गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा

तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध

 

श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः

तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल १७

स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्

सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः १८

पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्

विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम् १९

यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत

जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते २०

तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः

अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् २१

सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः

रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत २२

अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्

अध्यासीनं च तान्विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः २३

यस्मादसाविमान्विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः

धर्मपालांस्तथैवास्मान्वधमर्हति दुर्मतिः २४

ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च

सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः २५

अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः

न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः २६

एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः

वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः २७

एतावदुक्त्वा भगवान्निवृत्तोऽसद्वधादपि

भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत्प्रभुः २८

हाहेतिवादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः

ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो २९

अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन

आयुश्चात्माक्लमं तावद्यावत्सत्रं समाप्यते ३०

अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा

योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः ३१

यद्येतद्ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन

चरिष्यति भवांल्लोक सङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः ३२

 

श्रीभगवानुवाच

चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया

नियमः प्रथमे कल्पे यावान्स तु विधीयताम् ३३

दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रि यमेव च

आशासितं यत्तद्ब्रूते साधये योगमायया ३४

 

ऋषय ऊचुः

अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च

यथा भवेद्वचः सत्यं तथा राम विधीयताम् ३५

 

श्रीभगवानुवाच

आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्

तस्मादस्य भवेद्वक्ता आयुरिन्द्रि यसत्त्ववान् ३६

किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ

अजानतस्त्वपइ!तिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः ३७

 

ऋषय ऊचुः

इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः

स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि ३८

तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्

पूयशोणितविन्मूत्र सुरामांसाभिवर्षिणम् ३९

ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः

चरित्वा द्वादशमासांस्तीर्थस्नायी विशुध्यसि ४०

 

एक बार बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थोंमें स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये ॥ १७ ॥ वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्योंको तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े ॥ १८ ॥ वे क्रमश: पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थोंमें गये ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! तदनन्तर यमुनातट और गङ्गातटके प्रधान-प्रधान तीर्थोंमें होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्सङ्गरूप महान् सत्र कर रहे थे ॥ २० ॥ दीर्घकालतक सत्सङ्गसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ॥ २१ ॥ वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान्‌ व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं ॥ २२ ॥ बलरामजी ने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जाति में उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोडक़र प्रणाम ही। इसपर बलरामजी को क्रोध आ गया ॥ २३ ॥ वे कहने लगे कि यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा धर्मके रक्षक हमलोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्डका पात्र है ॥ २४ ॥ भगवान्‌ व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्मा ने झूठमूठ अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नट की सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरेका ॥ २५-२६ ॥ जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत्में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है॥ २७ ॥ भगवान्‌ बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ॥ २८ ॥ सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान्‌ बलरामजीसे कहा—‘प्रभो ! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ॥ २९ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! सूतजीको हम लोगोंने ही ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी ॥ ३० ॥ आपने अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके लिये हुआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा मिलेगी॥ ३१-३२ ॥

भगवान्‌ बलरामने कहामैं लोगोंको शिक्षा देनेके लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्म- हत्याका प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अत: इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये ॥ ३३ ॥ आपलोग इस सूतको लंबी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ॥ ३४ ॥

ऋषियों ने कहा- बलरामजी ! आप ऐसा कोई उपाय कीजेये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हम लोगोंने इन्हें जो वरदान दिए था वह भी सत्य हो जाय ॥ ३५ ॥

भगवान बलरामने कहा- ऋषियों ! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूप मे उत्पन्न होता है | इसलिए रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र आपलोगों को पुरानोकी कथा सुनाएगा | उसे मै अपनी सक्तिसे दीर्धायु, इन्द्रियशाक्ति औए बल दिए देता हूँ ॥ ३६ ॥ ऋषियों! इसके अतिरिक्त आपलोग जो कुछ भी चाहते हो , मुझसे कहिये | मे आप लोगों कि इच्छा पूर्ण करूँगा | अनजाने मे मुझसे जो अपराध हो गया है उसका प्रायश्चित भी आपलोग सोच विचारकर बतलाइये | क्यूंकि आपलोग इस विषय के विद्वान है ॥३७॥

ऋषियों ने कहा- बलरामजी ! इल्वल का पुत्र बल्वल नामक एक भयंकर दानव है| वह प्रत्येक पर्व पर यहाँ वहां पहुँचता है और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है ॥ ३८ ॥ यदुनंदन ! वह यहाँ आकर पीच, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मसकी वर्षा करने लगता है| आप उस पापी को मर डालिये | हम लोगों कि यह बहुत बड़ी सेवा होगी ॥ ३९ ॥ इसके बाद आप एकाग्रचितसे तीर्थोंमे स्नान करते हुए बारह महीनो तक भारतवर्षकी परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिए | इससे आपकी शुद्धि हो जायगी ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरित्रे बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अठहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा

तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध

 

श्रीशुक उवाच

शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः

परलोकगतानां च कुर्वन्पारोक्ष्यसौहृदम् १

एकः पदातिः सङ्क्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्

पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत २

तं तथायान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः

अवप्लुत्य रथात्कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात् ३

गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः

दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः ४

त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि

अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया ५

तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः

बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा ६

एवं रूक्षैस्तुदन्वाक्यैः कृष्णं तोत्रैरिव द्विपम्

गदयाताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद्व्यनदच्च सः ७

गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः

कृष्णोऽपि तमहन्गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे ८

गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन्रुधिरं मुखात्

प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन्धरण्यां न्यपतद्व्यसुः ९

ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्

पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप १०

विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः

आगच्छदसिचर्माभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया ११

तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना

शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम् १२

एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्रं सहानुजम्

हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः १३

मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः

अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः १४

उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः

वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम् १५

एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान्जगदीश्वरः

ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः १६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्‌ ! लोगोंने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी हिल रही है ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि उसके ज्वार-भाटेको आगे बढऩेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया ॥ ३ ॥ घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने पड़ गये ॥ ४ ॥ कृष्ण ! तुम मेरे मामाके लडक़े हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द ! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ॥ ५ ॥ मूर्ख ! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो ! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ ॥ ६ ॥ जैसे महावत अङ्कुश से हाथीको घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज उठा ॥ ७ ॥ रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सम्हालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्ष:स्थलपर प्रहार किया ॥ ८ ॥ गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मृत शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समा गयी ॥ १० ॥

दन्तवक्त्रके भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे आया ॥ ११ ॥ राजेन्द्र ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे किरीट और कुण्डलके साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी विजयके गीत गा रहे थे। भगवान्‌के प्रवेशके अवसरपर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥ १३१५ ॥ योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल-खेलते रहते हैं। जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 30 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शाल्व-उद्धार

 

एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः ।

 यत् स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत ॥ ३० ॥

 क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः ।

 क्व चाखण्डितविज्ञान ज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः ॥ ३१ ॥

यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया

     हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम् ।

 लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरं

     कुतो नु मोहः परमस्य सद्गतेः ॥ ३२ ॥

 तं शस्त्रपूगैः प्रहरन्तमोजसा

     शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः ।

 विद्ध्वाच्छिनद्‌ वर्म धनुः शिरोमणिं

     सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह ॥ ३३ ॥

 तत्कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं

     पपात तोये गदया सहस्रधा ।

 विसृज्य तद्‌ भूतलमास्थितो गदां

     उद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद् द्रुतम् ॥ ३४ ॥

 आधावतः सगदं तस्य बाहुं

     भल्लेन छित्त्वाथ रथाङ्‌गमद्‌भुतम् ।

 वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभं

     बिभ्रद् बभौ सार्क इवोदयाचलः ॥ ३५ ॥

 जहार तेनैव शिरः सकुण्डलं

     किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः ।

 वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरो

     बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम् ॥ ३६ ॥

तस्मिन्निपतिते पापे सौभे च गदया हते ।

 नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः ।

 सखीनां अपचितिं कुर्वन् दन्तवक्रो रुषाभ्यगात् ॥ ३७ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! इस प्रकारकी बात पूर्वापर का विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बातको भूल जाते हैं कि श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा कहना उन्हींके वचनोंके विपरीत है ॥ ३० ॥ कहाँ अज्ञानियोंमें रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान्‌ श्रीकृष्णजिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है। (भला, उनमें वैसे भावोंकी सम्भावना ही कहाँ है ?) ॥ ३१ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्याका भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदिमें आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञानको मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतोंके परम गतिस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णमें भला, मोह कैसे हो सकता है ? ॥ ३२ ॥

अब शाल्व भगवान्‌ श्रीकृष्णपर बड़े उत्साह और वेगसे शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा था। अमोघशक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपने बाणोंसे शाल्वको घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिरकी मणिको छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही गदाकी चोटसे उसके विमानको भी जर्जर कर दिया ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके हाथोंसे चलायी हुई गदासे वह विमान चूर-चूर होकर समुद्रमें गिर पड़ा। गिरनेके पहले ही शाल्व हाथमें गदा लेकर धरतीपर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेगसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ओर झपटा ॥ ३४ ॥ शाल्वको आक्रमण करते देख उन्होंने भालेसे गदाके साथ उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालनेके लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्यके साथ उदयाचल शोभायमान हो ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस चक्रसे परम मायावी शाल्वका कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुरका सिर काट डाला था। उस समय शाल्वके सैनिक अत्यन्त दु:खसे हाय-हायचिल्ला उठे ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदाके प्रहारसे चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाशमें दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदिका बदला लेनेके लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ॥ ३७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सौभवधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सतहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शाल्व-उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः ।

 नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम् ॥ १ ॥

 विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः ।

 प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन् नाराचैरष्टभिः स्मयन् ॥ २ ॥

 चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत् ।

 द्वावाभ्यं धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः ॥ ३ ॥

 गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम् ।

 पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकन्धराः ॥ ४ ॥

 एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम् ।

 युद्धं त्रिणवरात्रं तद् अभूत् तुमुलमुल्बणम् ॥ ५ ॥

 इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना ।

 राजसूयेऽथ निवृत्ते शिशुपाले च संस्थिते ॥ ६ ॥

 कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम् ।

 निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वावारवतीं ययौ ॥ ७ ॥

 आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसङ्‌गतः ।

 राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम ॥ ८ ॥

 वीक्ष्य तत्कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम् ।

 सौभं च शाल्वराजं च दारुकं प्राह केशवः ॥ ९ ॥

 रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै ।

 सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम् ॥ १० ॥

 इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः ।

 विशन्तं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम् ॥ ११ ॥

 शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः ।

 प्राहरत् कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे ॥ १२ ॥

 तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा ।

 भासयन्तीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत् ॥ १३ ॥

 तं च षोडशभिर्विद्ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत् ।

 अविध्यच्छरसन्दोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः ॥ १४ ॥

 शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं शार्ङ्‌गं शार्ङ्‌गधन्वनः ।

 बिभेद न्यपतद् हस्तात् शार्ङ्‌गमासीत् तदद्‌भुतम् ॥ १५ ॥

 हाहाकारो महानासीद्‌ भूतानां तत्र पश्यताम् ।

 निनद्य सौभराडुच्चैः इदमाह जनार्दनम् ॥ १६ ॥

 यत्त्वया मूढ नः सख्युः भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम् ।

 प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा ॥ १७ ॥

 तं त्वाद्य निशितैर्बाणैः अपराजितमानिनम् ।

 नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः ॥ १८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम् ।

 पौरुषं दर्शयन्ति स्म शूरा न बहुभाषिणः ॥ १९ ॥

 इत्युक्त्वा भगवान् शाल्वं गदया भीमवेगया ।

 तताड जत्रौ संरब्धः स चकम्पे वमन्नसृक् ॥ २० ॥

 गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत ।

 ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाच्युतम् ।

 देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन् ॥ २१ ॥

 कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल ।

 बद्ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः ॥ २२ ॥

 निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः ।

 विमनस्को घृणी स्नेहाद् बभाषे प्राकृतो यथा ॥ २३ ॥

 कथं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः ।

 शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान् विधिः ॥ २४ ॥

 इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः ।

 वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः ॥ २५ ॥

 एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि ।

 वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुं ईशश्चेत् पाहि बालिश ॥ २६ ॥

 एवं निर्भर्त्स्य मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः ।

 उत्कृत्य शिर आदाय खस्थं सौभं समाविशत् ॥ २७ ॥

ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः

     स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्‌गतः ।

 महानुभावस्तदबुध्यदासुरीं

     मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम् ॥ २८ ॥

 न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं

     प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः ।

 स्वाप्नं यथा चाम्बरचारिणं रिपुं

     सौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः ॥ २९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब प्रद्युम्नजी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथिसे कहा कि मुझे वीर द्युमान् के पास फिर से ले चलो॥ १ ॥ उस समय द्युमान् यादवसेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्नजी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करनेसे रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ॥ २ ॥ चार बाणोंसे उसके चार घोड़े और एक-एक बाणसे सारथि, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ॥ ३ ॥ इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्वकी सेनाका संहार करने लगे। सौभ-विमानपर चढ़े हुए सैनिकोंकी गरदनें कट जातीं और वे समुद्रमें गिर पड़ते ॥ ४ ॥ इस प्रकार यदुवंशी और शाल्वके सैनिक एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयङ्कर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा ॥ ५ ॥

उन दिनों भगवान्‌ श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके बुलानेसे इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपालकी भी मृत्यु हो गयी थी ॥ ६ ॥ वहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि बड़े भयङ्कर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवोंसे अनुमति लेकर द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे कि मैं पूज्य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपालके पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारकापर आक्रमण कर रहे होंगे॥ ८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने द्वारकामें पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवोंपर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजीको नगरकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्वको देखकर अपने सारथि दारुकसे कहा॥ ९ ॥ दारुक ! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्वके पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना॥ १० ॥ भगवान्‌की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथपर चढ़ गया और उसे शाल्वकी ओर ले चला । भगवान्‌के रथकी ध्वजा गरुड़चिह्नसे चिह्नित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्वकी सेनाके लोगोंने युद्धभूमिमें प्रवेश करते ही भगवान्‌को पहचान लिया ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! अबतक शाल्वकी सारी सेना प्राय: नष्ट हो चुकी थी। भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखते ही उसने उनके सारथिपर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयङ्कर शब्द करती हुई आकाशमें बड़े वेगसे चल रही थी और बहुत बड़े लूकके समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाशसे दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथिकी ओर आते देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ॥ १२-१३ ॥ इसके बाद उन्होंने शाल्वको सोलह बाण मारे और उसके विमानको भी, जो आकाशमें घूम रहा था, असंख्य बाणोंसे चलनी कर दियाठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे आकाशको भर देता है ॥ १४ ॥ शाल्वने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बायीं भुजामें, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान्‌के हाथसे छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ॥ १५ ॥ जो लोग आकाश या पृथ्वीसे यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोरसे हाय-हायपुकार उठे। तब शाल्वने गरजकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे यों कहा॥ १६ ॥ मूढ़ ! तूने हमलोगोंके देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपालकी पत्नीको हर लिया तथा भरी सभामें, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था तूने उसे मार डाला ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तू अपनेको अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणोंसे वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता॥ १८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘रे मन्द ! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिरपर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थकी बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं॥ १९ ॥ इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयङ्कर गदासे शाल्वके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा ॥ २० ॥ इधर जब गदा भगवान्‌ के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान्‌ के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजीने भेजा है ॥ २१ ॥ उन्होंने कहा है कि अपने पिताके प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! शाल्व तुम्हारे पिताको उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले जाय !॥ २२ ॥ यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुषके समान अत्यन्त करुणा और स्नेहसे कहने लगे॥ २३ ॥ अहो ! मेरे भाई बलरामजीको तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्वका बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजीको बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है॥ २४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजीके समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्णसे कहने लगा॥ २५ ॥ मूर्ख ! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा॥ २६ ॥ मायावी शाल्वने इस प्रकार भगवान्‌को फटकारकर मायारचित वसुदेवका सिर तलवारसे काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमानपर जा बैठा ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ीके लिये अपने स्वजन वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त प्रेम होनेके कारण साधारण पुरुषोंके समान शोकमें डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्वकी फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मयदानवने बतलायी थी ॥ २८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने युद्धभूमिमें सचेत होकर देखान वहाँ दूत है और न पिताका वह शरीर; जैसे स्वप्नमें एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो ! उधर देखा तो शाल्व विमानपर चढक़र आकाशमें विचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके लिये उद्यत हो गये ॥२९॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...