शुकदेवजी
को नारदजीद्वारा वैराग्य और
ज्ञान
का उपदेश देना
अस्थिस्थूणं
स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् ।
चर्मावनद्धं
दुर्गन्धिं पूर्णं मूत्रपुरीषयोः ॥ ४२ ॥
जराशोकसमाविष्टं
रोगायतनमातुरम्।
रजस्वलमनित्यं
च भूतावासमिमं त्यज ॥ ४३ ॥
यह शरीर
पंचभूतों का घर है। इसमें हड्डियों के खंभे लगे हैं। यह नस- नाड़ियों
से बँधा हुआ, रक्त-मांस से लिपा हुआ और चमड़े से मढ़ा हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरा है,
जिससे दुर्गन्ध आती रहती है। यह बुढ़ापा और शोक से व्याप्त, रोगों का घर, दुःखरूप, रजोगुणरूपी
धूल से ढका हुआ और अनित्य है; अत: तुम्हें इसकी आसक्ति को
त्याग देना चाहिये ॥ ४२-४३ ॥
इदं
विश्वं जगत् सर्वमजगच्चापि यद् भवेत् ।
महाभूतात्मकं
सर्वं महद् यत् परमाश्रयात् ॥ ४४ ॥
इन्द्रियाणि
च पञ्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।
इत्येष
सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः ॥ ४५ ॥
यह सम्पूर्ण
चराचर जगत् पंचमहाभूतों से उत्पन्न हुआ है । इसलिये महाभूतस्वरूप ही है । जो
शरीरसे परे है,
वह महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि, पाँच
इन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राएँ,
पाँच प्राण तथा सत्त्व आदि
गुण- इन
सत्रह तत्त्वोंके समुदायका नाम अव्यक्त है ॥ ४४-४५ ॥
सर्वैरिहेन्द्रियार्थैश्च
व्यक्ताव्यक्तैर्हि संहितः ।
चतुर्विंशक
इत्येष व्यक्ताव्यक्तमयो गणः ।। ४६ ।।
इनके साथ ही
इन्द्रियोंके पाँच विषय अर्थात् स्पर्श, शब्द, रूप, रस और गन्ध एवं मन और अहंकार - इन सम्पूर्ण
व्यक्ताव्यक्त को मिलाने से चौबीस तत्त्वों का समूह होता है, उसे व्यक्ताव्यक्तमय समुदाय कहा गया है॥४६॥
एतैः
सर्वैः समायुक्तः पुमानित्यभिधीयते ।
त्रिवर्गं
तु सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा ॥ ४७ ॥
य
इदं वेद तत्त्वेन स वेद प्रभवाप्ययौ ।
पारम्पर्येण बोद्धव्यं
ज्ञानानां यच्च किञ्चन ॥ ४८ ॥
इन्द्रियैर्गृह्यते
यद् यत् तत् तद् व्यक्तमिति स्थितिः ।
अव्यक्तमिति
विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् ॥ ४९ ॥
इन सब
तत्त्वों से जो संयुक्त है,
उसे पुरुष कहते हैं । जो पुरुष धर्म, अर्थ,
काम, सुख-दुःख और जीवन-मरण के तत्त्व को
ठीक-ठीक समझता है, वही उत्पत्ति और प्रलय के तत्त्व को भी
यथार्थरूप से जानता है ॥ ४७ ॥
ज्ञान के
सम्बन्ध में जितनी बातें हैं, उन्हें परम्परा से जानना चाहिये।
जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, उन्हें
व्यक्त कहते हैं और जो इन्द्रियों के अगोचर होनेके कारण अनुमान से जाने जाते हैं,
उनको अव्यक्त कहते हैं ॥ ४८-४९ ॥
इन्द्रियैर्नियतैर्देही
धाराभिरिव तर्प्यते ।
लोके
विततमात्मानं लोकांश्चात्मनि पश्यति ॥ ५० ॥
जिनकी
इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं,
वे जीव उसी प्रकार तृप्त हो जाते हैं, जैसे
वर्षाकी धारासे प्यासा मनुष्य । ज्ञानी पुरुष अपनेको प्राणियोंमें व्याप्त और
प्राणियोंको अपनेमें स्थित देखते हैं ॥ ५०॥
परावरदृश:
शक्तिर्ज्ञानमूला न नश्यति ।
पश्यतः
सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा ॥ ५१ ॥
सर्वभूतस्य
संयोगो नाशुभेनोपपद्यते।
उस
परावरदर्शी ज्ञानी पुरुषकी ज्ञानमूलक शक्ति कभी नष्ट नहीं
होती । जो
सम्पूर्ण भूतोंको सभी अवस्थाओं में सदा देखा करता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंके सहवासमें आकर भी कभी अशुभ कर्मोंसे युक्त नहीं
होता अर्थात् अशुभ कर्म नहीं करता ॥ ५१॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से