङ्करजीसे छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणोंसे बाणासुरकी सेनाका संहार करने लगे ।। १४ ।। इधर प्रद्युम्रने बाणोंकी बौछारसे स्वामिकार्तिकको घायल कर दिया, उनके अङ्ग-अङ्गसे रक्तकी धारा बह चली, वे रणभूमि छोडक़र अपने वाहन मयूरद्वारा भाग निकले ।। १५ ।। बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णको घायल कर दिया, वे रणभूमिमें गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियोंको हताहत देखकर बाणासुरकी सारी सेना तितर-बितर हो गयी ।। १६ ।। जब रथपर सवार बाणासुरने देखा कि श्रीकृष्ण आदिके प्रहारसे हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढक़र सात्यकिको छोड़ दिया और वह भगवान्‌ श्रीकृष्णपर आक्रमण करनेके लिये दौड़ पड़ा ।। १७ ।। परीक्षित्‌ ! रणोन्मत्त बाणासुरने अपने एक हजार हाथोंसे एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एकपर दो-दो बाण चढ़ाये ।। १८ ।। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ोंको भी धराशायी कर दिया एवं शङ्खध्वनि की ।। १९ ।। कोटरा नामकी एक देवी बाणासुरकी धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्रके प्राणोंकी रक्षाके लिये बाल-बिखेरकर नंग- धड़ंग भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने आकर खड़ी हो गयी ।। २० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने इसलिये कि कहीं उसपर दृष्टि न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तबतक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जानेके कारण अपने नगरमें चला गया ।। २१ ।।

इधर जब भगवान्‌ शङ्करके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैरवाला ज्वर दसों दिशाओंको जलाता हुआ-सा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा ।। २२ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकाबला करनेके लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपसमें लडऩे लगे ।। २३ ।। अन्तमें वैष्णव ज्वरके तेजसे माहेश्वर ज्वर पीडि़त होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रतासे हाथ जोडक़र शरणमें लेनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णसे प्रार्थना करने लगा ।। २४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 14 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन

 

ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः ।

 त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद् यदूद्वहम् ॥ ३० ॥

कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं

     श्यामं पिशङ्गाम्बरमम्बुजेक्षणम् ।

 बृहद्‌भुजं कुण्डलकुन्तलत्विषा

     स्मितावलोकेन च मण्डिताननम् ॥ ३१ ॥

 दीव्यन्तमक्षैः प्रिययाभिनृम्णया

     तदङ्गसङ्गस्तनकुङ्कुमस्रजम् ।

 बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां

     तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः ॥ ३२ ॥

 स तं प्रविष्टं वृतमाततायिभिः

     भटैरनीकैरवलोक्य माधवः ।

 उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो

     यथान्तको दण्डधरो जिघांसया ॥ ३३ ॥

 जिघृक्षया तान् परितः प्रसर्पतः

     शुनो यथा शूकरयूथपोऽहनत् ।

 ते हन्यमाना भवनाद् विनिर्गता

     निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः ॥ ३४ ॥

 तं नागपाशैर्बलिनन्दनो बली

     घ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह ।

 ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला

     बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत् ॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! पहरेदारों से यह समाचार जानकर कि कन्याका चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुरके हृदयमें बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट ऊषाके महलमें जा धमका और देखा कि अनिरुद्धजी वहाँ बैठे हुए हैं ।। ३० ।। प्रिय परीक्षित्‌ ! अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्नजीके पुत्र थे। त्रिभुवनमें उनके-जैसा सुन्दर और कोई न था। साँवरा-सलोना शरीर और उसपर पीताम्बर फहराता हुआ, कमलदलके समान बड़ी-बड़ी कोमल आँखें, लंबी-लंबी भुजाएँ, कपोलोंपर घुँघराली अलकें और कुण्डलोंकी झिलमिलाती हुई ज्योति, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे मुखकी शोभा अनूठी हो रही थी ।। ३१ ।। अनिरुद्धजी उस समय अपनी सब ओरसे सज-धजकर बैठी हुई प्रियतमा ऊषाके साथ पासे खेल रहे थे। उनके गलेमें बसंती बेलाके बहुत सुन्दर पुष्पोंका हार सुशोभित हो रहा था और उस हारमें ऊषाके अङ्गका सम्पर्क होनेसे उसके वक्ष:स्थलकी केसर लगी हुई थी। उन्हें ऊषाके सामने ही बैठा देखकर बाणासुर विस्मित-चकित हो गया ।। ३२ ।। जब अनिरुद्धजीने देखा कि बाणासुर बहुत-से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महलोंमें घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देनेके लिये लोहेका एक भयङ्कर परिघ लेकर डट गये, मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो ।। ३३ ।। बाणासुरके साथ आये हुए सैनिक उनको पकडऩेके लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जातेठीक वैसे ही, जैसे सूअरोंके दलका नायक कुत्तोंको मार डाले ! अनिरुद्धजीकी चोटसे उन सैनिकोंके सिर, भुजा, जंघा आदि अङ्ग टूट-फूट गये और वे महलोंसे निकल भागे ।। ३४ ।। जब बली बाणासुरने देखा कि यह तो मेरी सारी सेनाका संहार कर रहा है, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने नागपाशसे उन्हें बाँध लिया। ऊषाने जब सुना कि उसके प्रियतमको बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषादसे विह्वल हो गयी; उसके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहने लगी, वह रोने लगी ।। ३५ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धबन्धो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन

 

श्रीराजोवाच -

बाणस्य तनयां ऊषां उपयेमे यदूत्तमः ।

 तत्र युद्धमभूद् घोरं हरिशङ्करयोर्महत् ।

 एतत्सर्वं महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन् महात्मनः ।

 येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी ॥ २ ॥

 तस्यौरसः सुतो बानः शिवभक्तिरतः सदा ।

 मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः ॥ ३ ॥

 शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यं अकरोत्पुरा ।

 तस्य शम्भोः प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः ।

 सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥ ४ ॥

 भगवान् सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः ।

 वरेण छन्दयामास स तं वव्रे पुराधिपम् ॥ ५ ॥

 स एकदाऽऽह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः ।

 किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशन् तत्पदाम्बुजम् ॥ ६ ॥

 नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम् ।

 पुंसां अपूर्णकामानां कामपूरामराङ्‌घ्रिपम् ॥ ७ ॥

 दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत् ।

 त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम् ॥ ८ ॥

 कण्डूत्या निभृतैर्दोर्भिः युयुत्सुर्दिग्गजानहम् ।

 आद्यायां चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः ॥ ९ ॥

 तत् श्रुत्वा भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा ।

 त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते ॥ १० ॥

 इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप ।

 प्रतीक्षन् गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः ॥ ११ ॥

 तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम् ।

 कन्यालभत कान्तेन प्राग् अदृष्टश्रुतेन सा ॥ १२ ॥

 सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी ।

 सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम् ॥ १३ ॥

 बाणस्य मंत्री कुम्भाण्डः चित्रलेखा च तत्सुता ।

 सख्यपृच्छत् सखीं ऊषां कौतूहलसमन्विता ॥ १४ ॥

 कं त्वं मृगयसे सुभ्रु कीदृशस्ते मनोरथः ।

 हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये ॥ १५ ॥

 दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः ।

 पीतवासा बृहद् बाहुः योषितां हृदयंगमः ॥ १६ ॥

 तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु ।

 क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १७ ॥

 

 चित्रलेखोवाच -

 व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते ।

 तं आनेष्ये वरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥ १८ ॥

 इत्युक्त्वा देवगन्धर्व सिद्धचारणपन्नगान् ।

 दैत्यविद्याधरान् यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत् ॥ १९ ॥

 मनुजेषु च सा वृष्नीन् शूरं आनकदुन्दुभिम् ।

 व्यलिखद् रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता ॥ २० ॥

 अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाङ्‌मुखी ह्रिया ।

 सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते ॥ २१ ॥

 चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी ।

 ययौ विहायसा राजन् द्वारकां कृष्णपालिताम् ॥ २२ ॥

 तत्र सुप्तं सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता ।

 गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत् ॥ २३ ॥

 सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना ।

 दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम् ॥ २४ ॥

 परार्ध्यवासःस्रग्गन्ध धूपदीपासनादिभिः ।

 पानभोजन भक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषणार्चितः ॥ २५ ॥

 गूढः कन्यापुरे शश्वत् प्रवृद्धस्नेहया तया ।

 नाहर्गणान् स बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः ॥ २६ ॥

 तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम् ।

 हेतुभिर्लक्षयाञ्चक्रुः आप्रीतां दुरवच्छदैः ॥ २७ ॥

 भटा आवेदयाञ्चक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम् ।

 विचेष्टितं लक्षयाम कन्यायाः कुलदूषणम् ॥ २८ ॥

 अनपायिभिरस्माभिः गुप्तायाश्च गृहे प्रभो ।

 कन्याया दूषणं पुम्भिः दुष्प्रेक्ष्याया न विद्महे ॥ २९ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछामहायोगसम्पन्न मुनीश्वर ! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह किया था और इस प्रसङ्ग में भगवान्‌ श्रीकृष्ण और शङ्कर जी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तान्त विस्तार से सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! महात्मा बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामन- रूपधारी भगवान्‌ को सारी पृथ्वीका दान कर दिया था। उनके सौ लडक़े थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर ।। २ ।। दैत्यराज बलिका औरस पुत्र बाणासुर भगवान्‌ शिवकी भक्तिमें सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बातका धनी था ।। ३ ।। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था। भगवान्‌ शङ्करकी कृपासे इन्द्रादि देवता नौकर-चाकरकी तरह उसकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान्‌ शङ्कर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथोंसे अनेकों प्रकारके बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया ।। ४ ।। सचमुच भगवान्‌ शङ्कर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतोंके एकमात्र स्वामी प्रभुने बाणासुरसे कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।बाणासुरने कहा—‘भगवन् ! आप मेरे नगरकी रक्षा करते हुए यहीं रहा करें।। ५ ।।

एक दिन बल-पौरुषके घमंडमें चूर बाणासुरने अपने समीप ही स्थित भगवान्‌ शङ्कर के चरण- कमलोंको सूर्यके समान चमकीले मुकुटसे छूकर प्रणाम किया और कहा।। ६ ।। देवाधिदेव ! आप समस्त चराचर जगत् के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगोंके मनोरथ अबतक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करनेके लिये आप कल्पवृक्ष हैं ।। ७ ।। भगवन् ! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परंतु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकीमें आपको छोडक़र मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके ।। ८ ।। आदिदेव ! एक बार मेरी बाहोंमें लडऩेके लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परंतु वे भी डरके मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्गमें अपनी बाहोंकी चोटसे मैंने बहुतसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला था।। ९ ।। बाणासुरकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शङ्कर ने तनिक क्रोधसे कहा—‘रे मूढ़ ! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान योद्धासे तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा।। १० ।। परीक्षित्‌ ! बाणासुरकी बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान्‌ शङ्करकी बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान्‌ शङ्करके आदेशानुसार उस युद्धकी प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्यका नाश होनेवाला था ।। ११ ।।

परीक्षित्‌ ! बाणासुरकी एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्नमें उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजीके साथ मेरा समागम हो रहा है।आश्चर्यकी बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजीको न तो कभी देखा था और न सुना ही था ।। १२ ।। स्वप्नमें ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे ! तुम कहाँ हो ?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलताके साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियोंके बीचमें हूँ, बहुत ही लज्जित हुई ।। १३ ।। परीक्षित्‌ ! बाणासुरके मन्त्रीका नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरेकी सहेलियाँ थीं। चित्रलेखाने ऊषासे कौतूहलवश पूछा।। १४ ।। सुन्दरी ! राजकुमारी ! मैं देखती हूँ कि अभीतक किसीने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ़ रही हो और तुम्हारे मनोरथका क्या स्वरूप है ?।। १५ ।।

ऊषाने कहासखी ! मैंने स्वप्नमें एक बहुत ही सुन्दर नवयुवकको देखा है। उसके शरीरका रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदलके समान हैं। शरीरपर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लंबी-लंबी हैं और वह स्त्रियोंका चित्त चुरानेवाला है ।। १६ ।। उसने पहले तो अपने अधरोंका मधुर मधु मुझे पिलाया, परंतु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दु:खके सागरमें डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी ! मैं अपने उसी प्राणवल्लभको ढूँढ़ रही हूँ ।। १७ ।।

चित्रलेखाने कहा—‘सखी ! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकीमें कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्तचोर प्राणवल्लभको पहचानकर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी।। १८ ।। यों कहकर चित्रलेखाने बात-की-बातमें बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्योंके चित्र बना दिये ।। १९ ।। मनुष्योंमें उसने वृष्णिवंशी वसुदेवजीके पिता शूर, स्वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान्‌ श्रीकृष्ण आदिके चित्र बनाये। प्रद्युम्रका चित्र देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी ।। २० ।। परीक्षित्‌ ! जब उसने अनिरुद्धका चित्र देखा, तब तो लज्जाके मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा—‘मेरा वह प्राणवल्लभ यही है, यही है।। २१ ।।

परीक्षित्‌ ! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान्‌ श्रीकृष्णके पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्गसे रात्रिमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहुँची ।। २२ ।। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँगपर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धिके प्रभावसे उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके प्रियतमका दर्शन करा दिया ।। २३ ।। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभको पाकर आनन्दकी अधिकतासे उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजीके साथ अपने महलमें विहार करने लगी। परीक्षित्‌ ! उसका अन्त:पुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँकतक नहीं सकता था ।। २४ ।। ऊषाका प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियोंसे, सुमधुर पेय (पीनेयोग्य पदार्थदूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खानेयोग्य) और भक्ष्य (निगल जानेयोग्य) पदार्थोंसे तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषासे अनिरुद्धजीका बड़ा सत्कार करती। ऊषाने अपने प्रेमसे उनके मनको अपने वशमें कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्याके अन्त:पुरमें छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बातका भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये ।। २५-२६ ।।

परीक्षित्‌ ! यदुकुमार अनिरुद्धजीके सहवाससे ऊषाका कुआँरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीरपर ऐसे चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बातकी सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारोंने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुषसे सम्बन्ध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुरसे निवेदन किया— ‘राजन् ! हमलोग आपकी अविवाहिता राजकुमारीका जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुलपर बट्टा लगानेवाला है ।। २७-२८ ।। प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महलका पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्याको बाहरके मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलङ्कित कैसे हो गयी ? इसका कारण हमारी समझमें नहीं आ रहा है।। २९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



रविवार, 13 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की सन्तति का वर्णन तथा

अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना

 

श्रीशुक उवाच

वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया

राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि २२

यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः

व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम् २३

रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली

उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल २४

दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्याददाद्धरेः

रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया

जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः २५

तस्मिन्नभ्युदये राजन्रुक्मिणी रामकेशवौ

पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः २६

तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः

दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय २७

अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्

इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षैर्रुक्म्यदीव्यत २८

शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्

तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद्बलम्

दन्तान्सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः २९

ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद्ग्लहं तत्राजयद्बलः

जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः ३०

मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि

जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे ३१

तं चापि जितवान्रामो धर्मेण छलमाश्रितः

रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति ३२

तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः

धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा ३३

तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः

सङ्कर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः ३४

नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः

अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः ३५

रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः

क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि ३६

कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे

दन्तानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः ३७

अन्ये निर्भिन्नबाहूरु शिरसो रुधिरोक्षिताः

राजानो दुद्रवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः ३८

निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा

रक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभङ्गभयाद्धरिः ३९

ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं

रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्

रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः

सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ४०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रद्युम्न जी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्रजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।। २२ ।। यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्णसे अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्न को अपनी बेटी ब्याह दी ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! दस पुत्रोंके अतिरिक्त रुक्मिणीजीके एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने उसके साथ विवाह किया ।। २४ ।।

परीक्षित्‌ ! रुक्मीका भगवान्‌ श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाह-सम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे ।। २६ ।। जब विवाहोत्सव निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब कलिङ्गनरेश आदि घमंडी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो ।। २७ ।। राजन् ! बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा ।। २८ ।। बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत होनेपर कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये ।। २९ ।। इसके बाद रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया। परंतु रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि मैंने जीता है।। ३० ।। इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदयमें इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधके मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा ।। ३१ ।। इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई। परंतु रुक्मीने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिङ्गनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।। ३२ ।। उस समय आकाशवाणीने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।। ३३ ।। एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा।। ३४ ।। बलरामजी ! आखिर आपलोग वन- वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे ! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणोंसे तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं।। ३५ ।। रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस माङ्गलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला ।। ३६ ।। पहले कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परंतु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोधसे उसके दाँत तोड़ डाले ।। ३७ ।। बलरामजी ने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने ।। ३८ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करनेसे रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मीकी मृत्युपर भला-बुरा कुछ भी न कहा ।। ३९ ।। इसके बाद अनिरुद्धजीका विवाह और शत्रुका वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर भगवान्‌के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचनाके साथ अनिरुद्धजीको श्रेष्ठ रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे द्वारकापुरीको चले आये ।। ४० ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...