सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

ब्राह्मणस्तां तु रजनीं उषित्वाच्युतमन्दिरे ।

भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा ॥ १२ ॥

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः ।

जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः ॥ १३ ॥

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान् न तु याचितवान् स्वयम् ।

स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन् महद्दर्शननिर्वृतः ॥ १४ ॥

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया ।

यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीं आश्लिष्टो बिभ्रतोरसि ॥ १५ ॥

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः ।

ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः ॥ १६ ॥

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा ।

महिष्या वीजितः श्रान्तो बालव्यजनहस्तया ॥ १७ ॥

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः ।

पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत् ॥ १८ ॥

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम् ।

सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम् ॥ १९ ॥

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यात् उच्चैः न मां स्मरेत् ।

इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात् ॥ २० ॥

इति तच्चिन्तयन् अन्तः प्राप्तो नियगृहान्तिकम् ।

सूर्यानलेन्दुसङ्काशैः विमानैः सर्वतो वृतम् ॥ २१ ॥

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्‍द्विजकुलाकुलैः ।

प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोज कह्लारोत्पलवारिभिः ॥ २२ ॥

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः ।

किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ॥ २३ ॥

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः ।

प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा ॥ २४ ॥

पतिमागतमाकर्ण्य पत्‍न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा ।

निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात् ॥ २५ ॥

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना ।

मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान्‌ श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं ! वे अपने चित्तकी करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते- उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े ॥ १३-१४ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है ! जिनके वक्ष:स्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया ॥ १५ ॥ कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ! परन्तु उन्होंने यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ १६ ॥ इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ ! कहाँतक कहूँ ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ॥ १७ ॥ ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की ॥ १८ ॥ स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है ॥ १९ ॥ फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे॥ २० ॥

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्रि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिकभाँति- भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह किसका स्थान है ? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया॥ २१२३ ॥ इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये ॥ २४ ॥ पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों ॥ २५ ॥ पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी ॥ २६ ॥

 

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रविवार, 4 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

श्रीशुक उवाच -

स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः ।

सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम् ॥ १ ॥

ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान् प्रहसन् प्रियम् ।

प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः ॥ २ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

किमुपायनमानीतं ब्रह्मन्मे भवता गृहात् ।

अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भुर्येव मे भवेत् ।

भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥ ३ ॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतं अश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ४ ॥

इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः ।

पृथुकप्रसृतिं राजन् न प्रायच्छदवाङ्मुखः ॥ ५ ॥

सर्वभूतात्मदृक् साक्षात् तस्यागमनकारणम् ।

विज्ञायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा ॥ ६ ॥

पत्‍न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया ।

प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः ॥ ७ ॥

इत्थं विचिन्त्य वसनात् चीरबद्धान् द्विजन्मनः ।

स्वयं जहार किमिदं इति पृथुकतण्डुलान् ॥ ८ ॥

नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे ।

तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वं एते पृथुकतण्डुलाः ॥ ९ ॥

इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे ।

तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः ॥ १० ॥

एतावतालं विश्वात्मन् सर्वसम्पत्समृद्धये ।

अस्मिन्लोके अथवामुष्मिन् पुंसस्त्वत्तोषकारणम् ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके मनकी बात जानते हैं। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, उनके क्लेशोंके नाशक तथा संतोंके एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकारसे उन ब्राह्मणदेवताके साथ बहुत देरतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मणसे तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताकी ओर प्रेमभरी दृष्टिसे देख रहे थे ॥ १-२ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘ब्रह्मन् ! आप अपने घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं ? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं, तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता ॥ ३ ॥ जो पुरुष प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मण देवताने लज्जावश उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक सङ्कल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है॥ ५-७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ चिउड़ा यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया ॥ ८ ॥ और बड़े आदरसे कहने लगे—‘प्यारे मित्र ! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये पर्याप्त हैं॥ ९ ॥ ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणीके रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया ! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान्‌ के परायण हैं, उन्हें छोडक़र और कहीं जा नहीं सकतीं ॥ १० ॥ रुक्मिणीजीने कहा—‘विश्वात्मन् ! बस, बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है॥ ११ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ ।

गुरुदारैश्चोदितानां इन्धनानयने क्वचित् ॥ ३५ ॥

प्रविष्टानां महारण्यं अपर्तौ सुमहद् द्विज ।

वातवर्षं अभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्‍नवः ॥ ३६ ॥

सूर्यश्चास्तं गतस्तावत् तमसा चावृता दिशः ।

निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन ॥ ३७ ॥

वयं भृशम्तत्र महानिलाम्बुभिः

     निहन्यमाना महुरम्बुसम्प्लवे ।

 दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने

     गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः ॥ ३८ ॥

एतद्‌ विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः ।

अन्वेषमाणो नः शिष्यान् आचार्योऽपश्यदातुरान् ॥ ३९ ॥

अहो हे पुत्रका यूयं अस्मदर्थेऽतिदुःखिताः ।

आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठः तं अनादृत्य मत्पराः ॥ ४० ॥

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम् ।

यद्‌ वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ ॥ ४१ ॥

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः ।

छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ॥ ४२ ॥

इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु ।

गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये ॥ ४३ ॥

 

श्रीब्राह्मण उवाच -

किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद्‌गुरो ।

भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत् ॥ ४४ ॥

यस्य च्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो ।

श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम् ॥ ४५ ॥

 

ब्रह्मन् ! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने र्ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था ॥ ३५ ॥ उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयङ्कर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कडक़ने लगी थी ॥ ३६ ॥ तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा- ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ॥ ३७ ॥ वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ पकडक़र जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे ॥ ३८ ॥ जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगों को ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ॥ ३९ ॥ वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है ! पुत्रो ! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे ॥ ४० ॥ गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें ॥ ४१ ॥ द्विजशिरोमणियो ! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो॥ ४२ ॥ प्रिय मित्र ! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है ॥ ४३ ॥

ब्राह्मणदेवताने कहादेवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण ! भला अब हमें क्या करना बाकी है ? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसङ्कल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था ॥ ४४ ॥ प्रभो ! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य- लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है ? ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीदामचरिते अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च सद्विजः ।

विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम् ॥ १६ ॥

गृहं द्‌व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः ।

विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानन्दं गतो यथा ॥ १७ ॥

तं विलोक्याच्युतो दूरात् प्रियापर्यङ्कमास्थितः ।

सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा ॥ १८ ॥

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेः अङ्‌गसङ्‌गातिनिर्वृतः ।

प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः ॥ १९ ॥

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं सख्युः समर्हणम् ।

उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः ॥ २० ॥

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवान् लोकपावनः ।

व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कमैः ॥ २१ ॥

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा ।

अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत् ॥ २२ ॥

कुचैलं मलिनं क्षामं द्‌विजं धमनिसंततम् ।

देवी पर्यचरत् साक्षात् चामरव्यजनेन वै ॥ २३ ॥

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना ।

विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम् ॥ २४ ॥

किमनेन कृतं पुण्यं अवधूतेन भिक्षुणा ।

श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च ॥ २५ ॥

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः ।

पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा ॥ २६ ॥

कथयां चक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः ।

आत्मनोर्ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम् ॥ २७ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

अपि ब्रह्मन्गुरुकुलाद्‌ भवता लब्धदक्षिणात् ।

समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा ॥ २८ ॥

प्रायो गृहेषु ते चित्तं अकामविहितं तथा ।

नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे ॥ २९ ॥

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः ।

त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीः यथाहं लोकसङ्‌ग्रहम् ॥ ३० ॥

कच्चिद्‌ गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः ।

द्‌विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते ॥ ३१ ॥

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः ।

आद्योऽङ्‌ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः ॥ ३२ ॥

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह ।

ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम् ॥ ३३ ॥

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा ।

तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा ॥ ३४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढिय़ाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ॥ १६ ॥ उनके बीच भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा- सजायाअत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों ! ॥ १७ ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! परमानन्द- स्वरूप भगवान्‌ अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अङ्ग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! कुछ समयके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया ॥ २०-२१ ॥ फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे भले पधारेऐसा कहकर उनका स्वागत किया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण- देवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ॥ २३ ॥ अन्त:पुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं ॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकीमें सबसे बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोडक़र इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है॥ २५-२६ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकडक़र अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं ॥ २७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाधर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव ! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं ? ॥ २८ ॥ मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्राय: विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन् ! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ॥ २९ ॥ जगत्में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान्‌की मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं ॥ ३० ॥ ब्राह्मणशिरोमणे ! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ मित्र ! इस संसारमें शरीरका कारणजन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं ॥ ३२ ॥ मेरे प्यारे मित्र ! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं ॥ ३३ ॥ प्रिय मित्र ! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पञ्चमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन- वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जानाइस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषा से सन्तुष्ट होता हूँ ॥ ३४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अस्सीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

 

श्रीराजोवाच -

भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।

वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामि हे प्रभो ॥ १ ॥

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन् उत्तमःश्लोकसत्कथाः ।

विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः ॥ २ ॥

सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते

     करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।

 स्मरेद्‌ वसन्तं स्थिरजङ्‌गमेषु

     श्रृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः ॥ ३ ॥

 शिरस्तु तस्योभयलिङ्‌गमानं

     एत्तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षुः ।

 अङ्‌गानि विष्णोरथ तज्जनानां

     पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ॥ ४ ॥

 

 सूत उवाच -

विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः ।

 वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः ।

 विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥

 यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी ।

 तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा ॥ ७ ॥

 पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा ।

 दरिद्रं सीदमाना वै वेपमानाभिगम्य च ॥ ८ ॥

 ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः ।

 ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः ॥ ९ ॥

 तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम् ।

 दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने ॥ १० ॥

 आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।

 स्मरतः पादकमलं आत्मानमपि यच्छति ।

 किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टान्जगद्‌गुरुः ॥ ११ ॥

 स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु ।

 अयं हि परमो लाभ उत्तमःश्लोकदर्शनम् ॥ १२ ॥

 इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे ।

 अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम् ॥ १३ ॥

 याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान् ।

 चैलखण्डेन तान् बद्ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम् ॥ १४ ॥

 स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल ।

 कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिकरसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्र- कीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मङ्गलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ॥ २ ॥ जो वाणी भगवान्‌ के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्‌ की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्‌ का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्‌ की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं ॥ ३ ॥ वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान्‌ की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अङ्ग भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरणोदक का सेवन करते हैं, वे ही अङ्ग वास्तवमें अङ्ग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ने इस प्रकार प्रश्र किया, तब भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्‌से इस प्रकार कहा ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! एक ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ॥ ६ ॥ वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी ॥ ७ ॥ एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दु:खिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली॥ ८ ॥ भगवन् ! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं ॥ ९ ॥ परम भाग्यवान् आर्यपुत्र ! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुखी हो रहे हैं, तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ॥ १० ॥ आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं। और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें, तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ?’ ॥ ११ ॥ इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है॥ १२ ॥ यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले— ‘कल्याणी ! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या ? यदि हो तो दे दो॥ १३ ॥ तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्‌ को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये ॥ १४ ॥ इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?’ ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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