सोमवार, 8 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकाः

तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ ४९

तान्दृष्ट्वा भगवान्कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः

सहस्रादित्यसङ्काशं स्वचक्रं प्राहिणोत्पुरः ५०

तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्

विदारयद्भूरितरेण रोचिषा

मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं

गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः ५१

द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः

परं परं ज्योतिरनन्तपारम्

समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः

प्रताडिताक्षो पिदधेऽक्षिणी उभे ५२

ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता

बलीयसैजद्बृहदूर्मिभूषणम्

तत्राद्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं

भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम् ५३

तस्मिन्महाभोगमनन्तमद्भुतं

सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः

विभ्राजमानं द्विगुणेक्षणोल्बणं

सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम् ५४

ददर्श तद्भोगसुखासनं विभुं

महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्

सान्द्रा म्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं

प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम् ५५

महामणिव्रातकिरीटकुण्डल

प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम्

प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं

श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालयावृतम् ५६

सुनन्दनन्दप्रमुखै: स्वपार्षदै-

श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधै:

पुष्ट्या श्रियाकीर्त्यजयाखिलर्द्धिभि-

र्निषेव्यमाणं परमेष्टिनां पतिम् ५७

ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो

जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः

तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-

र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा ५८

द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा

मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये

कलावतीर्णाववनेर्भरासुरा-

न्हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे ५९

पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी

धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसङ्ग्रहम् ६०

इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना

ॐ इत्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान् ६१

न्यवर्तेतां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम्

विप्राय ददतुः पुत्रान्यथारूपं यथावयः ६२

निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः

यत्किञ्चित्पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम् ६३

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्

बुभुजे विषयान्ग्राम्यानीजे चात्युर्जितैर्मखैः ६४

प्रववर्षाखिलान्कामान्प्रजासु ब्राह्मणादिषु

यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवान्श्रैष्ठ्यमास्थितः ६५

हत्वा नृपानधर्मिष्ठान्घाटयित्वार्जुनादिभिः

अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः ६६

 

परीक्षित्‌ ! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था ॥ ४९ ॥ योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्योंके समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी ॥ ५० ॥ सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान्‌के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान्‌ रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो ॥ ५१ ॥ इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकारकी अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद भगवान्‌के रथने दिव्य जलराशिमें प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरङ्गें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियोंके सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ॥ ५३ ॥ उसी महलमें भगवान्‌ शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयङ्कर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलास के समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी ॥ ५४ ॥ परीक्षित्‌ ! अर्जुन ने देखा कि शेषभगवान्‌ की सुखमयी शय्यापर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान्‌ विराजमान हैं। उनके शरीरकी कान्ति वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं ॥ ५५ ॥ बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गलेमें कौस्तुभ मणि है; वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनोंतक वनमाला लटक रही है ॥ ५६ ॥ अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजाये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान्‌ की सेवा कर रही हैं ॥ ५७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान्‌ को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोडक़र खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा॥ ५८ ॥ श्रीकृष्ण ! और अर्जुन ! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके बालक अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ॥ ५९ ॥ तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो॥ ६० ॥

जब भगवान्‌ भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ ब्राह्मण-बालकों को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप दिया ॥ ६१-६२ ॥ भगवान्‌ विष्णु के उस परमधामको देखकर अर्जुनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान्‌ श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है ॥ ६३ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरतासे परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगोंके समान सांसारिक विषयोंका भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओंके समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये ॥ ६४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ॥ ६५ ॥ उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी ॥ ६६ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विजकुमारानयनं नाम एकोननवतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीअर्जुन उवाच

नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन्न कृष्णः कार्ष्णिरेव च

अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः ३३

मावमंस्था मम ब्रह्मन्वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम्

मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजाः प्रभो ३४

एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परन्तप

जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन् ३५

प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः

पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः ३६

स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम्

दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे ३७

न्यरुणत्सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः

तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम् ३८

ततः कुमारः सञ्जातो विप्रपत्न्या रुदन्मुहुः

सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा ३९

तदाह विप्रो विजयं विनिन्दन्कृष्णसन्निधौ

मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम् ४०

न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः

यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः ४१

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः

दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः ४२

एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः

ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यमः ४३

विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्री मगात्पुरीम्

आग्नेयीं नैरृतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ

रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः४४

ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः

अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता ४५

दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना

ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति ४६

इति सम्भाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः

दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत् ४७

सप्त द्वीपान्ससिन्धूंश्च सप्त सप्त गिरीनथ

लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः ४८

 

अर्जुनने कहाब्रह्मन् ! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुषका तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रमसे भगवान्‌ शङ्कर को सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन् ! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ॥३४॥

 

परीक्षित्‌ ! जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया ॥ ३५ ॥ प्रसव का समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो॥ ३६ ॥ यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा भगवान्‌ शङ्कर को नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया ॥ ३७ ॥ अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणोंका एक ङ्क्षपजड़ा-सा बना दिया ॥ ३८ ॥ इसके बाद ब्राह्मणीके गर्भसे एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया ॥ ३९ ॥ अब वह ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास कर लिया ॥ ४० ॥ भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है ? ॥ ४१ ॥ मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है ! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है !! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो ! यह मूढ़तावश उस बालकको लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है॥ ४२ ॥

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ भगवान्‌ यमराज निवास करते हैं ॥ ४३ ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमश: इन्द्र, अग्नि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें, अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्गसे ऊपरके महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये ॥ ४४ ॥ परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्नि में प्रवेश करनेका विचार किया। परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा॥ ४५ ॥ भाई अर्जुन ! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोंकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे॥ ४६ ॥

सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया ॥ ४७ ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीसूत उवाच

इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्ध

पीयूषं भवभयभित्परस्य पुंसः

सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णम्

पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति २१

 

श्रीशुक उवाच

एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः

जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत २२

विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः

इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः २३

ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः

क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात्पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः २४

हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्

प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः २५

एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च

विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत २६

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवान्तिके

परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत २७

किं स्विद्ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः

राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्रमासते २८

धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः

ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः २९

अहं प्रजाः वां भगवन्रक्षिष्ये दीनयोरिह

अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः ३०

 

श्रीब्राह्मण उवाच

सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः

अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत् ३१

तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः

त्वं चिकीर्षसि बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम् ३२

 

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म- मृत्युरूप संसारके भयको मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीके मुखारविन्दसे निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो बटोही अपने कानोंके दोनोंसे इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत्में इधर-उधर भटकनेसे होती है, दूर हो जाती है ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणीके गर्भसे एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दु:खी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है ॥ २४ ॥ जो राजा हिंसा- परायण, दु:शील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दु:ख-पर-दु:ख भोगती रहती है और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ब्राह्मण लडक़ेकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और वही बात कह गया ॥ २६ ॥ नवें बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससे कहा॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी यज्ञमें बैठे हुए हैं ! ॥ २८ ॥ जिनके राज्यमें धन, स्त्री अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दु:खी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रियके वेषमें पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका, तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा॥ ३० ॥

ब्राह्मणने कहाअर्जुन ! यहाँ बलरामजी, भगवान्‌ श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्र, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते ॥ ३१-३२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...