ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
जो लोग आत्म-पतनके कारणभूत काम क्रोध लोभ रूपी इस त्रिविध नरक-द्वार में निवास करते हुए आसुरी, राक्षसी और मोहिनी सम्पत्ति की पूंजी एकत्र करते हैं, गीता के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार उनकी गतिके प्रधानतः दो भेद हैं--
( १ ) बारम्बार तिर्यक् आदि आसुरी योनियों में जन्म लेना और
( २ ) उनसे भी अधम भूत, प्रेत पिशाचादि गतियों का या कुम्भीपाक अवीचि असिपत्र आदि नरकों को प्राप्त होकर वहां की रोमाञ्चकारी दारुण यन्त्रणाओं को भोगना !
इनमें जो तिर्यगादि योनियों में जाते हैं, वे जीव तो मृत्युके पश्चात् सूक्ष्मशरीर से समष्टि वायु के साथ मिलकर तिर्यगादि योनियों के खाद्य पदार्थों में मिलकर वीर्य द्वारा शरीर में प्रवेश करके गर्भ की अवधि बीतने पर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अण्डज प्राणियों की भी उत्पत्ति होती है। उद्भिज, स्वेदज जीवों की उत्पत्ति में भी वायुदेवता ही कारण होते हैं, जीवों के प्राणवायुको समष्टि वायु देवता अपनेरूप में भरकर जल पसीने आदि द्वारा स्वेदज प्राणियों को और वायु पृथ्वी जल आदिके साथ उनको सम्बन्धित कर बीजमें प्रविष्ट करवाकर पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि जड़ योनियों में उत्पन्न कराते हैं।
यह वायुदेवता ही यमराज के दूतके स्वरूपमें उस पापी को दीखते हैं, जो नारकी या प्रेतादि योनियों में जानेवाला होता है। इसीकी चर्चा गरुड़पुराण तथा अन्यान्य पुराणोंमें जहां पापों की गति का वर्णन है, वहां की गयी है। यह समस्त कार्य सबके स्वामी और नियन्ता ईश्वर की शक्ति से ऐसा नियमित होता है कि जिसमें कहीं किसी से भूल की गुञ्जाइश नहीं होती ! इसी परमात्मशक्ति की ओर से नियुक्त देवताओं द्वारा परवश होकर जीव अधम और उत्तम गतियों में जाता आता है। यह नियन्त्रण न होता तो, न तो कोई जीव, कम से कम व्यवस्थापक के अभाव में पापों का फल भोगने के लिये कहीं जाता और न भोग ही सकता। अवश्य ही सुख भोगने के लिये जीव लोकान्तर में जाना चाहता, पर वह भी लेजाने वाले के अभाव में मार्ग से अनभिज्ञ रहने के कारण नहीं जा पाता ।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)