॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भृगुजी के
द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा
भगवान् का
मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना
तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकाः
तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ ४९
तान्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः
सहस्रादित्यसङ्काशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः ५०
तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्
विदारयद्भूरितरेण रोचिषा
मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं
गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः ५१
द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः
परं परं ज्योतिरनन्तपारम्
समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः
प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे ५२
ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता
बलीयसैजद्बृहदूर्मिभूषणम्
तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं
भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम् ५३
तस्मिन्महाभोगमनन्तमद्भुतं
सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः
विभ्राजमानं द्विगुणेक्षणोल्बणं
सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम् ५४
ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं
महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्
सान्द्रा म्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं
प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम् ५५
महामणिव्रातकिरीटकुण्डल
प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम्
प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं
श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालयावृतम् ५६
सुनन्दनन्दप्रमुखै: स्वपार्षदै-
श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधै:
पुष्ट्या श्रियाकीर्त्यजयाखिलर्द्धिभि-
र्निषेव्यमाणं परमेष्टिनां पतिम् ५७
ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो
जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः
तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-
र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा ५८
द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा
मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये
कलावतीर्णाववनेर्भरासुरा-
न्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ५९
पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी
धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसङ्ग्रहम् ६०
इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना
ॐ इत्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान् ६१
न्यवर्तेतां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम्
विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावयः ६२
निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः
यत्किञ्चित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम् ६३
इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्
बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्युर्जितैर्मखैः ६४
प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु
यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवान्श्रैष्ठ्यमास्थितः ६५
हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्घाटयित्वार्जुनादिभिः
अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः ६६
परीक्षित् !
वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प
और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता
ही न था ॥ ४९ ॥ योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा
देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्योंके समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी ॥ ५० ॥
सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान्के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं
महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान
पड़ता था, मानो भगवान् रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो ॥
५१ ॥ इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकारकी
अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम
ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश
होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद भगवान्के रथने दिव्य जलराशिमें
प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरङ्गें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियोंके
सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल
ज्योति फैल रही थी ॥ ५३ ॥ उसी महलमें भगवान् शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर
अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर-सुन्दर
मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयङ्कर थे।
उनका सम्पूर्ण शरीर कैलास के समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी ॥
५४ ॥ परीक्षित् ! अर्जुन ने देखा कि शेषभगवान् की सुखमयी शय्यापर सर्वव्यापक
महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान् विराजमान हैं। उनके शरीरकी कान्ति
वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं।
मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं ॥ ५५ ॥
बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक
रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गलेमें कौस्तुभ मणि है;
वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनोंतक
वनमाला लटक रही है ॥ ५६ ॥ अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा—ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ
ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान् की सेवा कर रही हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान् को प्रणाम किया। अर्जुन
उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे;
श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया
और वे दोनों हाथ जोडक़र खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने
मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा— ॥
५८ ॥ ‘श्रीकृष्ण ! और अर्जुन ! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके बालक
अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ
पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है;
पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके
शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ ५९ ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण
हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर
भी जगत्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो’ ॥
६० ॥
जब भगवान्
भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब
उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ
ब्राह्मण-बालकों को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसीसे
वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो
गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान्
श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप दिया ॥ ६१-६२ ॥ भगवान् विष्णु के उस
परमधामको देखकर अर्जुनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में
जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान् श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है
॥ ६३ ॥ परीक्षित् ! भगवान् ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरतासे परिपूर्ण
लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगोंके समान सांसारिक विषयोंका भोग किया और
बड़े-बड़े महाराजाओंके समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ॥ ६४ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने
आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे
मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे
इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ ६५ ॥ उन्होंने बहुत-से अधर्मी
राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार
धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें
धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ॥ ६६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विजकुमारानयनं नाम
एकोननवतितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से