शुकदेवजी को नारदजीद्वारा वैराग्य और
ज्ञान
का उपदेश देना
संवेष्ट्यमानं
बहुभिर्मोहात् तन्तुभिरात्मजैः ।
कोषकार
इवात्मानं वेष्टयन् नावबुध्यसे ॥ २८ ॥
जैसे रेशमका
कीड़ा अपने ही शरीरसे उत्पन्न हुए तन्तुओं द्वारा
अपने-आपको
आच्छादित कर लेता है,
उसी प्रकार तुम भी मोहवश अपनेहीसे उत्पन्न सम्बन्धके बन्धनोंद्वारा
अपने-आपको बाँधते जा रहे हो तो भी यह बात तुम्हारी समझमें नहीं आ रही है॥ २८ ॥
अलं
परिग्रहेणेह दोषवान् हि परिग्रहः ।
कृमिर्हि
कोषकारस्तु बध्यते स परिग्रहात् ॥ २९ ॥
यहाँ विभिन्न
वस्तुओंके संग्रहकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संग्रहसे
महान् दोष प्रकट होता है। रेशमका कीड़ा अपने संग्रह- दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता
है॥ २९ ॥
पुत्रदारकुटुम्बेषु
सक्ताः सीदन्ति जन्तवः ।
सरः
पङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव ॥ ३० ॥
स्त्री-
पुत्र और कुटुम्बमें आसक्त रहनेवाले प्राणी उसी प्रकार कष्ट
पाते हैं, जैसे जंगलके बूढ़े हाथी तालाब के दलदलमें फँसकर दुःख
उठाते हैं ॥
३० ॥
महाजालसमाकृष्टान्
स्थले मत्स्यानिवोद्धृतान् ।
स्नेहजालसमाकृष्टान्
पश्य जन्तून् सुदुःखितान् ॥ ३१ ॥
जिस प्रकार
महान् जालमें फँसकर पानीसे बाहर आये हुए मत्स्य तड़पते हैं, उसी प्रकार स्नेहजालसे आकृष्ट होकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियोंकी
ओर दृष्टिपात करो ॥ ३१॥
कुटुम्बं
पुत्रदारांश्च शरीरं सञ्चयाश्च ये ।
पारक्यमध्रुवं
सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम् ॥ ३२ ॥
संसारमें
कुटुम्ब,
स्त्री, पुत्र, शरीर और
संग्रह - सब कुछ पराया है । सब नाशवान् है । इसमें अपना क्या है, केवल पाप और पुण्य ॥ ३२ ॥
यदा
सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते।
अनर्थे
किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थं नानुतिष्ठसि ॥ ३३ ॥
जब सब कुछ
छोड़कर तुम्हें यहाँसे विवश होकर चल देना है, तब इस अनर्थमय जगत्
में क्यों आसक्त हो रहे हो ? अपने वास्तविक अर्थ - मोक्षका
साधन क्यों नहीं करते हो ? ॥ ३३ ॥
अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदैशिकम्
तमःकान्तारमध्वानं
कथमेको गमिष्यसि ॥ ३४ ॥
जहाँ ठहरनेके
लिये कोई स्थान नहीं,
कोई सहारा देनेवाला नहीं, राहखर्च नहीं तथा
अपने देशका कोई साथी अथवा राह बतानेवाला नहीं है, जो
अन्धकारसे व्याप्त और दुर्गम है, उस मार्गपर तुम अकेले कैसे
चल सकोगे ? ॥ ३४ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से