# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौथा
अध्याय (पोस्ट 04)
नन्द
आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय;
श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त
वरदानों का विवरण
वरं
वृणीत मुनयः श्रीरामस्तानुवाच ह ।
यथा सीता तथा सर्वे भूयाःस्म इति वादिनः ॥५१॥
श्रीराम उवाच -
यथा हि लक्ष्मणो भ्राता तथा प्रार्थ्यो वरो यदि ।
अद्यैव सफलो भाव्यो भवद्भिर्मत्प्रसंगतः ॥५२॥
सीतोपमेयवाक्येन दुर्घटो दुर्लभो वरः ।
एकपत्नीव्रतोऽहं वै मर्यादापुरुषोत्तमः ॥५३॥
तस्मात्तु मद्वरेणापि द्वापरान्ते भविष्यथ ।
मनोरथं करिष्यामि भवतां वाञ्छितं परम् ॥५४॥
इति दत्त्वा वरं रामस्ततः पंचवटीं गतः ।
पर्णशाला समासाद्य वनवासं चकार ह ॥५५॥
तद्दर्शनस्मररुजः पुलिन्द्यः प्रेमविह्वलाः ।
श्रीमत्पादरजो धृत्वा प्राणांस्त्यक्तुं समुद्युताः ॥५६॥
ब्रह्मचारीवपुर्भूत्वा रामस्तत्र समागतः ।
उवाच प्राणसंत्यागं मा कुरुत स्त्रियो वृथा ॥५७॥
वृन्दावने द्वापरान्ते भविता वो मनोरथः ।
इत्युक्त्वा ब्रह्मचारी तु तत्रैवान्तरधीयत ॥५८॥
अथ रामो वानरेन्द्रै रावणादीन्निशाचरान् ।
जित्वा लङ्कामेत्य सीता पुष्पकेण पुरीं ययौ ॥५९॥
सीतां तत्त्याज राजेन्द्रो वने लोकापवादतः ।
अहो सतामपि भुवि भवनं भूरि दुःखदम् ॥६०॥
यदा यदाकरोद्यज्ञं रामो राजीवलोचनः ।
तदा तदा स्वर्णमयीं सीतां कृत्वा विधानतः ॥६१॥
यज्ञसीतासमूहोऽभून्मन्दिरे राघवस्य च ।
ताश्चैतन्यघना भूत्वा रन्तुं रामं समागताः ॥६२॥
ता आह राघवेशेन्द्रो नाहं गृह्णामि हे प्रियाः ।
तदोचुस्ताः प्रेमपरा रामं दशरथात्मजम् ॥६३॥
कथं चास्मान्न गृह्णासि भजन्तीर्मैथिलीः सतीः ।
अर्धाङ्गीर्यज्ञकालेषु सततं कार्यसाधनीः ॥६४॥
धर्मिष्ठस्त्वं श्रुतिधरोऽधर्मवद्भाषसे कथम् ।
करं गृहीत्वा त्यजसि ततः पापमवाप्यसि ॥६५॥
श्रीराम उवाच -
समीचीनं वचस्सत्यो युष्माभिर्गदितं च मे ।
एकपत्नीव्रतोऽहं हि राजर्षिः सीतयैकया ॥६६॥
तस्माद्यूयं द्वापरान्ते पुण्ये वृन्दावने वने ।
भविष्यथ करिष्यामि युष्माकं तु मनोरथम् ॥६७॥
श्रीभगवान् उवाच -
ता व्रजेऽपि भविष्यन्ति यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
अन्यासां चैव गोपीनां लक्षणं शृणु तद्विधे ॥६८॥
तब
श्रीरामने कहा - 'मुनियो ! वर माँगो ।'
यह सुनकर सभीने एक स्वरसे कहा- 'जिस भाँति
सीता आपके प्रेमको प्राप्त हैं, वैसे ही हम भी चाहते हैं'
॥ ५१ ॥
श्रीराम
बोले- यदि तुम्हारी ऐसी प्रार्थना हो कि जैसे भाई लक्ष्मण हैं,
वैसे ही हम भी आपके भाई बन जायँ, तब तो आज ही
मेरेद्वारा तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है; किंतु तुमने
तो 'सीता' के समान होनेका वर माँगा है।
अतः यह वर महान् कठिन और दुर्लभ है; क्योंकि इस समय मैंने
एकपत्नी व्रत धारण कर रखा है। मैं मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहकर 'मर्यादापुरुषोत्तम' भी कहलाता हूँ। अतएव तुम्हें
मेरे वरका आदर करके द्वापरके अन्तमें जन्म धारण करना होगा और वहीं मैं तुम्हारे इस
उत्तम मनोरथको पूर्ण करूँगा ॥ ५२ - ५४ ॥
इस
प्रकार वर देकर श्रीराम स्वयं पञ्चवटी पधारे। वहाँ पर्णकुटीमें रहकर वनवासकी अवधि
पूरी करने लगे। उस समय भीलोंकी स्त्रियोंने उन्हें देखा । उनमें मिलनेकी उत्कट
इच्छा उत्पन्न होनेके कारण वे प्रेमसे विह्वल हो गयीं । यहाँतक कि श्रीरामके
चरणोंकी धूल मस्तकपर रखकर अपने प्राण छोड़नेकी तैयारी करने लगीं। उस समय श्रीराम
ब्रह्मचारीके वेषमें वहाँ आये और इस प्रकार बोले- 'स्त्रियो ! तुम व्यर्थ ही प्राण त्यागना चाहती हो, ऐसा
मत करो। द्वापरके शेष होनेपर वृन्दावनमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।' इस प्रकारका आदेश देकर श्रीरामका वह ब्रह्मचारी रूप वहीं अन्तर्हित हो गया
।। ५५ - ५८ ।।
तत्पश्चात्
श्रीरामने सुग्रीव आदि प्रधान वानरोंकी सहायतासे लङ्कामें जाकर रावण प्रभृति
राक्षसोंको परास्त किया। फिर सीताको पाकर पुष्पक विमान- द्वारा अयोध्या चले गये।
राजाधिराज श्रीराम ने लोकापवाद के कारण सीता को वनमें छोड़ दिया । अहो ! भूमण्डलपर
दुर्जनों का होना बहुत ही दुःखदायी है ।। ५९-६० ।।
जब-जब
कमललोचन श्रीराम यज्ञ करते थे, तब-तब
विधिपूर्वक सुवर्णमयी सीता की प्रतिमा बनायी जाती थी । इसलिये श्रीराम-भवन में
यज्ञ-सीताओंका एक समूह ही एकत्र हो गया। वे सभी दिव्य चैतन्य- घनस्वरूपा होकर
श्रीराम के पास गयीं ।। ६१-६२ ।।
उस
समय श्रीराम ने उनसे कहा- 'प्रियाओ ! मैं तुम्हें
स्वीकार नहीं कर सकता।' वे सभी प्रेमपरायणा सीता-मूर्तियाँ
दशरथनन्दन श्रीराम से कहने लगी- 'ऐसा क्यों ? हम तो आपकी सेवा करनेवाली हैं। हमारा नाम भी मिथिलेशकुमारी सीता है और हम
उत्तम व्रत का आचरण करनेवाली सतियाँ भी हैं; फिर हमें आप
ग्रहण क्यों नहीं करते ? यज्ञ करते समय हम आपकी अर्धाङ्गनी
बनकर निरन्तर कार्यों का संचालन करती रही ।। ६३-६४ ।।
आप
धर्मात्मा और वेद के मार्ग का अवलम्बन करनेवाले हैं, यह अधर्मपूर्ण बात आपके श्रीमुख से कैसे निकल रही है ? यदि आप स्त्रीका हाथ पकड़- कर उसे त्यागते हैं तो आपको पाप का भागी होना
पड़ेगा ।। ६५ ॥
श्रीराम
बोले- सतियो ! तुमने मुझसे जो बात कही है, वह
बहुत ही उचित और सत्य है। परंतु मैंने 'एकपत्नीव्रत' धारण कर रखा है ? सभी लोग मुझे 'राजर्षि' कहते हैं। अतः नियम को छोड़ भी नहीं सकता।
एकमात्र सीता ही मेरी सहधर्मिणी है। इसलिये तुम सभी द्वापर के अन्त में श्रेष्ठ
वृन्दावन में पधारना, वहीं तुम्हारी मनःकामना पूर्ण करूँगा
।। ६६-६७ ॥
भगवान्
श्रीहरिने कहा- ब्रह्मन् ! वे यज्ञ-सीता ही व्रज में गोपियाँ होंगी । अन्य
गोपियोंका भी लक्षण सुनो ॥ ६८ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत भगवद् ब्रह्म-संवादमें 'अवतारके उद्योगविषयक प्रश्नका वर्णन' नामक चौथा
अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से