शुकदेवजी
को नारदजीद्वारा वैराग्य और
ज्ञान
का उपदेश देना
आनृशंस्यं
परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् ।
आत्मज्ञानं
परं ज्ञानं न सत्याद् विद्यते परम् ॥ १२ ॥
क्रूर
स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है | क्षमा सबसे बड़ा बल
है। आत्माका ज्ञान ही सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है और सत्यसे बढ़कर
तो कुछ है ही
नहीं ॥ १२ ॥
सत्यस्य
वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।
यद्
भूतहितमत्यन्तमेतत् सत्यं मतं मम ॥ १३ ॥
सत्य बोलना
सबसे श्रेष्ठ है;
परंतु सत्यसे भी श्रेष्ठ है हितकारक वचन बोलना । जिससे प्राणियोंका
अत्यन्त हित होता हो, वही मेरे विचारसे सत्य है ॥ १३ ॥
सर्वारम्भपरित्यागी
निराशीर्निष्परिग्रहः ।
येन
सर्वं परित्यक्तं स विद्वान् स च पण्डितः ॥ १४ ॥
जो कार्य
आरम्भ करनेके सभी संकल्पोंको छोड़ चुका है, जिसके मनमें कोई
कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने
सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान् है और वही पण्डित ॥ १४ ॥
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थान्
यश्चरत्यात्मवशैरिह।
असज्जमानः
शान्तात्मा निर्विकारः समाहितः ॥ १५ ॥
आत्मभूतैरतद्भूतः
सह चैव विनैव च।
स
विमुक्तः परं श्रेयो नचिरेणाधितिष्ठति ॥ १६ ॥
जो अपने
वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा यहाँ अनासक्त- भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो
आत्मस्वरूप प्रतीत होनेवाले देह और इन्द्रियाँ हैं, उनके साथ
रहकर भी उनसे तद्रूप न हो अलग - सा ही रहता है, वह मुक्त है
और उसे बहुत शीघ्र परम कल्याण की प्राप्ति होती है ॥ १५-१६॥
अदर्शनमसंस्पर्शस्तथासम्भाषणं
सदा ।
यस्य
भूतैः सह मुने स श्रेयो विन्दते परम् ॥ १७ ॥
मुने! जिसकी
किसी प्राणीकी ओर दृष्टि नहीं जाती, जो किसीका स्पर्श तथा
किसी से बातचीत नहीं करता, वह परम कल्याण को प्राप्त होता
है॥१७॥
न
हिंस्यात् सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत् ।
नेदं
जन्म समासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ १८ ॥
किसी भी
प्राणीकी हिंसा न करे। सबके प्रति मित्रभाव रखते हुए विचरे तथा यह मनुष्य - जन्म
पाकर किसीके साथ वैर न करे ॥ १८ ॥
आकिञ्चन्यं
सुसन्तोषो निराशीस्त्वमचापलम्।
एतदाहुः
परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः॥१९॥
जो
आत्मतत्त्व का ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसके लिये यही
परम कल्याणका साधन बताया गया है कि वह किसी वस्तुका संग्रह न करे, सन्तोष रखे तथा कामना और चंचलताको त्याग दे ॥ १९ ॥
परिग्रहं
परित्यज्य भव तात जितेन्द्रियः ।
अशोकं
स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाभयम् ॥ २० ॥
तात शुकदेव !
तुम संग्रहका त्याग करके जितेन्द्रिय हो जाओ
तथा उस पदको
प्राप्त करो,
जो इस लोक और परलोकमें भी निर्भय
एवं सर्वथा
शोकरहित है ॥ २० ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से