शनिवार, 13 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

 

क्षुत्तृट् त्रिकालगुणमारुत जैह्वशैश्यान्

     अस्मान् अपारजलधीन् अतितीर्य केचित् ।

 क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोः

     मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ ११ ॥

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्‌भुतदर्शनाः ।

 दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः ॥ १२ ॥

 ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः ।

 गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः ॥ १३ ॥

 तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव ।

 आसां एकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम् ॥ १४ ॥

 ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः ।

 उर्वशीम् अप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः ॥ १५ ॥

 इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।

 ऊचुर्नारायणबलं शक्रः तत्रास विस्मितः ॥ १६ ॥

 हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगं

     दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः ।

 विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतिर्णः

     तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये ॥ १७ ॥

 गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये

     क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम् ।

 कौर्मे धृतोऽद्रिः अमृतोन्मथने स्वपृष्ठे

     ग्राहात् प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम् ॥ १८ ॥

 संस्तुन्वतो निपतितान् श्रमणान् ऋषींश्च

     शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम् ।

 देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा

     जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे ॥ १९ ॥

 देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे

     हत्वान्तरेषु भुवनानि अदधात् कलाभिः ।

 भूत्वाथ वामन इमामहरद् बलेः क्ष्मां

     याच्ञाच्छलेन समदाद् अदितेः सुतेभ्यः ॥ २० ॥

 निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिसप्तकृत्वो

     रामस्तु हैहयकुलापि अयभार्गवाग्निः ।

 सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं

     सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः ॥ २१ ॥

 भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा

     जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।

 वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्

     शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥ २२ ॥

एवंविधानि जन्मानि कर्माणि च जगत्पतेः ।

 भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥ २३ ॥

 

बहुत-से लोग तो ऐसे होते हैं जो भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानीके कष्टोंको तथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके वेगोंको, जो अपार समुद्रोंके समान हैं, सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोधके वशमें हो जाते हैं, जो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है और जिससे कोई लाभ नहीं है—आत्मनाशक है। और प्रभो ! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्या को खो बैठते हैं ॥ ११ ॥ जब कामदेव, वसन्त आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति की तब सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ने अपने योगबल से उनके सामने बहुत-सी ऐसी रमणियाँ प्रकट करके दिखलायीं, जो अद्भुत रूप-लावण्य से सम्पन्न और विचित्र वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित थीं तथा भगवान्‌ की सेवा कर रही थीं ॥ १२ ॥ जब देवराज इन्द्रके अनुचरों ने उन लक्ष्मीजी के समान रूपवती स्त्रियोंको देखा, तब उनके महान् सौन्दर्य के सामने उनका चेहरा फीका पड़ गया, वे श्रीहीन होकर उनके शरीरसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धसे मोहित हो गये ॥ १३ ॥ अब उनका सिर झुक गया। देवदेवेश भगवान्‌ नारायण हँसते हुए-से उनसे बोले—‘तुमलोग इनमेंसे किसी एक स्त्रीको, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ग्रहण कर लो। वह तुम्हारे स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाली होगी ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्रके अनुचरोंने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्‌के आदेशको स्वीकार किया तथा उन्हें नमस्कार किया। फिर उनके द्वारा बनायी हुई स्त्रियोंमेंसे श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीको आगे करके वे स्वर्गलोकमें गये ॥ १५ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने इन्द्रको नमस्कार किया तथा भरी सभामें देवताओंके सामने भगवान्‌ नर-नारायणके बल और प्रभावका वर्णन किया। उसे सुनकर देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत और चकित हो गये ॥१६॥

भगवान्‌ विष्णुने अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत् के कल्याणके लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज ! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभके रूपमें अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरोंका संहार करके उन लोगोंके द्वारा चुराये हुए वेदोंका उद्धार किया है ॥ १७ ॥ प्रलयके समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादि की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वीका रसातलसे उद्धार करते समय हिरण्याक्षका संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान्‌ने अमृत-मन्थनका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान्‌ विष्णुने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्रको ग्राहसे छुड़ाया ॥ १८ ॥ एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषिके लिये समिधा ला रहे थे, तो थककर गायके खुरसे बने हुए गड्ढेमें गिर पड़े, मानो समुद्रमें गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान्‌ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुरको मारनेके कारण जब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भयसे भागकर छिप गये, तब भगवान्‌ने उस हत्यासे इन्द्रकी रक्षा की; और जब असुरोंने अनाथ देवाङ्गनाओंको बंदी बना लिया, तब भी भगवान्‌ने ही उन्हें असुरोंके चंगुलसे छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपुके कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषोंको भय पहुँचने लगा, तब उनको निर्भय करनेके लिये भगवान्‌ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपुको मार डाला ॥ १९ ॥ उन्होंने देवताओंकी रक्षाके लिये देवासुर संग्राममें दैत्यपतियोंका वध किया और विभिन्न मन्वन्तरोंमें अपनी शक्तिसे अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवनकी रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचनाके बहाने इस पृथ्वीको दैत्यराज बलिसे छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओंको दे दिया ॥ २० ॥ परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहयवंश  का प्रलय करनेके लिये मानो भृगुवंशमें अग्नि रूपसे ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान्‌ ने रामावतार में समुद्रपर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लङ्का को मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकोंके मलको नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान्‌ राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! अजन्मा होनेपर भी पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही भगवान्‌ यदुवंशमें जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान्‌ ही बुद्धके रूपमें प्रकट होंगे और यज्ञके अनधिकारियोंको यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकारके तर्क-वितर्कोंसे मोहित कर लेंगे और कलियुगके अन्तमें कल्कि-अवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओंका वध करेंगे ॥ २२ ॥ महाबाहु विदेहराज ! भगवान्‌की कीर्ति अनन्त है। महात्माओंने जगत्पति भगवान्‌के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मोंका प्रचुरतासे गान भी किया है ॥ २३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

 

श्रीराजोवाच -

यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः ।

चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः ॥ १ ॥

 

श्रीद्रुमिल उवाच -

यो वा अनन्तस्य गुणान् अनन्तान्

     अनुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः ।

 रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित्

     कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः ॥ २ ॥

 भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः ।

     पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।

 स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानम् ।

     अवाप नारायण आदिदेवः ॥ ३ ॥

यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो

     यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि ।

 ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा

     सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्‌भव आदिकर्ता ॥ ४ ॥

 आदौ अभूत् शतधृती रजसास्य सर्गे

     विष्णुः स्थित्तौ क्रतुपतिः द्विजधर्मसेतुः ।

 रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य

     इत्युद्‌भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु ॥ ५ ॥

 धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां

     नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः ।

 नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म

     योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्‌घ्रिः ॥ ६ ॥

 इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति

     कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम् ।

 गत्वाप्सरोगणवसन्त सुमन्दवातैः

     स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः ॥ ७ ॥

 विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः

     प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान् ।

 मा भैर्विभो मदन मारुत देववध्वो

     गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम् ॥ ८ ॥

 इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः

     सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः ।

 नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं

     स्वारामधीरनिकरा नतपादपद्मे ॥ ९ ॥

 त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः

     स्वौकः विलङ्घ्य परमं व्रजतां पदं ते ।

 नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्

     धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ १० ॥

 

राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! भगवान्‌ स्वतन्त्रता से अपने भक्तों   की भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आपलोग कृपा करके भगवान्‌ की उन लीलाओं का वर्णन कीजिये, जो वे अबतक कर चुके हैं,कर रहे हैं या करेंगे ॥ १ ॥

अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी ने कहा—राजन् ! भगवान्‌ अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणोंको गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलि-कणोंको गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान्‌ के अनन्त गुणोंका कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ॥ २ ॥ भगवान्‌ ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतों की अपने-आपसे अपने-आप में सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्ड  का निर्माण करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूप से नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्यों के फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायणको ‘पुरुष’ नामसे कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है ॥ ३ ॥ उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड शरीरमें तीनों लोक स्थित हैं। उन्हींकी इन्द्रियोंसे समस्त देहधारियोंकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूपसे ही स्वत:सिद्ध ज्ञानका सञ्चार होता है। उनके श्वास-प्रश्वाससे सब शरीरोंमें बल आता है तथा इन्द्रियोंमें ओज (इन्द्रियोंकी शक्ति) और कर्म करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व आदि गुणोंसे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीरके जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं ॥ ४ ॥ पहले-पहल जगत् की उत्पत्तिके लिये उनके रजोगुणके अंशसे ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसारकी स्थितिके लिये अपने सत्त्वांशसे धर्म तथा ब्राह्मणोंके रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत्के संहारके लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हींसे परिवर्तनशील प्रजाकी उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ॥ ५ ॥

दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम था मूर्ति। वह धर्मकी पत्नी थी। उसके गर्भसे भगवान्‌ ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूपमें अवतार लिया । उन्होंने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया, जो वास्तवमें कर्मबन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका आचरण करते हुए विराजमान हैं ॥ ६ ॥ ये अपनी घोर तपस्याके द्वारा मेरा धाम छीनना चाहते हैं—इन्द्रने ऐसी आशंका करके स्त्री, वसन्त आदि दल-बलके साथ कामदेवको उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये भेजा। कामदेवको भगवान्‌  की महिमाका ज्ञान न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायुके साथ बदरिकाश्रममें जाकर स्त्रियोंके कटाक्ष बाणोंसे उह्े. घायल करनेकी चेष्टा करने लगा ॥ ७ ॥ आदिदेव नर-नारायणने यह जानकर कि यह इन्द्रका कुचक्र है, भयसे काँपते हुए काम आदिकोंसे हँसकर कहा—उस समय उनके मनमें किसी प्रकारका अभिमान या आश्चर्य नहीं था। ‘कामदेव, मलयमारुत और देवाङ्गनाओ ! तुमलोग डरो मत; हमारा आतिथ्य स्वीकार करो। अभी यहीं ठहरो, हमारा आश्रम सूना मत करो’ ॥ ८ ॥ राजन् ! जब नर-नारायण ऋषिने उन्हें अभयदान देते हुए इस प्रकार कहा, तब कामदेव आदिके सिर लज्जासे झुक गये। उन्होंने दयालु भगवान्‌ नर-नारायणसे कहा—‘प्रभो ! आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि आप मायासे परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष निरन्तर आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करते रहते हैं ॥ ९ ॥ आपके भक्त आपकी भक्तिके प्रभावसे देवताओंकी राजधानी अमरावतीका उल्लङ्घन करके आपके परमपदको प्राप्त होते हैं। इसलिये जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवतालोग तरह-तरहसे उनकी साधनामें विघ्र डालते हैं। किन्तु जो लोग केवल कर्मकाण्डमें लगे रहकर यज्ञादिके द्वारा देवताओंको बलिके रूपमें उनका भाग देते रहते हैं, उन लोगोंके मार्गमें वे किसी प्रकारका विघ्र नहीं डालते। परन्तु प्रभो ! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्र-बाधाओंसे गिरते नहीं। बल्कि आपके कर-कमलोंकी छत्रछायामें रहते हुए वे विघ्नों के सिरपर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं, अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होते ॥ १० ॥

 

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शुक्रवार, 12 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

 कर्मयोगं वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः ।

 विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम् ॥ ४१ ॥

 एवं प्रश्नम् ऋषीन् पूर्वम् अपृच्छं पितु्रन्तिके ।

 नाब्रुवन् ब्रह्मणः पुत्राः तत्र कारणमुच्यताम् ॥ ४२ ॥

 

 श्रीआविहोत्र उवाच -

 कर्माकर्म विकर्मेति वेदवादो न लौकिकः ।

 वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरयः ॥ ४३ ॥

 परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।

 कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ ४४ ॥

 नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयं अज्ञोऽजितेंद्रियः ।

 विकर्मणा हि अधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ ४५ ॥

 वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्‌गोऽर्पितमीश्वरे ।

 नैष्कर्म्यं लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः ॥ ४६ ॥

 य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः ।

 विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ ४७ ॥

 लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन संदर्शितागमः ।

 महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयाऽऽत्मनः ॥ ४८ ॥

 शुचिः संमुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः ।

 पिण्डं विशोध्य संन्यास कृतरक्षोऽर्चयेद् हरिम् ॥ ४९ ॥

 अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकैः ।

 द्रव्यक्षित्यात्मलिङ्‌गानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य चासनम् ॥ ५० ॥

 पाद्यादीन् उपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः ।

 हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमंत्रेण चार्चयेत् ॥ ५१ ॥

 साङ्गोपाङ्गां सपार्षदां तां तां मूर्तिं स्वमन्त्रतः ।

 पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः ॥ ५२ ॥

 गन्धमाल्याक्षतस्रग्भिः धूपदीपोपहारकैः ।

 साङ्गं संपूज्य विधिवत् स्तवैः स्तुत्वा नमेत् हरिम् ॥ ५३ ॥

 आत्मानं तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं संपूजयेत् हरेः ।

 शेषामाधाय शिरसा स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम् ॥ ५४ ॥

 एवमग्न्यर्कतोयादौ अतिथौ हृदये च यः ।

 यजतीश्वरमात्मानं अचिरान्मुच्यते हि सः ॥ ५५ ॥

 

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! अब आपलोग हमें कर्मयोगका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कम्र्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलकी निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ एक बार यही प्रश्र मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकुके सामने ब्रह्माजीके मानस पुत्र सनकादि ऋषियोंसे पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होनेपर भी मेरे प्रश्रका उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ४२ ॥

अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा—राजन् ! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहितका उल्लङ्घन)—ये तीनों एकमात्र वेदके द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीतिसे नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं—ईश्वररूप हैं; इसलिये उनके तात्पर्यका निश्चय करना बहुत कठिन है। इसीसे बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके अभिप्रायका निर्णय करनेमें भूल कर बैठते हैं। (इसीसे तुम्हारे बचपनकी ओर देखकर—तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियोंने तुम्हारे प्रश्रका उत्तर नहीं दिया) ॥ ४३ ॥ यह वेद परोक्षवादात्मक [1] है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करता है ॥ ४४ ॥ जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंगसे वेदोक्त कर्मोंका परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मोंका आचरण न करनेके कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्युके बाद फिर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ इसलिये फलकी अभिलाषा छोड़- कर और विश्वात्मा भगवान्‌को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मोंकी निवृत्तिसे प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदोंमें स्वर्गादिरूप फलका वर्णन है, उसका तात्पर्य फलकी सत्यतामें नहीं है, वह तो कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करानेके लिये है ॥ ४६ ॥

राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से-शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदय-ग्रन्थि—मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान्‌ की आराधना करे ॥ ४७ ॥ पहले सेवा आदिके द्वारा गुरुदेवकी दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठानकी विधि सीखे; अपनेको भगवान्‌    की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसीके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करे ॥ ४८ ॥ पहले स्नानादिसे शरीर और सन्तोष आदिसे अन्त:करणको शुद्ध करे, इसके बाद भगवान्‌ की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदिके द्वारा भूतशुद्धि—नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदिके न्याससे अङ्गरक्षा करके भगवान्‌की पूजा करे ॥ ४९ ॥ पहले पुष्प आदि पदार्थोंका जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वीको सम्मार्जन आदिसे, अपनेको अव्यग्र होकर और भगवान्‌ की मूर्तिको पहलेहीकी पूजाके लगे हुए पदार्थोंके क्षालन आदिसे पूजाके योग्य बनाकर फिर आसनपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिडक़कर पाद्य,  अर्घ्य आदि पात्रोंको स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान्‌ का ध्यान करके फिर उसे सामनेकी श्रीमूर्तिमें चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नम:, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे और अपने इष्टदेवके मूलमन्त्रके द्वारा देश, काल आदिके अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदिमें अथवा हृदयमें भगवान्‌की पूजा करे ॥ ५०-५१ ॥ अपने-अपने उपास्यदेवके विग्रहकी हृदयादि अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्रद्वारा पाद्य, अघ्र्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के [2] तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान्‌ श्रीहरिको नमस्कार करे ॥ ५२-५३ ॥ अपने आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान्‌  की मूर्तिका पूजन करना चाहिये। निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रह को यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥

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[1] जिसमें शब्दार्थ कुछ और मालूम दे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो—उसे परोक्षवाद कहते हैं।

[2] विष्णुभगवान्‌ की पूजा में अक्षतों का प्रयोग केवल तिलकालंकार में ही करना चाहिये, पूजा में नहीं—‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्।’

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...