॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे
जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥
१२॥
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं
जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न
मुह्यति॥ १३॥
किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं
था तथा ये राजा लोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में मैं, तू और राजालोग) हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
देहधारी के इस मनुष्यशरीर में जैसे
बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती
है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
व्याख्या—
मनुष्यमात्र को ‘मैं हूँ’- इस
रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है
। इस सत्ता में अहम् (‘मैं’) मिला
हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के
रूपमें अपनी अलग एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है ।
यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूपमें एक सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणीमात्रका वास्तविक
स्वरूप है । उस सत्तामें जड़ताका मिश्रण
नहीं है अर्थात् उसमें मैं, तु, यह और वह- ये चारों ही नहीं हैं ।
सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है ।
जीव स्वयं तो निरन्तर अमरत्त्वमें ही
रहता है, पर शरीर निरन्तर मृत्युमें जा रहा है । जीवके गर्भ में आते ही मृत्यु का यह क्रम आरम्भ
हो जाता है । गर्भावस्था मरती है तो
बाल्यावस्था आती है । बाल्यावस्था मरती है
तो युवावस्था आती है । युवावस्था मरती है
तो वृद्धावस्था आती है । वृद्धावस्था मरती
है तो देहान्तर-अवस्था आती है अर्थात् दूसरे जन्म की प्राप्ति होती है । इस प्रकार शरीर की अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उसमें रहनेवाला शरीरी ज्यों-का-त्यों रहता है । कारण यह है कि शरीर और शरीरी- दोनोंके विभाग ही
अलग-अलग हैं । अतः साधक अपनेको कभी शरीर न
माने । बन्धन-मुक्ति स्वयं की होती है, शरीर की नहीं ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)