गुरुवार, 23 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०३)

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्‌॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्‌॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥१५॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिये रथपर बैठी दिखायी देती हैं । ये शंख , चक्र , गदा , शक्ति , हल ,और मूसल , खेटक और तोमर , परशु तथा पाश , कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथों में धारण करती हैं । दैत्यों के शरीर का नाश करना , भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना – यही उनके शस्त्र –धारण का उद्देश्य है ॥१३ - १५॥ [कवच आरम्भ करने के पहले इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये - ] महान् रौद्ररूप , अत्यंत घोर पराक्रम , महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि ! तुम महान् भय का नाश करनेवाली हो , तुम्हें नमस्कार है ॥१६॥  तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है । शत्रुओं का भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके ! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री ( इंद्रशक्ति) मेरी रक्षा करे । अग्निकोण में अग्निशक्ति , दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारी मेरी रक्षा करे । पश्चिम दिशा में वारूणी और वायव्यकोण में मृगपर सवारी करनेवाली देवी मेरी रक्षा करे ॥१७- १८॥

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!

जय श्रीसीताराम !

तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस, हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे।  पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है।  वह यह है-

 अहं हरे तवपादैकमूल
 दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
 मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
 गृणीत वाक्‌ कर्मकरोतु कायः॥

 अर्थात्‌, हे भगवन्‌ !  मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ ।  हे प्राणेश्‍वर!  मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता रहे।  मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे।  और, मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवामें लगा रहे।

 किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीय’ ही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े।  सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये।  अन्तमें यही विनय है, नाथ!

 अर्थ न धर्म न काम-रुचि, गति न चहौं निर्बान।
 जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
 परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
 प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥

   ------तुलसी

 क्यों नहीं कह देते, कि ‘एवमस्तु !’  

( श्रीवियोगी-हरिजी )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६.कल्याण  ( पृ० ७५५ )


बुधवार, 22 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०२)

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो , रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो , विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों , उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता। युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखायी देती । उन्हें शोक , दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती ॥६-७॥ जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है , उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है । देवेश्वरि ! जो तुम्हारा चिंतन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो ॥८॥ चामुण्डादेवी प्रेतपर आरुढ़ होती हैं । वाराही भैंसे पर सवारी करती है । ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है । वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं ॥९॥ माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती है । कौमारी का वाहन मयूर है । भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसनपर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं ॥१०॥ वृषभपर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है । ब्राह्मीदेवी हंसपर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं ॥११॥ इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से समपन्न हैं । इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं , जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं ॥१२॥

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०१)


विनियोग

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्‌, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्‌, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः।

॥ ॐ नमश्चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्‌।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्‌।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्‌॥३॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्‌॥४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है।

मार्कण्डेय जी ने कहा – पितामह ! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करनेवाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥
ब्रह्माजी बोले – ब्रह्मन् ! ऐसा साधन तो एक देवीका कवच ही है ,जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय,पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है । महामुने ! उसे श्रवण करो ॥२॥ देवी की नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं । प्रथम नाम ‘ शैलपुत्री ’ है । दूसरी मूर्तिका नाम ‘ ब्रह्मचारिणी ’ है। तीसरा स्वरूप ‘ चंद्रघण्टा ’ के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को ‘ कूष्माण्डा ’ कहते हैं। पाँचवीं दुर्गा का नाम ‘ स्कन्दमाता’ है । देवी के छठे रूपको ‘ कात्यायनी ’ कहते है। सातवाँ ‘कालरात्रि’ और आठवाँ स्वरूप ‘महागौरी ’ के नाम से प्रसिद्ध है । नवीं दुर्गा का नाम ‘ सिद्धिदात्री ’ है । ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ॥२-५॥

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 05)


संसार के लोग जिन सब वस्तुओं के नाश हो जानेपर रोते और पुनः मिलने की आकांक्षा करते हैं या जिनकी अप्राप्ति में अभावका अनुभव कर दुखी होते हैं और प्राप्त होने पर हर्षसे फूल जाते हैं, तत्त्वदर्शीं पुरुष इस तरह नहीं करते, वे इस रहस्यको समझते हैं, इसलिये वे समय समयपर बच्चोंके साथ बच्चे बनकर खेलते हैं, बच्चोंके खेलमें शामिल हो जाते हैं, परन्तु होते हैं उन बच्चोंको खेलका असली तत्त्व समझाकर सदाको शोक-मुक्त कर देनेके लिये ही !

 ऐसे भगवान्‌ के प्यारे भक्त विश्वकी प्रत्येक क्रियामें परमात्माकी लीलाका अनुभव करते हैं, वे सभी अनुकूल और प्रतिकूल घटनाओंमें परमात्माको ओतप्रोत समझकर , लीलारूपमें उनको अवतरित समझकर, उनके नित्य नये नये खेलोंको देखकर प्रसन्न होते हैं और सब समय सब तरहसे और सब ओरसे सन्तुष्ट रहते हैं।  ऐसे लोगोंको जगत्‌के लोग-जिनका मन भोगोंमें, उन्हें सुखरूप समझकर फँसा हुआ है, स्वार्थी, अकर्मण्य, आलसी, पागल, दीवाने और भ्रान्त समझते हैं, परन्तु वे क्या होते हैं, इस बातका पता वास्तवमें उन्हींको रहता है।  ऐसे दीवानोंकी दुनियाँ दूसरी ही होती है, उस दुनियाँमें कभी राग-द्वेष, रोग-शोक, सुख-दुःख नहीं होते।  वह दुनियाँ सूर्य चन्द्रसे प्रकाशित नहीं होती, स्वतः प्रकाशित रहती है।  इतना ही नहीं, उसी दुनिया के परम प्रकाश से ही सारे विश्व को प्रकाश मिलता है।

!! ॐ तत्सत् !!

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


मंगलवार, 21 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 04)


सांसारिक लोग धन, मान, ऐश्‍वर्य, प्रभुता, बल, कीर्ति आदि की प्राप्ति के लिये परमात्मा की कुछ भी परवा न कर अपना सारा जीवन इन्हीं पदार्थों के प्राप्त करने में लगा देते हैं और इसीको परम पुरुषार्थ मानते हैं।  इसके विपरीत परमात्माकी प्राप्तिके अभिलाषी पुरुष परमात्मा के लिये इन सारी लोभनीय वस्तुओंका तृणवत्‌, नहीं, नहीं, विषवत्‌ परित्याग कर देते हैं और उसी में उनको बड़ा आनन्द मिलता है।  पहले को मान प्राण समान प्रिय है तो दूसरा मान-प्रतिष्ठा को शूकरी-विष्ठा समझता है।  पहला धन को-जीवन का आधार समझता है तो दूसरा लौकिक धन को परमधन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक मानकर उसका त्याग कर देता है।  पहला प्रभुता प्राप्तकर जगत्‌ पर शासन करना चाहता है तो दूसरा ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना’ बनकर महापुरुषोंके चरणकी रजका अभिषेक करनेमें ही अपना मंगल मानता है।  दोनोंके भिन्न भिन्न ध्येय और मार्ग हैं।  ऐसी स्थितिमें एक दूसरे को पथभ्रान्त समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।  यह तो विषयी और मुमुक्षु का अन्तर है।  परन्तु इससे पहले किये हुए विवेचन के अनुसार मुक्त अथवा भगवदीय लीलामें सम्मिलित भक्तके लिये तो जगत्‌ का स्वरूप ही बदल जाता है।  इसी से वह इस खेल से मोहित नहीं होता।  जब छोटे लड़के काँच के या मिट्‍टी के खिलौनों से खेलते और उनके लेन-देन ब्याह-शादी में लगे रहते हैं, तब बड़े लोग उनके खेल को देखकर हँसा करते हैं, परन्तु छोटे बच्चों की दृष्टिमें वह बड़ोंकी भांति कल्पित वस्तुओंका खेल नहीं होता।  वे उसे सत्य समझते हैं और जरा-जरासी वस्तुके लिये लड़ते हैं, किसी खिलौने के टूट जाने या छिन जानेपर रोते हैं, वास्तव में उनके मनमें बड़ा कष्ट होता है।  नया खिलौना मिल जानेपर वे बहुत हर्षित होते हैं।  जब माता-पिता किसी ऐसे बच्चेको, जिसके मिट्‍टी के खिलौने टूट गये हैं या छिन गये हैं, रोते देखते हैं तो उसे प्रसन्न करनेके लिये कुछ खिलौने और दे देते हैं, जिससे वह बच्चा चुप हो जाता है और अपने मनमें बहुत हर्षित होता है परन्तु सच्चे हितैषी माता-पिता बालक को केवल खिलौना देकर ही हर्षित नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे तो इस खिलौने के टूटनेपर भी उन्हें फिर रोना पड़ेगा।  अतएव वे समझाकर उनका यह भ्रम भी दूर कर देना चाहते हैं कि खिलौने वास्तव में सच्ची वस्तु नहीं है।  मिट्‍टी की मामूली चीज हैं, उनके जाने-आने या बनने-बिगड़ने में कोई विशेष लाभ-हानि नहीं है।  इसी प्रकार की दशा संसार के मनुष्यों की हो रही है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


सोमवार, 20 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 03)


इसी प्रकार लोकदृष्टि से भासने वाले महान्‌ से महान्‌ दुःख में वे महात्मा विचलित नहीं होते, क्योंकि उनकी दृष्टिमें दुःख-सुख कोई वस्तु ही नहीं रह गये हैं ।  ऐसे महापुरुष ही ब्रह्म में नित्य स्थित समझे जाते हैं।  भगवान्‌ ने गीतामें कहा है-

 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।
 स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥

 ऐसे स्थिरबुद्धि संशय-शून्य ब्रह्मवित्‌ महात्मा लोकदृष्टि से प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टि से अप्रिय पदार्थ को पाकर उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मा में नित्य अभिन्न भावसे स्थित हैं।  जगत्‌ के लोगो को जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओतप्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं।  क्योंकि वे सांसारिक शुभाशुभ के परित्यागी हैं।
 ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनसे कभी जगत्‌का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएं लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों।  सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल विपरीतगति असत्य-परायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते है, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते।  वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं।  लोगों की दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्ष की बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई, उनकी, और उनके रहस्य को समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषों की दृष्टिमें उससे देश और विश्व का बड़ा भारी मंगल हुआ ।  इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान्‌ के सङ्केतानुसार सब प्रकार के धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल भगवान्‌ के वचनके अनुसार ही महासंग्राम के लिये सहर्ष प्रस्तुत होगया था ।  जगत्‌में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं, अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता।  परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती।  सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे।  अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान्‌ की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है।  परन्तु इनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्रायः प्रतिकूल ही हुआ करती है।  क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनामें पूरी प्रतिकूलता रहती है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


रविवार, 19 मार्च 2023

दीवानों की दुनियां (पोस्ट 02)


अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत्‌ भरा है, फिर कहते हैं, जगत्‌ मुझमें है, मैं उसमें नहीं हूं, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत्‌ ही मुझमें है और न मैं इसमें हूं।  यह सब मेरी मायाका अप्रतिम प्रभाव है।’  मेरी लीला है।  यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं।  वे जानते हैं कि जगत्‌में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओतप्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है।  यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके सङ्कल्पसे, बाजीगरके खेलकी भांति, उस सङ्कल्पके ही आधारपर स्थित है।  जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी?  इसीलिये परमात्माके सङ्कल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है।  परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक सङ्कल्पमात्र है । वास्तव में केवल परमात्मा ही अपने आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है !  इस रहस्यको  तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओं की दृष्टि दूसरी होजाती है ।   इसीलिये वे प्रत्येक शुभाशुभ घटनामें सम रहते हैं-जगत्‌ का बड़े से बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ, लाभ ही नहीं है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शनिवार, 18 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 01)

 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
 यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

 भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सब भूत प्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।"  अर्थात्‌ साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रातदिनका अन्तर है।  साधारण संसारी-लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रीकी भाँति उनके विचारमें वही परम सुखकर हैं, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियों की स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में परमात्मा में होती है, उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे?  इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहां विषयोंके  संग्रह और भोग में लगे रहते हैं,-उनका जीवन भोग-परायण रहता है, वहां तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगों को कोई वस्तु ही समझते हैं।  साधारण लोगों की दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ता के सिवा मूर्ख-विद्वान्‌ की कोई पहेली ही नहीं रह जाती।  इसीलिये वे जगत्‌ को सत्य और सुखरूप समझने वाले अविद्या के फन्देमें फँसकर रागद्वेषके आश्रयसे भोगों में रचे-पचे हुए लोगों को समय समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं।  ऐसे पुरुष जीवन-मत्यु दोनों से ऊपर उठे हुए होते हैं।  अन्तर्जगत्‌ में प्रविष्ट होकर दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेने के कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत्‌ का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है।  ऐसे ही महात्माओं के लिये भगवान्‌ ने कहा है-
 वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

 ‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है।  ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत्‌ केवल एक परमात्मा का ही विस्तार है, वही अनेक रूपों से इस संसार में व्यक्त हो रहे हैं।  प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं।  असल में व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है।  परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न भिन्न व्यक्तरूपों में प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मा से पृथक्‌ नहीं है।’  ऐसे महात्मा ही परमात्मा की इस अद्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणा का पद पद पर प्रत्यक्ष करते हैं कि-

 मया ततमिदं सर्वं जगद्‌व्यक्तमूर्तिना।
 मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌।
 भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

 ‘मुझ सच्चिदान्दघन अव्यक्त परमात्मा से यह समस्त विश्व परिपूर्ण है, और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूं, ये समस्त भूत भी मुझ में स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभाव को देख, कि समस्त भूतों का धारण पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतों में स्थित नहीं है।’  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शुक्रवार, 17 मार्च 2023

।। जय श्री राम ।।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । 
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥

( जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...