बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सञ्जय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥ २४॥
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति॥ २५॥
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ २६॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

संजय बोले—

हे भरतवंशी राजन्! निद्रा-विजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस प्रकार कहा कि 'हे पार्थ ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख। उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित पिताओं को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।

व्याख्या—

‘युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख’—ऐसा कहने में भगवान् की यह गूढ़ाभिसंधि थी कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर छिपा कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाय और मोह जाग्रत होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुन का तथा उनके निमित्त से भावी मनुष्यों का भी मोहनाश करने के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वज:।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव:॥ २०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ २१॥
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥ २२॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव:॥ २३॥

हे महीपते धृतराष्ट्र! अब शस्त्र चलनेकी तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्यको धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको व्यवस्थितरूपसे सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुनने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे यह वचन बोले।

अर्जुन बोले—

हे अच्युत ! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको (आप तबतक) खड़ा कीजिये, जबतक मैं (युद्धक्षेत्रमें) खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है। दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेनामें आये हुए हैं, युद्ध करनेको उतावले हुए (इन सबको) मैं देख लूँ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०४)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि॥ ११॥
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह:।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥ १२॥
तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥ १३॥
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु:॥ १४॥
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर:॥ १५॥
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:।
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥ १६॥
काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥ १७॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक्पृथक्॥ १८॥
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥ १९॥

दुर्योधन बाह्यदृष्टिसे अपनी सेनाके महारथियोंसे बोला—आप सब-के-सब लोग सभी मोर्चोंपर अपनी-अपनी जगह दृढ़तासे स्थित रहते हुए निश्चितरूपसे पितामह भीष्मकी ही चारों ओरसे रक्षा करें। उस (दुर्योधन)-के हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवोंमें वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्मने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।उसके बाद सफेद घोड़ोंसे युक्त महान् रथपर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनने भी दिव्य शंखोंको बड़े जोरसे बजाया।अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने पांचजन्य नामक तथा धनंजय अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीमने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनन्तविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। हे राजन्! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु—इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये । और (पाण्डवसेना के शंखों के) उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पने वाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥ १०॥

(द्रोणाचार्य को चुप देखकर दुर्योधन के मन में विचार हुआ कि वास्तवमें) हमारी वह सेना (पाण्डवोंपर विजय करनेमें) अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभय-पक्षपाती) भीष्म हैं । परन्तु इन पाण्डवोंकी यह सेना (हमपर विजय करनेमें) पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेना-पक्षपाती) भीमसेन हैं।

व्याख्या—

इस श्लोक से ऐसा प्रतीत है कि दुर्योधन पांडवों से संधि करना चाहता है | परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं | दुर्योधन ने कहा है—

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जनाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः |
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ||
....................(गर्गसंहिता, अश्वमेध०५० | ३६)

‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’

दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ ही है | जब वह कामना के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवों से संधि कैसे कर सकता है ? पाण्डव मन के अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्म के तथा भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते थे | इसलिए जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिर ने ही उसे छुड़वाया | वहाँ युधिष्ठिर के वचन हैं—

परै: परिभावे प्राप्ते वयं पञ्चोतरं शतम् |
परस्परविरोधे तु वयं पञ्च शतं तु ते ||
...................(महाभारत, वन० २४३)

‘दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होनेपर उसका सामना करने के लिए हमलोग एक सौ पाँच भाई हैं | आपस में विरोध होनेपर ही हम पाँच भाई अलग हैं और वे सौ भाई अलग हैं |’

कामना मनुष्यों को पापों में लगाती है (गीता ३ | ३६-३७); परन्तु धर्म मनुष्यों को पुण्यकर्मों में लगाता है |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 03)

 


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

  

जब लग गज अपनो बल बरत्यो नेक सरयो नहीं काम ।

निरबल ह्वै  बलराम  पुकार्‌यो   आयो   आधे   नाम ॥

 

जैसे, गजराजने पूरा नाम भी उच्चारण नहीं किया, उसने केवल हे ना......(थ)आधा नाम लेकर पुकारा । उतनेमें भगवान्‌ने आकर रक्षा कर दी । शास्त्रीय विधियोंकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी इस तरह आर्त होकर पुकारनेकी है । इसलिये आर्त होकर, दुःखी होकर, भगवान्‌को अपना मानकर पुकारें और केवल उनका ही भरोसा, उनकी ही आशा, उनका ही विश्वास रखें और सब तरफसे मन हटाकर उनका ही नाम लें और उनको ही पुकारेंहे राम ! राम !! राम !!! आर्तका भाव तेज होता है, इससे भगवान् उसकी तरफ खिंच जाते हैं और उसके सामने प्रकट हो जाते हैं । तभी तो भगवान् प्रह्लादके लिये खम्भेमेंसे प्रकट हो गये । भीतरका जो आर्तभाव होता है, वही मुख्य होता है । रामनाम उच्चारण करनेकी बड़ी भारी महिमा है । उस रामनामका प्रकरण रामचरितमानसमें बड़े विलक्षण ढंगसे आया है ।

 

नाम-वन्दना

 

 बंदउँ नाम  राम  रघुबर  को ।

हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥

 

                                …………(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । १)

 

नामकी वन्दना करते हुए श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं रघुवंशमें श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजीके उस रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो कृसानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् बीज है । बीजमें क्या होता है ?बीजमें सब गुण होते हैं । वृक्षके फलमें जो रस होता है, वह सब रस बीजमें ही होता है । बीजसे ही सारे वृक्षको तथा फलोंको रस मिलता है । अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजीइस प्रकार तीनों वंशोंमें ही भगवान्‌ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार रामनामवाले हैं, पर श्रीरघुनाथजी महाराजका जो रामनाम है, वह इन सबका कारण है । मैं रघुनाथजी महाराजके उसी रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो अग्निका बीज ’,सूर्यका बीज और चन्द्रमाका बीज है । रामनाममें ’, ‘और ’‒ये तीन अवयव हैं । इन अवयवोंका वर्णन करनेके लिये कृसानु, भानु और हिमकरये तीन शब्द दिये हैं ।

 

यहाँ ये तीनों शब्द बड़े विचित्र एवं विलक्षण रीतिसे दिये गये हैं । कृसानुमें’, भानुमें और हिमकर में है । कृसानुशब्दमेंसे को निकाल दें तोक्सानुशब्द बचेगा, जिसका कोई अर्थ नहीं होगा । भानुशब्दमेंसे निकाल दें तो भ्नुका भी कोई अर्थ नहीं होगा । ऐसे ही हिमकरशब्दमेंसे को निकाल दें तो हिकरका भी कोई अर्थ नहीं निकलेगा; अर्थात् कृसानु भानु और हिमकरये तीनों मुर्देकी तरह हो जायँगे; क्योंकि इनमेंसे रामही निकल गया । इनके साथरामनाम रहनेसे कृसानुमें कृका अर्थ करना, ‘सानुका अर्थ शिखर है, ऐसे हीभानुमें भानाम प्रकाशका है, ‘नुनाम निश्चयका है और हिमकरमें हिमनाम बर्फका है और करनाम हाथका है ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे



गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०२)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

सञ्जय उवाच


दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥ ३॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥ ४॥

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव:॥ ५॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥ ६॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥ ७॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥ ८॥

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥ ९॥

 

 संजय बोले

 उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला । हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्नके द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेनाको देखिये। यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोजये (दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्षमें भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्रभूरिश्रवा । इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)



सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 02)

 

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

 

गिरा और बीचिये दोनों स्त्रीलिंग पद हैं, अरथ और जलये दोनों पुँल्लिंग पद हैं । ये दोनों दृष्टान्त सीता और रामकी परस्पर अभिन्नता बतानेके लिये दिये गये हैं । इनका उलट-पुलट करके प्रयोग किया है । पहले गिरास्त्रीलिंग पद कहकर अरथपुँल्लिंग पद कहा, यह तो ठीक है; क्योंकि पहले सीता और उसके बाद राम हैं, पर दूसरे उदाहरणमें उलट दिया अर्थात् जल’[*] पुँल्लिंग पद पहले रखा और उसके साथ बीचिस्त्रीलिंग पद बादमें रखा । इसका तात्पर्य रामसीताहुआ । इस प्रकार कहनेसे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध होती है । सीतारामसब लोग कहते हैं, पर रामसीताऐसा नहीं कहते हैं । जब भगवान्‌के प्रति विशेष प्रेम बढ़ता है, उस समय सीता और राम भिन्न-भिन्न नहीं दीखते । इस कारण किसको पहले कहें, किसको पीछे कहेंयह विचार नहीं रहता, तब ऐसा होता है । श्रीभरतजी महाराज जब चित्रकूट जा रहे हैं तो प्रयागमें प्रवेश करते समय कहते हैं

 

भरत  तीसरे  पहर   कहँ   कीन्ह   प्रबेसु   प्रयाग ।

कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥

                                                    ………….(मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा २०३)

 

प्रेममें उमँग-उमँगकर रामसिय-रामसिय कहने लगते हैं । उस समय प्रेमकी अधिकताके कारण दोनोंकी एकताका अनुभव होता है । इसलिये चाहे श्रीसीताराम कहोचाहे रामसीता कहो, ये दोनों अभिन्न हैं । ऐसे श्रीसीतारामजीकी वन्दना करते हैं । अब इससे आगे नाम महाराजकी वन्दना करके नौ दोहोंमें नाममहिमाका वर्णन करते हैं ।

एक नाम-जप होता है और एक मन्त्र-जप होता है ।  रामनाम मन्त्र भी है और नाम भी है । नाममें सम्बोधन होता है तथा मन्त्रमें नमन और स्वाहा होता है । जैसे रामाय नमःयह मन्त्र है । इसका विधिसहित अनुष्ठान होता है और राम ! राम !! राम !!! ऐसे नाम लेकर केवल पुकार करते हैं ।  रामनामकी पुकार विधिरहित होती है । इस प्रकार भगवान्‌को सम्बोधन करनेका तात्पर्य यह है कि हम भगवान्‌को पुकारें, जिससे भगवान्‌की दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाय ।

 

कैसा ही क्यों न जन नींद सोता ।

वो नाम लेते  ही  सुबोध  होता ॥

 

जैसे, सोये हुए किसी व्यक्तिको पुकारें तो वह अपना नाम सुनते ही नींदसे जग जाता है, ऐसे ही राम ! राम !! राम !!! करनेसे रामजी हमारी तरफ खिंच जाते हैं । जैसे, एक बच्चा माँ-माँ पुकारता है तो माताओंका चित्त उस बच्चेकी तरफ आकृष्ट हो जाता है । जिनके छोटे बालक हैं, उन सबका एक बार तो उस बालककी तरफ चित्त खिंचेगा, पर उठकर वही माँ दौड़ेगी, जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है । माँ नाम तो उन सबका ही है, जिनके बालक हैं । फिर वे सब क्यों नहीं दौड़तीं ? सब कैसे दौड़ें ! वह बालक तो अपनी माँ को ही पुकारता है । दूसरी माताओंके कितने ही सुन्दर गहने हों, सुन्दर कपड़े हों, कितना ही अच्छा स्वभाव हो, पर उनको वह अपनी माँ नहीं मानता । वह तो अपनी माँको ही चाहता है,इसलिये उस बालककी माँ ही उसकी तरफ खिंचती है । ऐसे ही राम-रामहम आर्त होकर पुकारें और भगवान्‌को ही अपना मानें तो भगवान् हमारी तरफ खिंच जायेंगे ।

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[*] जलशब्द संस्कृत भाषाके अनुसार नपुंसकलिंग है, पर हिन्दी में जलशब्द पुँल्लिंग माना गया है । हिन्दी में नपुंसक लिंग होता ही नहीं ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे




भगवद्भक्त का महत्त्व




 श्री परमात्मने नम:

 

श्रीभगवान् कहते हैं— मुझ में भक्ति रखनेवाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति गुण का अनुसरण करने लगती है । वह सदा मेरी कथा – वार्ता में लगता है । मेरा गुणानुवाद सुनने मात्र से वह आनन्द में तन्मय हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और वाणी गद्गद हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख, चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति,  ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । ब्रह्मा, इन्द्र एवं मनु की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख - ये सभी परम दुर्लभ है; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं करता ।

 

मद्भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।

मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च संततम् ॥

मगुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।

सगद्गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥

न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।

ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥

इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।

स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥

 

………..(देवीभागवत, नवम स्कन्ध )

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)

 




गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥ १॥

धृतराष्ट्र बोले—हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया ?

व्याख्या—

यह हिन्दू संस्कृति की विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ही करने की प्रेरणा की गयी है। इसलिए युद्ध-जैसा घोर कर्म भी 'धर्मक्षेत्र' ( धर्मभूमि ) एवं 'कुरुक्षेत्र'  ( तीर्थभूमि ) - में किया गया है, जिसमें युद्ध में मरने वालों का भी कल्याण हो जाय। भगवान् की ओर से सृष्टि में कोई भी (मेरे और तेरे का) विभाग नहीं किया गया है | सम्पूर्ण सृष्टि पाँचभौतिक है | सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समान रूप से मिले हुए हैं | परन्तु मनुष्य मोह के वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य,घर, गाँव,प्रांत, देश, आकाश,जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं | इस ‘मेरे’ और ‘तेरे’ भेद से ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं | महाभारत का युद्ध भी ‘मामका:’ (मेरे पुत्र) और ‘पांडवा:’ (पांडु के पुत्र)—इस भेद के कारण आरम्भ हुआ है |

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 01)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

श्रीसीताराम-वन्दना

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १८)

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कथा प्रारम्भ करनेसे पहले सभी की वन्दना करते हैं । इस दोहे में श्रीसीतारामजी को नमस्कार करते हैं । इसके बाद नाम-वन्दना और नाम-महिमा को लगातार नौ दोहे और बहत्तर चौपाइयों में कहते हैं ।

श्रीगोस्वामी जी महाराज को यह नौ संख्या बहुत प्रिय लगती है । नौ संख्याको कितना ही गुणा किया जाय, तो उन अंकोंको जोड़नेपर नौ ही बचेंगे । जैसे, नौ संख्या को नौ से गुणा करने पर इक्यासी होते हैं । इक्यासी के आठ और एक, इन दोनों को जोड़ने पर फिर नौ हो जाते हैं । इस प्रकार कितनी ही लम्बी संख्या क्यों न हो जाय, पर अन्त में नौ ही रहेंगे; क्योंकि यह संख्या पूर्ण है ।

गोस्वामी जी महाराज को जहाँ-कहीं ज्यादा महिमा करनी होती है तो नौ तरह की उपमा और नौ तरह के उदाहरण देते हैं । नौ संख्या आखिरी हद है, इससे बढ़कर कोई संख्या नहीं है । यह नौ संख्या अटल है ।
संबत सोरह सै एकतीसा ।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधुमासा ।
अवधपुरी यह चरित प्रकासा ॥
……………(मानस, बालकाण्ड, दोहा ३४ । ४,५)

रामजन्म तिथि बार सब जस त्रेता महँ भास ।
तस इकतीसा महँ को जोग लगन ग्रह रास ॥

भगवान् श्रीराम ने त्रेतायुगमें चैत्र मास, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि,मंगलवार के दिन शुभ मुहूर्तके समय अयोध्या में अवतार लिया । भगवान्‌ के अवतारके दिन जैसा शुभ मुहूर्त था, ठीक वैसा ही शुभ मुहूर्त का संयोग संवत् १६३१ में भगवान्‌ के अवतार के दिन बना । श्रीगोस्वामीजी महाराज ने अयोध्या में उसी दिन श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया । जबतक ऐसा संयोग नहीं बना, तब तक वैसे शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहे । यहाँ अठारहवें दोहे में श्रीसीतारामजी के चरणोंकी वन्दना करते हैं । सीतारामजी की बहुत विलक्षणता है । ‘जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’, दुःखी आदमी किसीको प्यारा नहीं लगता । दीन-दुःखीको सब दुत्कारते हैं, पर सीतारामजी को जो दुःखी होता है, वह ज्यादा प्यारा लगता है, वह उनका परमप्रिय है, उसपर विशेष कृपा करते हैं । उन श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।

श्रीसीतारामजी अलग-अलग नहीं हैं । इस बातको समझानेके लिये दो दृष्टान्त देते हैं । जैसे, गिरा-अरथ और जल-बीचि कहनेका तात्पर्य है कि वाणी और उसका अर्थ कहनेमें दो हैं, पर वास्तवमें दो नहीं, एक हैं । वाणीसे कुछ भी कहोगे तो उसका कुछ-न-कुछ अर्थ होगा ही और किसीको कुछ अर्थ समझाना हो तो वाणीसे ही कहा जायगा‒ऐसे परस्पर अभिन्न हैं । इसी तरह जल होगा तो उसकी तरंग भी होगी । तरंग और जल कहने में दो हैं, पर जलसे तरंग या तरंगसे जल अलग नहीं है एक ही है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...