रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:
1- ‘पुत्र, स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती । यदि होती तो अब तक किसी न किसी योनि में हो ही जाती । सच्ची तृप्तिका विषय है, केवल परमात्मा। जिसके मिल जाने पर जीव सदा के लिये तृप्त हो जाता है।’
2-‘दुःख मनुष्यत्व के विकास का साधन है । सच्चे मनुष्य का जीवन दुःख में ही खिल उठता है। सोने का रङ्ग तपाने पर ही चमकता है।’
3-‘नित्य हँसमुख रहो, मुखको मलीन कभी न करो, यह निश्चय कर लो कि चिन्ता ने तुम्हारे लिये जगत् में जन्म ही नहीं लिया, आनन्दस्वरूप में सिवा हँसने के चिन्ता को स्थान ही कहां है।’
4-‘सर्वत्र परमात्मा की मधुर मूर्ति देखकर आनन्द में मग्न रहो, जिसको उसकी मूर्ति सब जगह दीखती है वह तो स्वयं आनन्दस्वरूप ही है।’
5-‘शान्ति तो तुम्हारे अन्दर है। कामनारूप डाकिनी का आवेश उतरा कि शान्ति के दर्शन हुए। वैराग्य के महामन्त्र से कामना को भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूरति।’
6-‘जहां सम्पत्ति है वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्ति के भेदसे ही सुख का भी भेद है । दैवी सम्पत्तिवालों को परमात्मसुख है और आसुरीवालोंको आसुरीसुख, नरक के कीड़ों को नरक सुख।’
7-‘किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो, याद रक्खो परमात्मा के यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है।’
8-‘परमात्मा पर विश्वास रखकर अपनी जीवन डोर उसके चरणों में बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणों की दासी बन जायगी ।’
9-‘बीते हुए की चिन्ता न करो, जो अब करना है उसे विचारो और विचारो यही कि बाकी का सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काम में आवे ।’
10-‘धन्य वही है, जिसके जीवन का एक एक क्षण अपने प्रियतम प्यारे के मन की अनुकूलता में बीतता है । चाहे वह अनुकूलता संयोग में हो या वियोग में, स्वर्गमें हो या नरक में, मान में हो या अपमान में, मुक्ति में हो या बन्धन में ।’
11-‘सदा अपने हृदयको देखते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, वैर, ईर्षा, घृणा, मान और मदरूपी शत्रु घर न कर लें । इनमेंसे जिस किसीको भी देखो, तुरन्त मारकर भगा दो। पर देखना बड़ी बारीक नजरसे सचेत होकर, ये चुपके से अन्दर आकर छिप जाते हैं और मौका देखकर अपना विकरालरूप दिखलाते हैं।
12-‘किसी के भी ऊपर के आचरणों को देखकर उसे पापी मत मानो । हो सकता है उस पर मिथ्या ही दोषारोपण किया जाता हो और वह उससे अपने को निर्दोष सिद्ध करने की परिस्थिति में न हो। अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी परिस्थिति में पड़कर अनिच्छा से कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परन्तु उसका अन्तःकरण तुमसे अधिक पवित्र हो।’
…....००२. ०६. पौष सं० १९८४वि०.कल्याण( पृ० ३०२ )