॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सुदामा जी को
ऐश्वर्यकी प्राप्ति
ब्राह्मणस्तां तु रजनीं
उषित्वाच्युतमन्दिरे ।
भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने
आत्मानं स्वर्गतं यथा ॥ १२ ॥
श्वोभूते विश्वभावेन
स्वसुखेनाभिवन्दितः ।
जगाम स्वालयं तात
पथ्यनुव्रज्य नन्दितः ॥ १३ ॥
स चालब्ध्वा धनं कृष्णान् न
तु याचितवान् स्वयम् ।
स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन्
महद्दर्शननिर्वृतः ॥ १४ ॥
अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा
ब्रह्मण्यता मया ।
यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीं
आश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥ १५ ॥
क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व
कृष्णः श्रीनिकेतनः ।
ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं
बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ १६ ॥
निवासितः प्रियाजुष्टे
पर्यङ्के भ्रातरो यथा ।
महिष्या वीजितः श्रान्तो
बालव्यजनहस्तया ॥ १७ ॥
शुश्रूषया परमया
पादसंवाहनादिभिः ।
पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन
देववत् ॥ १८ ॥
स्वर्गापवर्गयोः पुंसां
रसायां भुवि सम्पदाम् ।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं
तच्चरणार्चनम् ॥ १९ ॥
अधनोऽयं धनं प्राप्य
माद्यात् उच्चैः न मां स्मरेत् ।
इति कारुणिको नूनं धनं
मेऽभूरि नाददात् ॥ २० ॥
इति तच्चिन्तयन् अन्तः
प्राप्तो नियगृहान्तिकम् ।
सूर्यानलेन्दुसङ्काशैः
विमानैः सर्वतो वृतम् ॥ २१ ॥
विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्द्विजकुलाकुलैः
।
प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोज
कह्लारोत्पलवारिभिः ॥ २२ ॥
जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः
स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः ।
किमिदं कस्य वा स्थानं कथं
तदिदमित्यभूत् ॥ २३ ॥
एवं मीमांसमानं तं नरा
नार्योऽमरप्रभाः ।
प्रत्यगृह्णन् महाभागं
गीतवाद्येन भूयसा ॥ २४ ॥
पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा
।
निश्चक्राम गृहात्तूर्णं
रूपिणी श्रीरिवालयात् ॥ २५ ॥
पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा
प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना ।
मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या
मनसा परिषस्वजे ॥ २६ ॥
परीक्षित् !
ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान् श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे
वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया,
मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ ॥ १२ ॥ परीक्षित् !
श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ
माँगा नहीं ! वे अपने चित्तकी करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान् श्रीकृष्णके
दर्शनजनित आनन्दमें डूबते- उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े ॥ १३-१४ ॥ वे मन-ही-मन
सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और
आश्चर्यकी बात है ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी
ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है ! जिनके वक्ष:स्थलपर स्वयं
लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त
दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया ॥ १५ ॥ कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र,
और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण ! परन्तु
उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर
मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ १६ ॥ इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी
प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ ! कहाँतक कहूँ ?
मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी
रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ॥ १७ ॥ ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने
पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त
सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की ॥ १८ ॥ स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त
योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है ॥ १९ ॥ फिर भी परमदयालु
श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर
बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’ ॥ २० ॥
इस प्रकार
मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या
देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य,
अग्रि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है।
ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड
रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति- भाँतिके कमल खिले हुए हैं;
सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस
स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा
हूँ ? यह किसका स्थान है ? यदि यह वही
स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा
कैसे हो गया’ ॥ २१—२३ ॥ इस प्रकार वे
सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ
मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये ॥ २४ ॥
पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी
घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती
लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों ॥ २५ ॥ पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके
नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर
लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी ॥
२६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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