रविवार, 4 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च सद्विजः ।

विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम् ॥ १६ ॥

गृहं द्‌व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः ।

विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानन्दं गतो यथा ॥ १७ ॥

तं विलोक्याच्युतो दूरात् प्रियापर्यङ्कमास्थितः ।

सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा ॥ १८ ॥

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेः अङ्‌गसङ्‌गातिनिर्वृतः ।

प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः ॥ १९ ॥

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं सख्युः समर्हणम् ।

उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः ॥ २० ॥

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवान् लोकपावनः ।

व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कमैः ॥ २१ ॥

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा ।

अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत् ॥ २२ ॥

कुचैलं मलिनं क्षामं द्‌विजं धमनिसंततम् ।

देवी पर्यचरत् साक्षात् चामरव्यजनेन वै ॥ २३ ॥

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना ।

विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम् ॥ २४ ॥

किमनेन कृतं पुण्यं अवधूतेन भिक्षुणा ।

श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च ॥ २५ ॥

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः ।

पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा ॥ २६ ॥

कथयां चक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः ।

आत्मनोर्ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम् ॥ २७ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद्‌ भवता लब्धदक्षिणात् ।

समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा ॥ २८ ॥

प्रायो गृहेषु ते चित्तं अकामविहितं तथा ।

नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे ॥ २९ ॥

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः ।

त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीः यथाहं लोकसङ्‌ग्रहम् ॥ ३० ॥

कच्चिद्‌ गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः ।

द्‌विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते ॥ ३१ ॥

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः ।

आद्योऽङ्‌ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः ॥ ३२ ॥

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह ।

ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम् ॥ ३३ ॥

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा ।

तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ३४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढिय़ाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ॥ १६ ॥ उनके बीच भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा- सजायाअत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों ! ॥ १७ ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! परमानन्द- स्वरूप भगवान्‌ अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अङ्ग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! कुछ समयके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया ॥ २०-२१ ॥ फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे भले पधारेऐसा कहकर उनका स्वागत किया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण- देवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ॥ २३ ॥ अन्त:पुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं ॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकीमें सबसे बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोडक़र इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है॥ २५-२६ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकडक़र अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं ॥ २७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाधर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव ! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं ? ॥ २८ ॥ मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्राय: विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन् ! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ॥ २९ ॥ जगत्में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान्‌की मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं ॥ ३० ॥ ब्राह्मणशिरोमणे ! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ मित्र ! इस संसारमें शरीरका कारणजन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं ॥ ३२ ॥ मेरे प्यारे मित्र ! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं ॥ ३३ ॥ प्रिय मित्र ! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पञ्चमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन- वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जानाइस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषा से सन्तुष्ट होता हूँ ॥ ३४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

श्रीराजोवाच -

भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।

वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामि हे प्रभो ॥ १ ॥

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन् उत्तमःश्लोकसत्कथाः ।

विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः ॥ २ ॥

सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते

     करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।

 स्मरेद्‌ वसन्तं स्थिरजङ्‌गमेषु

     श्रृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥ ३ ॥

 शिरस्तु तस्योभयलिङ्‌गमानं

     एत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।

 अङ्‌गानि विष्णोरथ तज्जनानां

     पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥ ४ ॥

 

 सूत उवाच -

विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः ।

 वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः ।

 विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥

 यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।

 तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥ ७ ॥

 पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।

 दरिद्रं सीदमाना वै वेपमानाभिगम्य च ॥ ८ ॥

 ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः ।

 ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः ॥ ९ ॥

 तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम् ।

 दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥ १० ॥

 आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।

 स्मरतः पादकमलं आत्मानमपि यच्छति ।

 किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टान्जगद्‌गुरुः ॥ ११ ॥

 स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु ।

 अयं हि परमो लाभ उत्तमःश्लोकदर्शनम् ॥ १२ ॥

 इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।

 अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३ ॥

 याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान् ।

 चैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ॥ १४ ॥

 स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल ।

 कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिकरसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्र- कीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मङ्गलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ॥ २ ॥ जो वाणी भगवान्‌ के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्‌ की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्‌ का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्‌ की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं ॥ ३ ॥ वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान्‌ की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अङ्ग भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरणोदक का सेवन करते हैं, वे ही अङ्ग वास्तवमें अङ्ग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ने इस प्रकार प्रश्र किया, तब भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्‌से इस प्रकार कहा ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ॥ ६ ॥ वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी ॥ ७ ॥ एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दु:खिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली॥ ८ ॥ भगवन् ! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं ॥ ९ ॥ परम भाग्यवान् आर्यपुत्र ! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुखी हो रहे हैं, तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ॥ १० ॥ आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं। और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें, तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ?’ ॥ ११ ॥ इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है॥ १२ ॥ यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले— ‘कल्याणी ! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या ? यदि हो तो दे दो॥ १३ ॥ तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्‌ को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये ॥ १४ ॥ इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?’ ॥ १५ ॥

 

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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

बल्वल का उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा

 

ततोऽभिव्रज्य भगवान्केरलांस्तु त्रिगर्तकान्

गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः १९

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद्बलः

तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम् २०

प्रविश्य रेवामगमद्यत्र माहिष्मती पुरी

मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत् २१

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे

सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः २२

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे

वारयिष्यन्विनशनं जगाम यदुनन्दनः २३

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि

अभिवाद्याभवंस्तुष्णीं किं विवक्षुरिहागतः २४

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ

मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत् २५

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन्हे वृकोदर

एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम् २६

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः

न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः २७

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्

अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च २८

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ

उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः २९

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन्मुदा

क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम् ३०

तेभ्यो विशुद्धं विज्ञानं भगवान्व्यतरद्विभुः

येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः ३१

स्वपत्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्वृतः

रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः ३२

ईदृग्विधान्यसङ्ख्यानि बलस्य बलशालिनः

अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि ३३

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद्भुतकर्मणः

सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत् ३४

 

अब भगवान्‌ बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगर्त देशोंमें होकर भगवान्‌ शङ्कर के क्षेत्र गोकर्णतीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान्‌ शङ्कर विराजमान रहते हैं ॥ १९ ॥ वहाँसे जलसे घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर शूर्पारक- क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये ॥ २० ॥ वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये। परीक्षित्‌ ! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये ॥ २१ ॥ वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि कौरव और पाण्डवोंके युद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया ॥ २२ ॥ जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ॥ २३ ॥

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे हैं ? ॥ २४ ॥ उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा लेकर एक- दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजीने कहा॥ २५ ॥ राजा दुर्योधन और भीमसेन ! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक पायी है ॥ २६ ॥ इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अत: तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुव्र्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे ॥ २८ ॥ भगवान्‌ बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये। द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर उनका स्वागत किया ॥ २९ ॥ वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ ऋषियोंने विरोधभावसेयुद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रह के लिये ही था ॥ ३० ॥ सर्वसमर्थ भगवान्‌ बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे ॥ ३१ ॥ इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं ॥ ३२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है। उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती ॥ ३३ ॥ जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान्‌ बलरामजीके चरित्रोंका सायं- प्रात: स्मरण करता है, वह भगवान्‌का अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उन्नासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

बल्वल का उद्धार और बलराम जी की तीर्थयात्रा

 

श्रीशुक उवाच

ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांशुवर्षणः

भीमो वायुरभूद्राजन्पूयगन्धस्तु सर्वशः १

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्

अभवद्यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक् २

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्

तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम् ३

सस्मार मूषलं रामः परसैन्यविदारणम्

हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः ४

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्

मूषलेनाहनत्क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः ५

सोऽपतद्भुवि निर्भिन्न ललाटोऽसृक्समुत्सृजन्

मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः ६

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः

अभ्यषिञ्चन्महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा ७

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजां

रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च ८

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः

स्नात्वा सरोवरमगाद्यतः सरयूरास्रवत् ९

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः

स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन्जगाम पुलहाश्रमम् १०

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः

गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे ११

उपस्पृश्य महेन्द्रा द्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च

सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः १२

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्

द्र विडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः १३

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्

श्रीरन्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः १४

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा

सामुद्रं सेतुमगमत्महापातकनाशनम् १५

तत्रायुतमदाद्धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः

कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम् १६

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च

योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम् १७

दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः

ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्

विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद्गवायुतम् १८

 

श्रीसुखदेवजी कहते हैं परीक्षित्‌ पर्व का दिन आनेपर बड़ा भयंकर है ॥ ९ ॥ वहाँसे सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोडक़र प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रम गये ॥ १० ॥ वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननद के तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरों का वसुदेवजी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गङ्गा-सागर- संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ परशुरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान्‌ बलरामने द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे कामाक्षीशिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान्‌ विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ॥ ११-१४ ॥ वहाँसे उन्होंने विष्णु भगवान्‌ के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की ॥ १५ ॥ वहाँ बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है ॥ १६ ॥ वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया ॥ १७ ॥ इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थअनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान्‌ का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान कीं ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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